विचार / लेख

एयर इंडिया-आकाश का मरहूम महाराजा
11-Oct-2021 1:40 PM
एयर इंडिया-आकाश का मरहूम महाराजा

-मनीष सिंह

लोग कह रहे हैं कि एयर इंडिया का फेलियर, उसका घाटे में जाना पिछले सत्तर सालों की सरकार का कलेक्टिव फेलियर है।

क्या सच यही है? कैसे एयर इंडिया गले-गले तक घाटे में गिरी, हिस्ट्री पर चलते है। बाकी तो आप समझ लेंगे।

हवाई जहाज का कमर्शियल इस्तेमाल 1930 के बाद ही शुरू हुआ। पर बेहद छोटा, नया सेक्टर था। युद्ध के दौर में जहाज सैनिकों और फौजी साजो-सामान ढोने के लिए बड़ी मात्रा में इस्तेमाल हुए। युद्ध के बाद बचे जहाज बड़ी मात्रा में दुनिया के धन्ना सेठों ने सस्ते में खरीद लिए, हवाई टैक्सी चलाने लगे। अब दो चार टैक्सी हो जाये, तो इसे एयरलाइन कहते हैं।
तो आजादी के वक्त भारत में भी छोटी-छोटी एयरलाइंस थी। चार छह सेकेंड हैंड डकोटा प्लेन्स, यात्री, कार्गो और मेल एक साथ ढोते। ऐसी 14 एयरलाइन थी।

बंटवारे के बाद भारत मे 9 बची। इनके छकड़ा प्लेन्स से इस सेक्टर का भला न होना था। स्पीडली ट्रान्सपोर्ट अब आम जरूरत बन रही थी। इस सेक्टर में इन्वेस्टमेंट की जरूरत थी। बड़े, चमकते एयरपोर्ट चाहिए, हैंगर चाहिए। बड़े हवाई जहाज चाहिए। ट्रेंड पायलट चाहिए जो कम्पनी में डेली वेजेस में काम न करें। तमाम ग्राउंड क्रू टेक्नीशियन चाहिए तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तय किये मानकों में खरे उतरें।  

टाटा बिड़ला इस महादरिद्र देश मे दो तीन सौ करोड़ के मालिक थे। इसलिए कहावतों में बड़े आदमी के रूप में मशहूर थे। लेकिन जेब या जिगर के इतने भी बड़े न थे, कि इक_ा एक सेक्टर में सारी जमापूंजी लगा दें। अब पैसा, या तो निजी कम्पनी में विदेशी निवेश से आता, या सरकार को लगाना होता ...

लुटे-पिटे साधुओं और सांपों के देश मे पैसा कौन सी एयरलाइन लगाती। अब सब सरकार को ही करना था। तो इस छकड़ा कम्पनियों को तिरोहित कर एयर इंडिया/इंडियन एयरलाइंस बनी। और इसमें पूंजी डाली गई सरकार की, तो जाहिर है, मालिक भी सरकार होगी, जनता होगी, देश होगा। यही नेशनलाइजेशन है।

9 कम्पनियों में अकेले टाटा ही थे, जिनको इंटरनेशनल एविएशन का थोड़ा मोड़ा अनुभव था। उन्हें इस सरकारी कम्पनी का चेयरमैन बनाया गया। वे आगे 30 साल चेयरमैन रहे। सीखते गए, करते गए, और एयरइंडिया बुलंदियों पर चढ़ गई।

दुनिया की टॉप एयरलाइन्स में हो गई। सरकार को, देश को मुनाफा मिलता रहा। कर्मचारियों को सैलरी, जॉब्स और इज्जत मिली। तभी देश में क्रांति हो गई।

मोरारजी शुद्ध सात्विक आदमी थे। बम्बई के थे, पोलिटीशियन थे। बम्बई के उद्योगपति और बम्बई के नेता के बीच, लुटे और लुटेरे का संबंध होता है। यानी दोनों एक दूसरे से खार खाए रहते हैं।  तो शुद्ध सात्विक पीएम को एयर इंडिया में पूछ लिया गया- व्हाट वुड यू लाइक टू ड्रिंक सर?

जाहिर है, जिन, ब्रांडी, रम, व्हिस्की, वोडका, शैम्पेन एवलेबल थी, लेकिन स्वमूत्र नहीं। मोरारजी उखड़ गए, और एयरइंडिया में शराब पेश करने पर सरकार ने अड़ंगा लगा दिया।

ये ही नहीं, और भी कई अड़ंगेबाजी हुई। चिढक़र जेआरडी टाटा ने रिजाइन कर दिया गया। उन्हें कुछ और भी सरकारी बोर्ड और कमेटियों से बर्खास्त कर दिया गया।

इस दौर में पहली बार एयर इंडिया का ग्राफ गिरा।

1980 में इंदिरा, जेआरडी को वापस ले आयी। पर एयर इंडिया टॉप से खिसक चुकी थी। जेआरडी भी उम्रदराज हो चुके थे। पर स्थिति नियंत्रण में रही। उनके बाद कुछ और चेयरमैन आये। ये सभी सरकारी नौकर थे, आईएएस थे। जिन्हें हर चीज का ज्ञान होता है। एरोप्लेन का भी..पर सर्विसेज का नहीं। सेवा झुककर होती है, अफसरी की अकड़ के साथ नही। एयर इंडिया सरकारी अफसर ज्यादा थी। लेकिन एविएशन में सरकार की मोनोपॉली थी, इसलिए नुकसान नहीं हुआ।

हज सब्सिडी, असल मे एयर इंडिया को सब्सिडी थी। तमाम घाटे को सरकार से मिलने वाले पैसे से भर लिया जाता। इसके बदले एयर इंडिया को, भारतीय मुस्लिम्स को सस्ते टिकट देकर, मक्का घुमाकर लाना होता।

1991 के बाद भारत में लिबरलाइजेशन आया। हर सेक्टर खोला जाने लगा। एविएशन का नम्बर 1995 में आया। नरसिंह राव सरकार ने आखिरी साल में ‘ओपन स्काई’ पॉलिसी बनाई। कहा-एयर इंडिया/इंडियन एयरलाइंस की मोनोपॉली नहीं रहेगी। प्राइवेट ऑपरेटर को लाइसेंस मिलेगा। ये बोलकर नरसिंहराव चले गए। इम्पलीमेंट आगे की सरकारों ने किया।

हवाई जहाज अमीरों का शौक था। अमीर दिल्ली-मुम्बई-कलकत्ते में रहते थे।  प्राइवेट ऑपरेटरों ने इन्ही रुट पर लाइसेंस लिए। अब तक जो एयर इंडिया/इंडियन एयरलाइंस से चलते थे, उन्हें विकल्प मिल गया।

सरकारी एयरलाइंस के टिकट दस हजार के, तो प्राइवेट वाले पांच हजार में देते। उन्हें टिकट की कीमत खुद तय करनी थी, सरकारी एयरलाइन को मंत्रीजी तक फाइल चलानी पड़ती थी।

घाटा होने लगा। लेकिन अब भी दस बीस करोड़ की रेंज में था। इसलिए कि प्राइवेट ऑपरेटर की फ्लाइट्स सीमित थी।

फिर आये अटल और प्रमोद महाजन। उन्होंने थोक के भाव रूट बांट दिये, देश मे भी, विदेश में भी। एयर इंडिया के स्लॉट, लैंडिंग राइट जबरन प्राइवेट वालों को सस्ती लीज पर दिए। कहा- ये घाटा पूरा करने का मास्टरस्ट्रोक है।

लेकिन एयरइंडिया और इंडियन एयरलाइंस के घाटा तो बढऩे लगा। प्राइवेट ऑपरेटर मालामाल होने लगे। ये फायदे की बात थी। क्योंकि एयर इंडिया का मुनाफा देश को जाता है, प्राइवेट का चन्दा-पार्टी को।

इस दौर में हज सब्सिडी के पैसे भी घटे। यानी मक्का घुमाने का टारगेट कट हो गया। जो घुमाए, उसके भी पैसे जारी न हुए। आपको लगा कि मुल्ले टाइट हो गए। नहीं जी-एयर इंडिया फूल टाइट हो गई।

महाजन ऐसे ही, पार्टी के फंड रेजर नहीं बने। अब मुम्बई के नेता और मुम्बई के धन्नासेठों के बीच रिश्ता बदल गया था। लुटे हुए लुटेरे थे, लुटेरा लुट कर मस्त था।

येन महाजनों गत: स पंथ: । वह पथ आज भी हैवी ट्रैफिक में है।

तो अटल सरकार गयी। नए मिनिस्टर आये, प्रफुल्ल पटेल। इस बन्दे ने सिरियस कोशिश की। प्रति जहाज स्टाफ ज्यादा था। खर्च वेतन ज्यादा थे। उस पर भी तलवार चलाई। नतीजा, पायलटों की हड़ताल.. उस दौर के न्यूज हेडलाइन देखिये। बार बार हड़तालें होती रही। एयर इंडिया की और बदनामी हुई।

सर्विसेज बेहतर करने की कोशिश हुई। ऑनलाइन बुकिंग, सर्ज प्राइसिंग आदि के द्वारा, प्राइवेट वालों के लटके झटके अपनाए गए। जहाज सब 30-40 साल पुराने थे। तो नए जहाज खरीद लिए गए।

पर जो रुट लीज पर थे, उसे कैसे वापस लेते। नए प्लेन से जितना कर्ज चढ़ा उतना बिजनेस न बढ़ा। नतीजा, जो घाटा चार पांच सौ करोड़ का था, चार-पांच हजार करोड़ की रेंज में आ गया।

ब्याज, आगे के दस साल के वेतन, मेंटेनेंस, तेल पानी पर हर साल बढ़ता हुआ कर्ज, कुल मिलाकर 45000 करोड़ तक आ गया। अब एयर इंडिया तो बेच दी गई। पर कर्ज सरकार के सिर पर बना हुआ है। यानी मेरे सिर बना हुआ है। मैं 100 रुपये के पेट्रोल खरीदकर उसे भर रहा हूँ।

अरे हां- हज की सब्सिडी बन्द नही हुई है। अब वो प्राइवेट एयरलाइन को मिलेगी। बेरोकटोक मिलेगी, और देख लेना, टारगेट बढ़ेंगे। इसे सबके साथ सबके विकास के रूप में चित्रित किया जाएगा। लेकिन इस सबके बीच आकाश के महाराजा की लाश, टाटा के दरवाजे पर लटकती हुई दिखती दिखेगी।
कत्ल का इल्जाम नेहरू पर होगा।

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