विचार / लेख
-ध्रुव गुप्त
काकोरी के शहीद अशफाकुल्लाह खां स्वतंत्रता संग्राम के एक क्रांतिकारी सेनानी और ‘हसरत’ उपनाम से उर्दू के एक अजीम शायर थे। उत्तरप्रदेश के शहर शाहजहांपुर में जन्मे अशफाक ने किशोरावस्था में अपने ही शहर के क्रांतिकारी शायर राम प्रसाद बिस्मिल के व्यक्तित्व और विचारों से प्रभावित होकर अपना जीवन वतन की आजादी के लिए समर्पित कर दिया था। वे क्रांतिकारियों के उस जत्थे के सदस्य बने जिसमें पंडित रामप्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आजाद, मन्मथनाथ गुप्त, राजेंद्र लाहिड़ी, शचीन्द्रनाथ बख्सी, ठाकुर रोशन सिंह, केशव चक्रवर्ती, बनवारी लाल, मुकुंदी लाल जैसे लोग शामिल थे।
चौरी-चौरा की हिंसक घटना के तुरंत बाद महात्मा गांधी द्वारा असहयोग आंदोलन वापस लेने के फैसले से इस जत्थे को पीड़ा हुई थी। 8 अगस्त, 1925 को शाहजहांपुर में रामप्रसाद बिस्मिल और चन्द्रशेखर आजाद के नेतृत्व में इस क्रांतिकारी जत्थे की एक अहम बैठक हुई जिसमें क्रांतिकारी अभियान हेतु हथियार की खरीद के लिए ट्रेन से सरकारी खजाने को लूटने की योजना बनी। उनका मानना था कि यह वह खजाना अंग्रेजों का नहीं था, अंग्रेजों ने उसे भारतीयों से ही हड़पा था। 9 अगस्त, 1925 को अशफाक और बिस्मिल के नेतृत्व में आठ क्रांतिकारियों के एक दल ने सहारनपुर-लखनऊ पैसेंजर ट्रेन से अंग्रेजों का खजाना लूट लिया।
अंग्रेजों को हिला देने वाले काकोरी षडय़ंत्र के नाम से विख्यात इस कांड में गिरफ्तारी के बाद जेल में अशफाक को असह्य यातनाएं दी गईं। उन्हें धर्म के नाम पर भडक़ा कर सरकारी गवाह बनाने की कोशिशें हुईं। अंग्रेज अधिकारियों ने उनसे कहा कि हिन्दुस्तान आजाद हो भी गया तो उस पर मुस्लिमों का नहीं, हिन्दुओं का राज होगा। मुस्लिमों को वहां कुछ भी नहीं मिलने वाला। इसके जवाब में अशफाक ने कहा था- ‘तुम लोग हिन्दू-मुस्लिमों में फूट डालकर आजादी की लड़ाई को नहीं दबा सकते। हिन्दुस्तान आज़ाद होकर रहेगा। अपने दोस्तों के खिलाफ मैं सरकारी गवाह कभी नहीं बनूंगा।’
संक्षिप्त ट्रायल के बाद अशफ़ाक, राम प्रसाद बिस्मिल, राजेंद्र लाहिड़ी और ठाकुर रोशन सिंह को फांसी की सजा और बाकी लोगों को चार साल से लेकर आजीवन कारावास तक की सज़ा सुनाई गई। अशफाक को 19 दिसंबर, 1927 की सुबह फैजाबाद जेल में फांसी दी गई। फांसी के पहले जो हुआ वह अशफाक के व्यक्तित्व का आइना है। उन्होंने वजू कर कुरआन की कुछ आयतें पढ़ी, कुरआन को आंखों से लगाया और खुद जाकर फांसी के मंच पर खड़े हो गए। वहां मौज़ूद जेल के अधिकारियों से उन्होंने कहा- ‘मेरे हाथ इंसानी खून से नहीं रंगे हैं। खुदा के यहां मेरा इंसाफ होगा।’ उसके बाद उन्होंने अपने हाथों फांसी का फंदा अपने गले में डाला और झूल गए। यौमे पैदाईश (22 अक्टूबर) पर शहीद अशफाक को कृतज्ञ राष्ट्र की श्रद्धांजलि, उनकी लिखी एक नज्म के साथ !
जाऊंगा खाली हाथ मगर,
यह दर्द साथ ही जाएगा
जाने किस दिन हिंदोस्तान
आजाद वतन कहलाएगा
बिस्मिल हिन्दू हैं, कहते हैं
फिर आऊंगा, फिर आऊंगा
फिर आकर ऐ भारत माता
तुझको आजाद कराऊंगा
जी करता है मैं भी कह दूं
पर मजहब से बंध जाता हूं
मैं मुसलमान हूं पुनर्जन्म की
बात नहीं कर पाता हूं
हां खुदा अगर मिल गया कहीं
अपनी झोली फैला दूंगा
और जन्नत के बदले उससे
एक पुनर्जन्म ही मांगूंगा!