विचार / लेख

दो साहसी पत्रकारों को नोबेल
10-Oct-2021 11:58 AM
दो साहसी पत्रकारों को नोबेल

बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक

फिलीपींस की महिला पत्रकार मारिया रेसा और रूस के पत्रकार दिमित्री मोरातोव को नोबल पुरस्कार देने से नोबेल कमेटी की प्रतिष्ठा बढ़ गई है, क्योंकि आज की दुनिया अभिव्यक्ति के भयंकर संकट से गुजर रही है। इन दोनों पत्रकारों ने अपने-अपने देश में शासकीय दमन के बावजूद सत्य का खांडा निर्भीकतापूर्वक खड़काया है। जिन देशों को हम दुनिया का सबसे बड़ा और सबसे पुराना लोकतंत्र कहते हैं, ऐसे देश भी अभिव्यक्ति की आजादी के हिसाब से एकदम फिसड्डी-से दिखाई पड़ते हैं। 'विश्व प्रेस आजादी तालिकाÓ के 180 देशों में फिलीपींस का स्थान 138 वां है और भारत का 142 वां ! यदि पत्रकारिता किसी देश की इतनी फिसड्डी हो तो उसके लोकतंत्र का हाल क्या होगा ? लोकतंत्र के तीन खंभे बताए जाते हैं।

विधानपालिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका ! मेरी राय में एक चौथा खंभा भी है। इसका नाम है— खबरपालिका, जो सबकी खबर ले और सबको खबर दे। पहले तीन खंभों के मुकाबले यह खंभा सबसे ज्यादा मजबूत है। हर शासक की कोशिश होती है कि इस खंभे को खोखला कर दिया जाए। शेष तीनों खंभे तो अक्सर पहले से काबू में ही रहते हैं लेकिन पत्रकारिता ने अमेरिका और ब्रिटेन जैसे लोकतांत्रिक देशों में भी उनके राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के दम फुला रखे हैं। यही काम मारिया ने फिलीपींस में और मोरातोव ने रूस में कर दिखाया है। फिलीपींस के राष्ट्रपति रोड्रिग्गो दुतर्ते ने मादक-द्रव्यों के विरुद्ध ऐसा जानलेवा अभियान चलाया कि उसके कारण सैकड़ों निर्दोष लोग मारे गए और जेलों में ठूंस दिए गए। इस नृशंस अत्याचार के खिलाफ मारिया ने अपने डिजिटल मंच 'रेपलरÓ से राष्ट्रपति की हवा खिसका दी थी। राष्ट्रपति ने मारिया के विरुद्ध भद्दे शब्दों का इस्तेमाल किया और उनकी हत्या की भी धमकी दी थी लेकिन वे अपनी टेक पर डटी रहीं। इसी प्रकार मोरातोव ने अपने अखबार 'नोवाया गज्येताÓ के जरिए राष्ट्रपति व्लादिमीर पूतिन के अत्याचारों की पोल खोलकर रख दी।

रूस में तो अखबारों पर कम्युनिस्ट पार्टी का कठोर शिकंजा कसे रखने की पुरानी परंपरा थी। अब से 50-55 साल पहले जब मैं मॉस्को में 'प्रावदाÓ और 'इजवेस्तियाÓ पढ़ता था तो इन रूसी भाषा के ऊबाऊ अखबारों को देखकर मुझे तरस आता था लेकिन अब कम्युनिस्ट शासन खत्म होने के बावजूद पत्रकारिता की आजादी के हिसाब से रूस का स्थान दुनिया में 150 वाँ है। ऐसी दमघोंटू दशा में भी मोरातोव ने 'नोवाया गज्येताÓ के जरिए पूतिन की गद्दी हिला रखी थी। सरकारी भ्रष्टाचार और चेचन्या में किए गए पाशविक अत्याचारों की खबरें मोरातोव और उनके साथियों ने उजागर कीं। उनके छह साथी पत्रकारों को इसीलिए मौत के घाट उतरना पड़ा। इसीलिए नोबेल पुरस्कार स्वीकार करते हुए उन्होंने इन छह साथी पत्रकारों को श्रद्धांजलि दी और कहा कि यह पुरस्कार उन्हीं को समर्पित है। भारत समेत दुनिया के कई देशों में ऐसे निर्भीक और निष्पक्ष पत्रकार अभी भी कई हैं, जो नोबेल पुरस्कार से भी बड़े सम्मान के पात्र हैं। उक्त दो पत्रकारों का सम्मान ऐसे सभी पत्रकारों का हौसला जरुर बढ़ाएगा। मारिया और मोरातोव को बधाई!

(नया इंडिया की अनुमति से)

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