संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : घर में नहीं दाने, और अम्मा चली तालिबान के लिए मदद जुटाने
08-Oct-2021 5:58 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : घर में नहीं दाने, और अम्मा चली तालिबान के लिए मदद जुटाने

अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अभी पाकिस्तान की एक बड़ी आलोचना इस बात को लेकर हो रही है कि संयुक्त राष्ट्र संघ से लेकर दूसरे देशों के बीच वह अपनी फिक्र करने के बजाए अफगानिस्तान के तालिबान की फिक्र कर रहा है, और लोगों को प्रभावित करने की कोशिश कर रहा है कि वे तालिबान का साथ दें। इस बात को वहां के प्रधानमंत्री इमरान खान भी आगे बढ़ा रहे हैं, और पाक विदेश मंत्री, या पाकिस्तानी राजदूत भी अंतरराष्ट्रीय बातचीत में तालिबान का झंडा लेकर चलते दिख रहे हैं। पाकिस्तान के मामलों के राजनीतिक विश्लेषकों का यह मानना है कि इमरान खान को यह एजेंडा पाकिस्तान के फौजी जनरलों ने दिया हुआ है जो कि तालिबान की सरकार को अपने लिए बेहतर मान रहे हैं। ऐसा इसलिए भी है कि अफगानिस्तान की पिछली गनी सरकार भारत को अधिक महत्व दे रही थी, और पाकिस्तान के साथ उसके तनातनी के रिश्ते चल रहे थे। इसलिए वहां पर गनी सरकार के चलते हुए ही पाकिस्तान के संबंधों उससे बहुत खराब थे और उस वक्त से ही पाकिस्तान वहां पर तालिबान के आने की राह देख रहा था। लेकिन पाकिस्तान की आज की निर्वाचित सरकार की दिक्कत यह है कि वह अपनी घरेलू दिक्कतों को किनारे रखकर तालिबान की अफगान दिक्कतों की वकालत करते घूम रही है। यह बात अजीब इसलिए है कि दुनिया के देशों के बीच में जहां अपने बचे हुए असर का इस्तेमाल करके पाकिस्तान अपने लिए कोई राहत जुटाता, उसके बजाय वह तालिबान का काम कर रहा है। यह कुछ उसी किस्म का लग रहा है जैसे अपनी कंपनी को डूबते छोडक़र कोई सेल्स एजेंट किसी दूसरी कंपनी के सामान को बेचने की कोशिश करे।

तालिबान को लेकर उसके आने के पहले हफ्ते में लोगों को यह भरोसा दिलाने की कोशिश की गई थी कि वे पिछली बार के, 20 वर्ष पहले के, तालिबान के मुकाबले अलग हैं। वह अब तजुर्बेकार हो चुके हैं, और वह दुनिया की मीडिया से बात करने वाले अधिक रहमदिल, और महिलाओं को कुछ हक देने वाले लोग हैं। तालिबान ने खुद होकर यह दावा भी किया था कि उनकी सरकार अफगानिस्तान में सभी तबकों को मिलाकर बनी सरकार होगी, लेकिन पहले मंत्रिमंडल बनने से लेकर अब तक इस तरह की तमाम खुशफहमियां खत्म हो गई हैं। अब कोई भी यह मानकर नहीं चल रहे कि ये तालिबान पिछली बार के तालिबान के मुकाबले अलग हैं. यह भी है कि इस बार पाकिस्तान और चीन अधिक मजबूती से तालिबान के साथ खड़े हुए हैं और उनकी यह मजबूरी भी है क्योंकि उनकी लंबी सरहदें अफगानिस्तान के साथ लगी हुई हैं, और क्योंकि तालिबान की अमेरिका से दुश्मनी रही है इसलिए भी चीन और चीन के साथ-साथ पाकिस्तान उन्हें महत्व दे रहा है। और ठीक इसी वजह से ईरान भी उन्हें महत्व दे रहा है। इन सबकी एक मजबूरी यह भी है कि ये देश अफग़़ानिस्तान से अपने देश में नशे का कारोबार नहीं चाहते हैं।

आज दुनिया के सामने अफगान लोगों को लेकर यह बात साफ हो रही है कि अगर अंतरराष्ट्रीय समुदाय की तरफ से आम अफगान नागरिकों को मदद नहीं मिल पाएगी तो वहां लाखों लोगों के भूखे मरने का एक खतरा खड़ा हुआ है। वहां न खाने को है, न काम है, न इलाज है, न कोई अर्थव्यवस्था बाकी है। ऐसे में अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों को तालिबान से सबसे पहले तो अपनी खुद की हिफाजत की गारंटी चाहिए, जो कि देने की हालत में तालिबान नहीं है. आज तो आईएस नाम के आतंकी संगठन के अफगानिस्तान में हमले जारी हैं, और तालिबान उन्हें रोकने की हालत में नहीं दिख रहा है। ऐसे में अंतरराष्ट्रीय सहायता एजेंसियों के लोगों को देश भर में काम करने देने की हिफाजत तालिबान सरकार कैसे मुहैया करा सकेगी यह सोचना आसान नहीं है फिर अंतरराष्ट्रीय समुदाय का यह शक अपनी जगह कायम है कि तालिबान अपने नागरिकों के प्रति अपनी बुनियादी जिम्मेदारी को अंतरराष्ट्रीय समुदाय पर डालकर खुद अपनी फौजी तैयारी में अपनी रकम खर्च करेगा या पड़ोसी देशों के साथ मिलकर दूसरे देशों के खिलाफ किसी तरह की साजिश करेगा। इसलिए अब अफगान तालिबान सरकार को अंतरराष्ट्रीय समुदाय से न तो अभी तक कोई मान्यता मिल रही है, और न ही कोई मदद उसे मिलने के आसार हैं। अंतरराष्ट्रीय मूल्यों के हिसाब से आम नागरिकों को जिंदा रहने के लिए, और इलाज के लिए जो मदद दी जानी चाहिए, उसी मदद की उम्मीद अभी तालिबान सरकार कर रही है, और वह भी आसानी से पूरी होते नहीं दिख रही है।

अंतरराष्ट्रीय समुदाय का यह भी मानना है कि मदद की यह शर्त एक ऐसा मौका है जिसे इस्तेमाल करके दूसरे देश और अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं तालिबान से अफगान महिलाओं के अधिकारों के बारे में बात कर सकती हैं, और वहां के नागरिक अधिकारों के बारे में बात कर सकती हैं। आज तो हालत यह है कि अब अफगान तालिबान लगातार कहीं मुजरिमों के हाथ-पैर काटने की बात कह रहे हैं, तो कहीं महिलाओं को घर तक सीमित करने का उनका अभियान चल ही रहा है। ऐसे में उस देश के भीतर महिलाओं और आम नागरिकों के मानवाधिकारों की हिफाजत करने के लिए अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं एक शर्त रख सकती हैं, और उस शर्त पर ही कोई मदद वहां के लोगों तक पहुंचाने की बात कर सकती हैं। यह मौका सभी के बारीकी से देखने का है कि तालिबान ऐसी अंतरराष्ट्रीय शर्तों को किस हद तक मानते हैं, अपने को कितना लचीला और उदार बनाते हैं या फिर क्या वे अपने नागरिकों को भूखा मरने के लिए छोड़ भी सकते हैं? पड़ोस का पाकिस्तान जो कि लगातार तालिबान का वकील बन कर दुनिया में उस की हिमायत करते घूम रहा है, उसकी खुद की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि वह अफगानिस्तान की कोई भी मदद कर सके। दूसरी तरफ चीन के पास इतनी ताकत तो है कि वह अफगानिस्तान की मदद कर सके लेकिन सवाल यह है यह मदद शुरू तो हो सकती है, लेकिन अफगान अर्थव्यवस्था अपने पैरों पर कब खड़ी हो सकेगी इसका कोई अंदाज नहीं लग सकता, और यह मदद कब तक जारी रहेगी इसका भी कोई अंदाज नहीं है, इसलिए चीन भी अफगानिस्तान का जिम्मा अपने ऊपर लेने के पहले सौ बार इस बात को सोचेगा कि वह मदद को बंद कब कर सकेगा। अभी पूरी दुनिया ने यह देखा हुआ है कि अफगानिस्तान पर फौजी कब्जा करने के बाद अमेरिका को वहां से शिकस्त झेलते हुए निकलने में कितनी शर्मिंदगी झेलनी पड़ी है। इसलिए अफगानिस्तान को लेकर लंबे वक्त के लिए कोई जिम्मेदारी चीन भी उठाने को तैयार नहीं होगा।

यह सही वक्त है जब तालिबान सरकार को मान्यता देने के पहले दुनिया उसके सामने इंसानियत की शर्तें रखे, लोकतंत्र की शर्तें रखे, महिलाओं के अधिकारों की शर्त रखे, और उसके बाद ही उसे मान्यता दे, और कोई सहायता दे। आने वाला वक्त यह बताएगा कि तालिबान के साथ ऐसी बातचीत और ऐसे मोल-भाव में दुनिया कहां तक पहुंच सकती है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)


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