संपादकीय
अफगानिस्तान 2011 में जब अमेरिकी फौजों के काबू में था, और कहने के लिए वहां पर एक स्थानीय सरकार थी, उस वक्त काबुल के एक पांच सितारा होटल में तालिबान ने एक आत्मघाती हमला किया था, जिसमें बड़ी संख्या में लोग मारे गए थे, मरने वालों में बहुत से अफगानी भी थे. अभी 9 साल बाद तालिबान ने उन आत्मघाती हमलावरों के परिवारों को उसी होटल में न्योता देकर बुलाया और उन्हें पैसे और तोहफे दिए, उनका सम्मान किया। इस मौके पर अफगानिस्तान के गृह मंत्री सिराजुद्दीन हक्कानी भी मौजूद थे और उन्होंने कहा कि ये आत्मघाती हमलावर देश के, और हमारे हीरो हैं। इन हमलावरों के परिवारों को नगद रकम के साथ एक-एक जमीन देने का वादा भी तालिबान ने किया था और अब सरकार बनने पर उसे पूरा किया जा रहा है। इस बात को लेकर अफगानिस्तान के बहुत से दूसरे लोग नाराज भी हैं क्योंकि इस तरह के जितने आत्मघाती हमले तालिबान आतंकियों ने किए थे, उनमें मरने वाले अधिकतर अफगान ही थे। जिस होटल में यह सम्मान समारोह हुआ उस होटल पर तालिबान ने दो बार हमला किया था जिसमें दर्जनों अफगान मारे गए थे। आज तालिबान ने इन हमलावरों की तारीफ में एक वीडियो भी जारी किया है जिसमें उन हमलों में इस्तेमाल की हुई आत्मघाती जैकेट को भी दिखाया गया है. एक आतंकी कहे जाने वाले और अमेरिका द्वारा प्रतिबंधित संगठन, हक्कानी नेटवर्क, के मुखिया आज अफगानिस्तान के गृह मंत्री हैं और उन्होंने खुलकर यह बात कही है कि दुनिया चाहे कुछ भी कहे आत्मघाती हमलावर हमारे हीरो हैं और बने रहेंगे।
आज इस मामले पर लिखने की जरूरत क्यों लग रही है? यह तो अफगानिस्तान का एक ऐसा अलोकतांत्रिक मामला है जिसकी कि आदत अफगानिस्तान में लोगों को पड़ चुकी है, और ऐसे ही तालिबानी आतंक के बढ़ते-बढ़ते आज हालत यहां तक आ गई है कि वहां औरतों को इंसान नहीं माना जाता। अब सुना जा रहा है कि दूसरे धर्म के लोगों को बाहर निकलने कहा जा रहा है, और खुद मुस्लिम धर्म को मानने वाले शिया समुदाय के लोगों को चुन-चुनकर मारा जा रहा है। तो ऐसे देश के बारे में वहां अगर आतंकियों का सम्मान हो रहा है तो उस बारे में लिखने की जरूरत क्यों होनी चाहिए? यह सवाल कुछ पाठकों के मन में उठ सकता है इसलिए यह लिख देना ठीक है कि इतिहास से सबक लेना तो बहुत से लोग सुझाते हैं लेकिन वर्तमान से भी सबक लेना चाहिए और अड़ोस-पड़ोस से भी सबक लेना चाहिए यह तमाम लोग नहीं सुझाते। आज हालत यह है कि हिंदुस्तान में दिल्ली हरियाणा सरहद पर किसान आंदोलन के करीब एक सिख धर्म ग्रंथ की बेअदबी का आरोप लगाकर सिख निहंगों ने जिस तरह एक दलित को काट-काटकर टांग दिया, उसे तालिबानी हिंसा से जोडक़र देखने की जरूरत है। तालिबान का किया हुआ सब कुछ अपने धर्म के नाम पर किया हुआ बताया जाता है, महिलाओं के हक कुचल देना भी शरीयत के नाम पर बतलाया जाता है, और हाथ-पैर काटने की सजा भी वहां चौराहों पर दी जाती है और नई तालिबान सरकार ने भी चौराहे पर सिर कलम करने की वह पुरानी सजा कायम रखने की घोषणा की है।
कुछ ऐसा ही मिजाज हिंदुस्तान में धर्म के नाम पर एक इंसान के टुकड़े कर देने का है, और इस हत्यारे निहंग के पुलिस में समर्पण करने जाने के पहले दूसरे निहंगों की तरफ से सार्वजनिक अभिनंदन किया गया और लोगों ने इसे गर्व की बात माना। कुछ ऐसी किस्म की बात देश में दूसरी कई जगहों पर दूसरे धर्मों के लोगों के बीच होती है। राजस्थान में एक किसी मुस्लिम को मारने वाले और उसका वीडियो बनाने वाले हिंदू का सार्वजनिक रूप से अभिनंदन किया गया था। उत्तर प्रदेश की एक छोटी पार्टी जो अपनी सांप्रदायिकता के लिए जानी जाती है, उसने घोषणा की थी कि वह मोहम्मद अफऱाज़ुल नाम के मजदूर को सार्वजनिक रूप से मारने और उसे जिंदा जलाने वाले शंभू लाल रैगर को आगरा से लोकसभा का चुनाव लड़वाएगी। राजस्थान में 3 बरस पहले, बाबरी मस्जिद गिराने के दिन 6 दिसंबर को इस शंभूलाल ने इस मुस्लिम मजदूर को बिना किसी भडक़ावे के, बिना किसी तनाव के, सार्वजनिक जगह पर मारा, जिंदा जलाया, और उसका वीडियो बनाकर चारों तरफ बांटा। उस हत्यारे का भी सम्मान किया गया। ऐसा कई जगह हुआ है। कई जगहों पर गाय ले जाने के आरोप में किसी मुस्लिम को पीट-पीटकर मारने वाले लोगों का सम्मान होता है, तो नाथूराम गोडसे का सम्मान तो होते ही रहता है, जगह-जगह उसकी प्रतिमाएं स्थापित की जाती हैं, जगह-जगह उसके मंदिर बनाए जाते हैं, और उसे महिमामंडित करना बंद ही नहीं होता है।
हिंदुस्तान के बड़े तबके में तालिबान को गाली की तरह इस्तेमाल किया जाता है और अगर हिंदुस्तान के किसी संगठन का किसी व्यक्ति का तालिबान से कोई जुबानी नाता भी जोड़ दिया जाए तो उसके खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट दर्ज हो जा रही है। लेकिन यह समझने की जरूरत है कि हिंदुस्तान में जगह-जगह धर्म के आधार पर, नफरत के आधार पर, जब सार्वजनिक रूप से किसी को मारा जा रहा है और हत्यारे का इस तरह सार्वजनिक अभिनंदन हो रहा है, तो ऐसे लोगों में और तालिबान में फर्क क्या है? जिस निहंग ने अभी एक दलित को काटकर टुकड़े टांग दिए वह तालिबान से किस मायने में अलग है? ऐसे ही पंजाब के आतंक के दिनों में भिंडरावाले के आतंकियों ने लगातार छंाट-छाँटकर हिंदुओं को मारा था, और उन हत्यारों का स्वर्ण मंदिर में कितनी ही बार सम्मान हुआ था। अब आतंकियों का ऐसा सम्मान और आत्मघाती तालिबानों का ऐसा सम्मान, इसमें फर्क अगर कोई ढूंढना चाहे तो ढूंढ ले, हमको तो इसमें कोई फर्क दिखता नहीं है। दोनों ही धर्म के नाम पर किए गए हथियारबंद आतंक हैं, जो कातिल थे, कातिल हैं, और कातिल ही रहेंगे। इसलिए दुनिया को महज इतिहास से सबक लेने की जरूरत नहीं रहती, दुनिया को अधिक बड़ा सबक वर्तमान से मिल सकता है. यह देखने की जरूरत है कि जब धर्म के नाम पर हिंसा आगे बढ़ती है और जब धर्म के नाम पर किसी इलाके या देश का राज्य चलाया जाता है तो वह धर्म किस तरह कातिल हो जाता है, वह किस तरह हत्याएं करने लगता है, उसमें इंसाफ की कोई भी गुंजाइश नहीं बच जाती है। इस बात को समझने की जरूरत है जिन लोगों को आज हिंदुस्तान को एक हिंदू राज्य बनाने की सनक सवार है, उन्हें यह भी देखना चाहिए कि अफगानिस्तान में आज मुस्लिम दूसरे धर्मों के लोगों को कम मार रहे हैं, खुद मुस्लिमों को अधिक मार रहे हैं। ऐसा ही एक संगठन के मुस्लिम आतंकियों ने पाकिस्तान में दूसरे समुदाय के मुस्लिम नागरिकों के साथ किया। धर्म पहले तो दूसरे धर्म के लोगों को मारता है, लेकिन बाद में वह अपने ही धर्म के अलग-अलग समुदाय के लोगों को मारना शुरू करता है। इसलिए तालिबान को हत्यारा मानना और निहंग को या शंभूनाथ रैगर को अलग मानना एक परले दर्जे की बेवकूफी की बात होगी। किसी भी लोकतंत्र में समझदारी की बात यही होगी कि ऐसे तमाम धर्मांध आतंकी संगठनों को काबू में करना, जेल भेजना, सजा दिलवाना, और खत्म करना। लेकिन फिर गोडसे की प्रतिमाएं कैसे लग सकेंगी? कहीं तालिबान ने हिंदुस्तान में गोडसे की पूजा देखकर तो अपने आत्मघाती हमलावरों का अभिनन्दन नहीं सीखा?
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