विचार / लेख

शंकर गुहा नियोगी, छत्तीसगढ़ के जनप्रिय मजदूर नेता
27-Sep-2021 6:22 PM
शंकर गुहा नियोगी, छत्तीसगढ़ के जनप्रिय मजदूर नेता

   28 सितंबर को 30 वीं पुण्यतिथि पर याद  

-बाबा मायाराम

शंकर गुहा नियोगी, छत्तीसगढ़ के मशहूर मजदूर नेता थे, उनकी बहुत ही कम आयु में  हत्या 28 सितंबर, 1991 को कर दी गई, जब वे मात्र 48 वर्ष के थे, लेकिन उस समय तक उनकी ख्याति देश-दुनिया में फैल चुकी थी। वे एक किंवदंती बन चुके थे। उन्होंने न केवल मजदूरों की जिंदगी की बेहतरी के लिए काम किए, वेतन-भत्ते बढ़ाने के लिए लड़ाई लड़ी, बल्कि पूरी जिंदगी के लिए काम किया। व्यापक तौर पर सामाजिक बदलाव के नए प्रतिमान बनाए, उन्हें जमीन पर करके दिखाया। वे जन आंदोलन व सामाजिक बदलाव की एक उम्मीद बन गए।

 

शंकर गुहा नियोगी का जन्म जलपाईगुड़ी (पश्चिम बंगाल में हुआ। पर विद्यार्थी जीवन में ही भिलाई आ गए। भिलाई इस्पात संयंत्र में काम भी किया। लेकिन जल्दी ही गांव की तरफ रुख कर लिया। गांव-गांव घूमे, खुद मजदूरी की, पत्थर तोड़े, छोटे छोटे काम कर जीवन चलाया। गरीबी व लोगों की तंगदिली को करीब से देखा। उनमें संगठन बनाने की कोशिश की। कई बार जेल गए, उन्होंने अपने जीवन के 6 वर्ष जेल में बिताएं। वहां यातनाएं भी झेली।

उनकी कर्मस्थली बना छत्तीसगढ़ का कस्बा दल्ली राजहरा, जो अब बालोद जिले में है, पहले दुर्ग जिले में था। दल्ली और राजहरा नाम की दो लौह खदानों के नाम पर ही इसका नाम दल्ली राजहरा पड़ा। इन खदानों से लौह अयस्क भिलाई इस्पात संयंत्र को जाता था। इन खदानों में जो ठेका मजदूर काम करते थे, उन मजदूरों को बहुत ही कम रोजी मिलती थी। उनक़ी हालत अच्छी नहीं थी। उस समय के यूनियन उचित नेतृत्व देने में सक्षम नहीं थे, वे प्रबंधन के साथ मिले थे। ऐसे समय में नियोगी जी के कुशल नेतृत्व के आगे प्रबंधन को मजदूरों की मांगें माननी पड़ी। और एक के बाद एक संघर्ष के आगे सफलताएं मिलती गईं।

नियोगी की व्यापक सोच थी। उन्होंने मजदूरों के लिए 17 विभाग बनाए, जिन पर लगातार काम होता रहा। किसानों की समस्याओं से लेकर शिक्षा, स्वास्थ्य, शराबबंदी, महिला संगठन इत्यादि। एक अनूठा स्वास्थ्य आंदोलन चला- मेहनतकशों के स्वास्थ्य के लिए मेहनतकशों का संघर्ष। इसके तहत् शहीद अस्पताल बना, जो आज एक सर्वसुविधायुक्त अस्पताल बन गया है। कोविड-19 के दौरान इस अस्पताल ने बहुत ही अच्छा काम किया है। कोविड वार्ड बनाकर रात-दिन मजदूरों की सेवा की है। इस अस्पताल ने लोगों का विश्वास जीता है और साख अर्जित की है, जो बड़े बड़े अस्पतालों के पास नहीं है। इसी तरह अर्द्धमशीनीकरण की उनकी सोच मौजूं है। जिसमें खदानों में जोखिम वाले काम मशीन से करने और बाकी काम मजदूरों से करवाने की सोच थी।

अपना जंगल पहचानो, के नाम से छत्तीसगढ़ माइंस श्रमिक संघ के कार्यालय के पीछे लगाया जिसमें कई तरह के देसी प्रजाति के पेड़ हैं। पिछली बार मैं गया तो उस जंगल में घूमा था। वे उन आदिवासियों व जंगल में रहनेवाले लोगों की समस्या से भी लड़ते थे, जिन्हें जलाऊ लकड़ी के लिए वनविभाग परेशान करता था।
छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा, जिसके नियोगी के संस्थापक थे, के नेतृत्व के लिए भी उन्होंने कई नियम बनाए थे। छमुमो के कार्यकर्ता संघर्ष में तपकर निकलते थे। जेल जाना, पुलिस की लाठियां खाना, सादगी से रहना और मजदूरों के बीच उनकी तरह जीवन बिताना, कार्यकर्ताओं की पहचान थी।

जनकलाल ठाकुर, जो छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष है, की सादगी मिसाल है।शेख अंसार, भीमराव बागड़े, गणेशराम चौधरी, डा शैवाल जाना जी जैसे कई लोग हैं, जिनकी जिंदगी ही बदल गई। फागूराम यादव जी, ने ऐसे जनगीत रचे, जो जनांदोलन के प्रमुख गीत बन गए। चल मजदूर चल किसान, देश के हो महान, ऐसा ही लोकप्रिय गीत है। लोक संस्कृति को आंदोलन की संस्कृति से जोड़ा। वह आंदोलन की जान थी। छमुमो ने ऐसे कई गीत रचनेवाले बनाए, जो बहुत ही अनूठी बात है। नियोगी जी ने सैकड़ों लोगों को छुआ व बदला।

मुझे 80 के दशक के शुरूआत में नियोगी जी से मिलने और उनके साथ इलाके में घूमने का मौका मिला। वर्ष 84 में दल्ली राजहरा में करीब एक माह रहा और कई गांवों में घूमा। इस दौरान मैंने देखा कि वे हमेशा ही मजदूरों से घिरे रहते थे, उनकी छोटी छोटी समस्याओं से लेकर बड़ी समस्याओं से सुलझाते रहते थे।

मैंने देखा कि वे इतने व्यस्त रहते थे कि दोपहर में भोजन भी नहीं कर पाते थे। एक बार मैंने याद दिलाया, तो बोले सब मजदूर खाएंगे तो हम भी खा लेंगे। मजदूरों के बीच से निकल कर भोजन करना भी उन्हें गंवारा न था। वे एक झोपड़ी में रहते थे। खुद कुएं से पानी खींचकर नहाते थे। कपड़े धोते थे। उन्हें पेड़-पौधों में गहरी दिलचस्पी थी। उनके घर में खूब पौधे थे, एक बिना बीजवाला नींबू वे हमारे ही इलाके से लेकर गए थे, जो अब भी उनके यहां है।

उनका जीवन पारदर्शी था। वे एक झोपड़ी में अपने परिवार के साथ रहते थे। उनके बेटे और बेटियां का नाम उन्होंने क्रांति, जीत और मुक्ति रखा। उनका एक-एक कदम आदर्श से भरा था। जो कहते थे वैसा जीते थे। निजी और सार्वजनिक जीवन में कोई भेद नहीं था। कोई भी मजदूर उनकी चूल्हे की हांडी में क्या पक रहा है, देख सकता था।

उसके बाद भी मैं कई बार नियोगी जी से मिला, उनकी हत्या के 10 दिन पहले जब वे होशंगाबाद आए थे, तब उनसे आखिरी मुलाकात हुई थी, उन्होंने मुझे जल्द ही दल्ली राजहरा मिलने के लिए बुलाया था, कहा था कि बाबा, मजदूरों का एक अखबार निकालना है, लेकिन जब दल्ली गया तब वे नहीं थे। दल्ली राजहरा के बस स्टैंड पर उतरते ही उनकी फोटो के लिए झपटते मजदूरों को देखा, जो एक व्यक्ति बेच रहा था, अभी उनकी फोटो चिपकाए कई मजदूर व बुजुर्ग मिल जाते हैं, नियोगी उनके दिलों में जिंदा हैं। उनके लिए बड़े महल व स्मारक बनवाने की जरूरत नहीं हैं, जो खंडहर बन जाते हैं। वे छत्तीसगढ़ के किसान-मजदूरों के दिलों में सदैव ही जिंदा रहेंगे।

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