संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : छत्तीसगढ़ के दो सिरों से 3-3 सौ किमी चलकर आदिवासी राजधानी में !
13-Oct-2021 5:16 PM
 ‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  छत्तीसगढ़ के दो सिरों से  3-3 सौ किमी चलकर आदिवासी राजधानी में !

छत्तीसगढ़ के आदिवासी मुद्दे धीरे-धीरे, और अलग-अलग, सुलग रहे  हैं, और शायद राजनीतिक दलों और सरकारों को इसका एहसास नहीं हो रहा है, इनके बारे में जानते हुए भी उन्हें इसकी कोई फिक्र नहीं है। एक अजीब बात यह है कि कांग्रेस और भाजपा इन दोनों की सरकारों में आदिवासियों के नाम पर सरकारी रुख में कोई बड़ा फर्क नहीं दिख रहा है। आज इस मौके पर लिखना इसलिए भी जरूरी लग रहा है कि छत्तीसगढ़ के एक हिस्से से हसदेव के जंगलों को कोयला खदानों से बचाने के लिए सैकड़ों आदिवासी, रायपुर पहुंच रहे हैं। दूसरी तरफ एक अलग मुद्दे को लेकर बस्तर के आदिवासी 300 किलोमीटर चलकर, भारत के संविधान को थामे हुए राजधानी पहुंचे हैं, उनकी मांग है कि उनके अधिसूचित क्षेत्रों में राज्य सरकार ने जिस तरह पंचायतों को नगर पंचायत में तब्दील कर दिया है, उस असंवैधानिक फैसले को रद्द किया जाए और उन्हें वापस ग्राम पंचायत बनाया जाए। यह मामला थोड़ा सा जटिल है, लेकिन आदिवासियों के अधिसूचित क्षेत्रों में उनकी मर्जी के खिलाफ राज्य सरकार को ऐसा करने का कोई हक नहीं है.  यह एक और बात है कि भाजपा की पिछली रमन सिंह सरकार ने भी ऐसा किया था, और उस वक्त के राज्यपाल शेखर दत्त ने उसके खिलाफ सरकार को लिखा भी था। आज कांग्रेस की भूपेश बघेल सरकार ने भी ऐसा ही किया है और राज्यपाल अनुसुइया उइके ने भी इसके खिलाफ राज्य शासन को चिट्ठियां लिखी हैं। इन चिट्ठियों का कोई जवाब न तो उस समय राजभवन को मिला, और न ही शायद अभी की राज्यपाल को ही इसका कोई जवाब मिला है। दूसरी तरफ बस्तर के आदिवासी जिस तरह संविधान को एक पवित्र ग्रंथ मानते हुए उसे लेकर 300 किलोमीटर पैदल राजधानी पहुंचे हैं, वह नजारा पहली बार देखने मिल रहा है। और कुछ बरस पहले जब झारखंड के आदिवासी इलाकों में गांव के लोगों ने अपने इलाके में एक पत्थर डालकर वहां अपनी सरकार और अपना अधिकार कायम करने का पत्थलगड़ी आंदोलन शुरू किया था, उसमें भी आदिवासी संविधान की किताब को सामने रखकर बात करते थे, और सिर्फ यही बात करते थे कि वह इस संविधान को लागू करने की मांग कर रहे हैं। आज बरसों बाद छत्तीसगढ़ के बस्तर के आदिवासी शायद पहली ही बार संविधान को उस तरह थाम कर राजधानी पहुंचे हैं, और सरकार का दरवाजा खटखटा रहे हैं।

कोयला खदानों से अपने जंगलों को बचाने के लिए हसदेव के इलाके से जो आदिवासी राजधानी पहुंचे हैं, उन्हें अब तक शायद मुख्यमंत्री से मिलने का वक्त नहीं मिला है। दूसरी बात यह है कि छत्तीसगढ़ के उत्तर और दक्षिण से अलग-अलग मुद्दों को लेकर पहुंचे हुए इन आदिवासियों के साथ किसी राजनीतिक दल के लोग भी नहीं हैं। इन्हें सामाजिक आंदोलनकारियों का साथ मिला है, मीडिया का कुछ तबका उनके साथ है, और सरकार का रुख अब तक सामने आया नहीं है। हमने शुरुआत में ही अलग-अलग आदिवासी मुद्दों की जो बात की है, उनमें से एक और मुद्दा बस्तर का है जहां पर केंद्रीय सुरक्षा बलों का एक कैंप बनाने का विरोध करते हुए ग्रामीण आदिवासियों पर सुरक्षाबलों की गोलियां चली थी और उन में कुछ लोग मारे गए थे। वह आंदोलन भी खत्म नहीं हुआ है, सिलगेर का वह आंदोलन चल ही रहा है, और उसकी चर्चा पूरे देश में चल रही है। ठीक उसी हसदेव के जंगल बचाओ आंदोलन की चर्चा अब पूरी दुनिया में होने जा रही है क्योंकि दुनिया की सबसे बड़ी पर्यावरण आंदोलनकारी युवती ग्रेटा थनबर्ग ने कल ही छत्तीसगढ़ के हसदेव के जंगल बचाओ आंदोलनकारियों के एक वीडियो को रीट्वीट किया है।

ऐसा भी नहीं है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा होने से भारत सरकार या भारत के किसी राज्य की सरकार की सेहत पर कोई फर्क पड़ता है। आज की राजनीतिक व्यवस्था ऐसी संवेदनशीलता से बहुत ऊपर उठ चुकी है, और अब राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंच पर जो कुछ कहा जाता है, उससे पूरी तरह अछूता रहना एक राजनीतिक हुनर हो चुका है। लेकिन छत्तीसगढ़ में इस किस्म के आदिवासी मुद्दों को बिना सुलझाए छोड़ देना राज्य के लिए शायद आज कोई खतरा न भी हो, लेकिन यह तय है कि लंबे वक्त में ऐसी अनसुलझी बातें बड़ा खतरा बन सकती हैं। बस्तर में पिछले कुछ दशक से जो नक्सल हिंसा चल रही है, वह अविभाजित मध्यप्रदेश का हिस्सा रहते हुए बस्तर की अनदेखी का नतीजा है। आज छत्तीसगढ़ सरकार को इन मुद्दों को राजभवन से आने वाली चिट्ठी, या सडक़ों पर निकल रहे जुलूस तक सीमित मानकर इनकी तरफ से लापरवाह नहीं होना चाहिए। एक तो बस्तर में नक्सल हिंसा अब तक जारी है और उसे बातचीत से सुलझाने की कोशिश मौजूदा सरकार में भी शुरू भी नहीं हो पाई है, ऐसे में नए-नए मुद्दे और खड़े हो जाना एक सबसे खतरनाक बात है। अभी-अभी बस्तर-सरगुजा के कुछ चयनित शिक्षकों ने भर्ती की मांग को लेकर ऐसे बैनर को लेकर फोटो खिंचवाई है कि अगर उनकी मांग पूरी नहीं होगी तो वे नक्सली बन सकते हैं। ऐसा माहौल ठीक नहीं है जिसमें कि लोग नक्सली बनने की बात सोचने लगें, करने लगें, और उसके बैनर छपवा कर तस्वीरें खिंचवाने लगें। सरकार को आदिवासियों के सभी तबकों से बात करनी चाहिए, हसदेव के आंदोलनकारियों के आ रहे जत्थे से भी बात करनी चाहिए क्योंकि बातचीत से अगर कोई रास्ता नहीं निकलता है तो हो सकता है कि लोग अदालत जाएं और अदालत में सरकार की शिकस्त हो। लोकतांत्रिक निर्वाचित सरकार को अपनी जनता से बातचीत के दरवाजे हमेशा खुले रखने चाहिए और मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को इन दोनों इलाकों से आ रहे अलग-अलग आदिवासी जत्थों से लंबी बातचीत करने का समय निकालना चाहिए और मुद्दों को सुलझाने की कोशिश करनी चाहिए।
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