संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : मौसम की मार से इंसानों को बचाने के मोर्चे पर आप हैं?
29-Sep-2021 5:35 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  मौसम की मार से इंसानों को बचाने के मोर्चे पर आप हैं?

इटली के मिलान शहर में अभी क्लाइमेट चेंज पर नौजवान पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने एक सम्मेलन रखा जिसमें स्वीडन की चर्चित पर्यावरण आंदोलनकारी युवती ग्रेटा थनबर्ग भी पहुंची। उसने एक जबरदस्त भाषण में दुनिया के देशों की जुबानी जमाखर्च को लताड़ा, और उसका भाषण चारों तरफ तैर रहा है। दुनिया के 190 देशों से करीब 400 जवान इस शहर में इकट्ठा हुए हैं, और उन्होंने दुनिया के राष्ट्रीय प्रमुख शासन प्रमुखों की धोखाधड़ी को उजागर करने का काम किया है। नौजवानों का यह विरोध उस वक्त सामने आया है जब महीने भर बाद ही  ग्लासगो में संयुक्त राष्ट्र के बैनर तले एक बड़ा पर्यावरण सम्मेलन होने जा रहा है जिसमें इन नौजवानों के उठाए हुए मुद्दे छाए रहना तय है।

दूसरी तरफ वैज्ञानिकों ने मौसम के बदलाव को लेकर जो हिसाब लगाया है वह भी बहुत डरावना है। एक बड़ी प्रतिष्ठित वैज्ञानिक पत्रिका ‘साइंस’ जर्नल में जलवायु परिवर्तन के बारे में छपा है कि आज के जो बच्चे हैं वे अपने जीवन में अपने दादा-दादी, या नाना-नानी के मुकाबले मौसम के सबसे बुरे मामलों (एक्सट्रीम वेदर इवेंट्स) दो-तीन गुना अधिक देखेंगे। इसमें भी एक बात यह है कि जो संपन्न या विकसित देश हैं, वहां के बच्चों को ऐसे हालात अपनी दो पीढ़ी पहले के मुकाबले 2 गुना अधिक देखने होंगे, लेकिन गरीब देशों के बच्चों को ऐसे हालात 3 गुना अधिक देखने होंगे। मतलब यह कि आने वाली पीढिय़ों की किस्मत में तकलीफ तो पिछली पीढिय़ों के मुकाबले बहुत अधिक लिखी हुई है ही, उसमें भी जो गरीब हैं उनके हिस्से ज्यादा तकलीफ लिखी हुई है, चाहे वह गरीब देश हों, चाहे वह गरीब बच्चे हों।

मौसम की मार और तरह-तरह की प्राकृतिक विपदाओं ने इस बुरी तरह लोगों पर वार किया है कि गरीब लोगों के लिए तो खाना जुटाना मुश्किल हो गया है। अगर देखें कि मौसम का यह बदलाव, यह जलवायु परिवर्तन किनकी वजह से हो रहा है तो बड़ा साफ समझ में आता है कि संपन्न और विकसित देशों के लोग सामानों की जितनी खपत कर रहे हैं, और जितना प्रदूषण पैदा कर रहे हैं, सुविधाओं को जितना भोग रहे हैं, उनकी वजह से यह परिवर्तन अधिक हो रहा है. दूसरी तरफ उनसे कई गुना अधिक आबादी वाले जो गरीब देश हैं वे ऐसे जलवायु परिवर्तन के लिए बहुत थोड़े हद तक जिम्मेदार हैं। मतलब यह कि जलवायु परिवर्तन की औसत जिम्मेदारी अगर डाली जाए तो दुनिया की 20 फीसदी रईस आबादी पर उसकी 80 फीसदी जिम्मेदारी आ सकती है, और दुनिया की 80 फीसदी गरीब आबादी पर कुल मिलाकर भी पर्यावरण बर्बादी की 20 फीसदी से अधिक जिम्मेदारी नहीं आती। फिर यह भी है कि पिछले अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप जैसे लोगों की वजह से संपन्न और विकसित, और प्रदूषण फैलाने वाले धरती पर बोझ बने हुए देशों ने गरीब देशों में पर्यावरण के बचाव के लिए जिस मदद का वायदा किया था उसे उन्होंने पूरा नहीं किया है। नए अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने जरूर अपने देश के योगदान के वायदे को अब बढ़ाकर दोगुना किया है, लेकिन फिर भी गरीब देशों की पर्यावरण बचाने की जरूरत  पूरी होने के करीब कहीं भी नहीं पहुंच पा रही हैं, क्योंकि संपन्न देश पर्यावरण बिगाडऩे की अपनी जिम्मेदारी के एवज में कोई हर्जाना देना नहीं चाहते हैं।

यह सिलसिला धरती पर देशों के बीच, और देश के भीतर लोगों के बीच, एक बहुत बड़े भेदभाव का मामला है। दुनिया में बहुत से लोग अधिक आबादी को पर्यावरण पर या धरती पर एक बोझ बोझ मानकर चलते हैं। हकीकत यह है कि गरीब आबादी धरती को जितना इस्तेमाल करती है, उससे ज्यादा दुनिया के लिए पैदा करके देती है। गरीबों की उत्पादकता उनकी खपत के मुकाबले बहुत अधिक है। दूसरी तरफ हर अमीर इंसान की खपत गरीब के मुकाबले आसमान छूती हुई है। ऐसे बहुत से भेदभाव लगातार खबरों में रहते हैं, बहसों में रहते हैं, लेकिन जब दुनिया के देश किसी एक मंच पर जुटते हैं तो सबसे विकसित, सबसे ताकतवर, और सबसे संपन्न देश अपनी जिम्मेदारी से कतराने की कोशिश करते हैं। इस बारे में अधिक से अधिक चर्चा होनी चाहिए, हर प्रदेश में, और हर देश में चर्चा होनी चाहिए, और दुनिया के छात्र-छात्राओं, नौजवानों ने जिस तरह पर्यावरण के लिए आंदोलन करने का एक मोर्चा खोला है, उससे बाकी दुनिया के बाकी नौजवानों को भी कुछ सीखना चाहिए, और धरती के प्रति, अपनी आने वाली जिंदगी के प्रति एक फिक्र करनी चाहिए। सबको सोचना चाहिए कि मौसम की मार से इंसानों को बचाने के मोर्चे पर आप कहीं खड़े हैं?
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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