विचार / लेख

सावरकर संघियों के प्रेरणास्रोत कब थे ?
15-Oct-2021 1:51 PM
सावरकर संघियों के प्रेरणास्रोत कब  थे ?

गोपाल राठी,  अनिल जैन

सावरकर के जीवन का प्रारम्भिक समय काला पानी में बीता है जिससे किसी को इनकार नहीं है। इतिहास में उनके साहस के किस्से भी दर्ज है। सावरकर मराठी के अच्छे साहित्यकार और कवि थे। उनकी 1857 के विद्रोह पर और हिंदुत्व सम्बंधित दो पुस्तकें चर्चित रही। सावरकर की मृत्यु के तुरंत बाद भारत सरकार ने उनकी स्मृति में डाक टिकिट जारी कर उन्हें सम्मान दिया था। 

सावरकर ने जेल से बाहर आने के लिए अंग्रेजों को समय-समय जो माफीनामे लिखे वे आज दास्तावेज के रूप में मौजूद हैं। माफीनामे में सिर्फ पिछली गलतियों की माफी ही नहीं मांगी गई है बल्कि रिहा होने के बाद स्वतन्त्रता संग्राम से दूर रहने और अंग्रेजों के वफादार रहने का वचन भी दिया गया था। जेल से रिहा होने के बाद सावरकर ने किसी आंदोलन में भाग नही लिया और हर बार अंग्रेजों के मददगार के रूप में खड़े दिखाई दिए। बताया जाता है कि उन्हें अंग्रेजो से 60 रुपये प्रति माह पेंशन मिलती थी। 

सावरकर पर गांधी जी की हत्या के मास्टरमाइंड होने का आरोप भी लगा था क्योंकि गोडसे को हत्या के लिए प्रेरित करने वाले वे ही माने जाते है। खैर सुबूतों के अभाव में सावरकर सजा से बच गए लेकिन उनके चेला गोडसे को मृत्युदण्ड दिया गया। हालांकि गांधी-हत्याकांड की जांच करने वाले जस्टिस जीवनलाल कपूर की अध्यक्षता वाले आयोग ने अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से सावरकर को हत्या की साजिश का सूत्रधार माना है। सावरकर हिन्दू महासभा नामक राजनैतिक पार्टी से जुड़े थे। जिस तरह मुस्लिम लीग मुस्लिमो की हिमायती थी उसी तरह हिन्दू महासभा हिंदुओ की। सबसे मजेदार बात यह है कि परस्पर विरोधी लगने वाली इन दोनों पार्टियों ने बाकायदा प्रस्ताव पास करके भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध किया था। बंगाल में मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा ने मिलकर संयुक्त सरकार बनाई थी जिसमे हिन्दू महासभा के नेता श्यामाप्रसाद मुखर्जी उपमुख्यमंत्री थे। श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने अंग्रेज बहादुर को पत्र लिखकर भारत छोड़ो आंदोलन के दमन के लिए महत्वपूर्ण सुझाव दिए और बंगाल में आंदोलन को दबाने के लिए अतिरिक्त पुलिस बल की मांग की थी। बाद में श्यामाप्रसाद मुखर्जी नेहरू जी की अंतरिम सरकार में केंद्रीय मंत्री बने और संविधान निर्माण समिति के सदस्य भी रहे। 

महात्मा गांधी की हत्या के बाद आज़ाद भारत मे पहली बार गृहमंत्री सरदार पटेल ने आर एस एस पर प्रतिबंध लगा दिया था। सरदार पटेल ने डॉ मुखर्जी और गोलवलकर को लिखे हुए पत्रों में स्पष्ट लिखा कि संघियों द्वारा देश में फैलाई गई साम्प्रदायिक नफरत की भावना की परिणीति गांधी जी की हत्या है। संघ पर प्रतिबंध के बाद संघ को एक राजनैतिक संगठन (पार्टी ) की ज़रूरत महसूस हुई। संघ ऐसी पार्टी की कल्पना कर रहा था जिसका रिमोट कंट्रोल संघ के हाथ में हो। उस समय हिन्दू हित की पैरवी करने वाली पार्टी हिंदू महासभा संघियों के काम की नहीं थी क्योंकि इस पर संघ का कोई नियंत्रण नहीं था। हिन्दू महासभा के नेता सावरकर जैसा कोई बौद्धिक व्यक्तित्व संघियों के पास नहीं था।
 
संघियों ने हिन्दू महासभा के नेता और सावरकर जी के सहयोगी डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी को बहला फुसला कर उनके नेतृत्व में 21 अक्टूबर 1951 में एक नई राजनैतिक पार्टी बनाई।  इस नई पार्टी का नाम जनसंघ था। यह पार्टी पूरी तरह संघ के नियंत्रण में थी। अब जनसंघ का नया संस्करण भाजपा पर भी संघ का ही आधिपत्य है। संघ इस पार्टी में अपनी ओर से जिला राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर संगठन मंत्री भेजता है। संघ द्वारा नियुक्त संगठनमंत्री इतना पावरफुल होता है कि पार्टी सदस्यों चुने गए अध्यक्ष और दूसरे पदाधिकारी उसके सामने बौने होते है। उसकी मर्जी के बिना पार्टी में पत्ता भी नहीं हिलता। पार्टी में संघ की इस जकड़न को सभी महसूस करते है लेकिन कोई कुछ कहने की स्थिति में नहीं है। 

जनसंघ के अध्यक्ष रहे प्रोफेसर बलराज मधोक ने इस मुद्दे पर आवाज़ उठाई लेकिन अंततः उन्हें पार्टी से निकाल दिया गया। डॉ मुखर्जी द्वारा जनसंघ बनाने से सावरकर और उनकी पार्टी हिन्दू महासभा को करारा झटका लगा था। सावरकर आज़ादी के बाद लगभग 19 वर्ष ज़िंदा रहे। इस बीच जनसंघ ने विभिन्न पार्टियों से राजनैतिक समझौता किये लेकिन हिन्दू महासभा से कोई समझौता नहीं हुआ। और धीरे धीरे राष्ट्रीय पार्टी रही हिन्दू महासभा के जनाधार पर जनसंघ ने कब्जा कर लिया। सावरकर जी को संघी ना किसी मीटिंग में बुलाते थे और ना आम सभा मे उनसे राजनैतिक सलाह मशविरा करना भी उचित नहीं समझते थे। उनकीं उपेक्षा उनके लोग ही करने लगे। इस तरह उपेक्षित रहते हुए हिंदुत्व के असली नायक का 22 फरवरी 1966 में निधन हो गया। इस तरह संघियों ने सावरकर की राजनैतिक विरासत पर कब्ज़ा कर लिया। भाजपा की ओर से अटल जी तीन बार पीएम है और मोदी जी दूसरी बार पीएम बने है, बहुत से प्रांतों में भाजपा की सरकार पहले भी रही है और अब भी है लेकिन किसी भी जनकल्याणकारी सरकारी योजना का नामकरण सावरकर जी के नाम पर नही किया गया। अधिकांश योजनाओं का नामकरण दीनदयाल उपाध्याय के नाम से किया गया है। सावरकर जी भले ही माफी मांग कर जेल से छूटे हों लेकिन उन्होंने वर्षो काले पानी के कठोर कारावास की सजा भुगती दूसरी तरफ दीनदयाल पंडित जी आज़ादी के आंदोलन के समय युवा थे लेकिन उन्होंने आंदोलन में भाग तक नहीं लिया। भाजपा की किसी मीटिंग, सभा, अभ्यास वर्ग आदि के आयोजनों में मंच पर  सावरकर जी की तस्वीर कभी नहीं लगाई गई। 

इससे यह साबित होता है कि सावरकर इनके प्रेरणा स्रोत नही राजनैतिक खिलौने है जिनका यह समय समय पर इस्तेमाल करते है।
 
सावरकर को भारत रत्न देने के पक्ष में जितने तर्क पेश किए गए उससे ज़्यादा मज़बूत तर्क उन्हें भारत रत्न न देने के आ आये इसलिए अटल जी की सरकार ने उन्हें भारत रत्न देने का विचार त्याग दिया और मोदी सरकार भी अभी तक उन्हें भारत रत्न देने की हिम्मत नहीं जुटा पाई है।
 
वैसे भी भारत रत्न का इतना अधिक अवमूल्यन हो चुका है कि अब आप उसे सावरकर को तो ठीक, गोडसे को भी दे दीजिए तो कोई फर्क नहीं पडता। दुनिया में भारत की पहचान तो गांधी के नाम से ही होगी। यह प्रधान मंत्री मोदी को अपने विदेशी दौड़ी में भी समझ मे आ गया हैं। इसलिए मोदी सारे महत्वपूर्ण मेहमानों को गांधी के स्मारकों में ही ले जाते है सावरकर या गोलवलकर के स्मारकों में नहीं। 
गोपाल राठी,  अनिल जैन

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