विचार / लेख
-ध्रुव गुप्त
यह त्यौहारों का मौसम है। इन त्योहारों के धार्मिक, सामाजिक महत्व के अलावा उनका एक आर्थिक पक्ष भी है। हमारे पूर्वजों ने किसी धार्मिक या लोकपर्व की परिकल्पना करते समय हमारे कारीगरों, शिल्पियों और कृषकों की रोजी-रोटी और सम्मान का पूरा-पूरा ख्याल रखा था। उनके उत्पादों के बिना कोई भी पूजा सफल नहीं मानी जाती थी।
अपने बनाए दीयों, मूर्तियों, सजावट के सामानों और कलाकृतियों के साथ बरस भर इन त्यौहारों की बाट जोहने वाले हमारे लाखों लाख शिल्पकार आज हाशिए पर खड़े हैं। उनकी रोजी-रोटी पिछले कई सालों से साम्राज्यववादी चीन और बड़े औधोगिक घरानों की आक्रामक बाजारवादी नीतियों ने लगभग छीन रखी है। अपने शहर के बाजार की सैर पर निकलें तो ऐसा लगेगा कि हम अपने देश में नहीं, चीन के किसी आर्थिक उपनिवेश की सैर पर हैं। अपनी जरा सी संवेददानशीलता से हम कुटीर उद्योगों की बिगड़ती सूरत के कारण लगभग बर्बादी के कगार पर खड़े अपने शिल्पकारों के उदास घरों में रोशनी और बेनूर चेहरों पर मुस्कान लौटा सकते हैं। आईए त्योहारों के इस मौसम में घरों में मिट्टी के दीये जलाएं! पूजा-कक्ष में अपने कारीगरों द्वारा निर्मित मूर्तियों को जगह दें।
बच्चों के लिए मिट्टी और लकड़ी के कुछ खिलौने खरीद दें ! घर की सजावट की ख़ातिर अपने कलाकारों द्वारा निर्मित हस्तकलाओं, पेंटिंग्स और कलाकृतियों का प्रयोग करें। विदेशी उत्पादों की तुलना में वे शायद थोड़े महंगे पड़ेंगे, लेकिन अपने ही देश के लाखों परिवारों की खुशियों के आगे यह थोड़ी-सी ज्यादा कीमत कुछ भी नहीं।