संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : भगत सिंह की किताब अगर नक्सल होने का सुबूत है, तो अंग्रेज राज ही क्या बुरा था?
24-Oct-2021 3:31 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : भगत सिंह की किताब अगर  नक्सल होने का सुबूत है, तो अंग्रेज राज ही क्या बुरा था?

कर्नाटक की एक जिला अदालत से अभी एक आदिवासी नौजवान को उसके बूढ़े पिता के साथ बरी किया गया है जिन्हें पुलिस ने नक्सलियों से संबंधों के आरोप में गिरफ्तार किया था। इस आदिवासी छात्र के हॉस्टल के कमरे से जिन किताबों को जप्त करके उस पर नक्सली होने का आरोप लगाया गया था, उनमें भगत सिंह की लिखी एक किताब भी थी। उसके पास अखबारों की कुछ कतरनें भी थीं, और एक चिट्ठी लिखी हुई थी कि जब तक गांव को बुनियादी सुविधाएं नहीं मिलती हैं, तब तक संसद के चुनावों का बहिष्कार करना चाहिए। अब 32 बरस का हो गया यह नौजवान अपने पिता के साथ 9 बरस तक चले इस मुकदमे के बाद बरी किया गया क्योंकि पुलिस कुछ भी साबित नहीं कर सकी और उसके पास कोई सबूत नहीं था। जबकि मामले को दायर करते हुए पुलिस ने इस आदिवासी छात्र के मोबाइल फोन से नक्सलियों की मदद करने और राजद्रोह का अपराध करने की बातें कही थीं, लेकिन इसके मोबाइल फोन के कॉल डिटेल्स तक पुलिस ने अदालत में पेश नहीं किए। देश में बेकसूरों को कुचलने के लिए जो यूएपीए नाम का एक बहुत ही कड़ा कानून इस्तेमाल किया जा रहा है, उस कानून के तहत यह मामला चलाया गया था, और यह गरीब आदिवासी परिवार अपने 9 बरस खोने के बाद अब खुली हवा में सांस ले रहा है। लेकिन अदालत ने इन्हें सिर्फ बरी किया है, इन्हें बाइज्जत बरी नहीं किया है, इसलिए अब ये फिर ऊंची अदालत जा रहे हैं, ताकि उन्हें बाइज्जत बरी किया जाए। फैसले में अदालत ने यह तक लिखा कि चुनाव के बहिष्कार का आह्वान करने की जो चिट्ठी है, तो उसे पत्रकारिता के छात्र ने इसलिए लिखा क्योंकि नेताओं ने उस आदिवासी गांव के लोगों की लंबे समय से चली आ रही मांगों को पूरा नहीं किया था, और इसे पढऩे पर यह आसानी से कहा जा सकता है कि इस पत्र में स्थानीय लोगों की मांगें हैं।

हिंदुस्तान की सरकारों को इस तरह के कानून बहुत अच्छे लगते हैं जिनमें लोगों के मौलिक अधिकारों को कुचला जा सकता है, उन्हें जमानत पाने से भी रोका जा सकता है, और बरसों तक बिना किसी सुनवाई के, बिना किसी ठोस सुबूत के उन्हें जेलों में बंद करके रखा जा सकता है। यह सारा कानूनी इंतजाम अंग्रेजों के वक्त किया गया था ताकि हिंदुस्तानियों को अदालतों के ढकोसले से भी कोई राहत ना मिल सके, और आजाद हिंदुस्तान की काली सरकारों ने भी इन गोरे कानूनों को और अधिक कड़ा बनाकर जारी रखा और अपने ही लोगों की असहमति को कुचलने का काम किया। हिंदुस्तान में किसी को कुचलना हो तो उसके घर से नक्सलियों के बारे में एक किताब का बरामद होना काफी रहता है. पता नहीं संसद की लाइब्रेरी में नक्सलियों के बारे में किताबें हैं या नहीं, सुप्रीम कोर्ट की लाइब्रेरी में नक्सलियों की किताबें हैं या नहीं। लोकतंत्र से असहमति रखने की किताबें भी अगर किसी को 9 बरस तक जेल में डालने के लिए एक हथियार की तरह इस्तेमाल की जा रही है, तो इस पर धिक्कार है। और कर्नाटक के बारे में यह बात समझने की जरूरत है कि यह 2012 में दर्ज मामला है, और तबसे लेकर अब तक वहां पर भाजपा, कांग्रेस, जनता दल, इन सभी की सरकारें रहीं, इन तीनों पार्टियों के मुख्यमंत्री रहे लेकिन एक गरीब आदिवासी छात्र को उसके बूढ़े बाप के साथ जेल में फंसाकर रखा गया और वे अदालत के धक्के खाते रहे।


हिंदुस्तान में किसी भी पार्टी की सरकार रही हो या किसी भी गठबंधन की, उन्होंने कभी ऐसे अलोकतांत्रिक कानूनों को हटाने के बारे में कोई कोशिश नहीं की। जब जो सत्ता में रहते हैं उन्हें ऐसा चाबुक पसंद आता है, उन्हें ऐसी हथकड़ी पसंद आती है, जिसे असहमत लोगों के हाथों पर डाला जाए, उन्हें असहमति की जुबान छीन लेने के औजार पसंद आते हैं, और इसलिए हिंदुस्तान में ऐसे भयानक कानून और कड़े बनाए जा रहे हैं। 1967 में बनाया गया यूएपीए कानून 2019 में मोदी सरकार ने संसद में एक संशोधन करके और कड़ा कर दिया, और उसमें कई किस्म की धाराएं जोड़ दीं जिसमें जांच एजेंसियों और मुकदमा चलाने वाली एजेंसी पर से जिम्मेदारी हटा दी गई, और बेकसूर नागरिकों के अधिकार और घटा दिए गए। लोकतंत्र में कानून की जो बुनियादी जरूरतें रहती हैं उन सबको घटाते हुए कानून को इतना कड़ा कर दिया गया है कि जिसके खिलाफ यह इस्तेमाल हो उसके बचने की कोई गुंजाइश न रहे, और 10-20 बरस बाद जाकर हिंदुस्तान के कुछ मुसलमान अगर आतंक के आरोपों से निकलकर बाहर आ रहे हैं तो उनकी जिंदगी भी क्या जिंदगी बच जाती है?

20-20, 25-25 बरस तक लोग जेलों में कैद रहे आतंक के मुकदमे झेलते रहे और आखिर में बिना किसी सबूत के उनको छोड़ देना पड़ा क्योंकि सुबूत कभी था ही नहीं। लोगों को केवल खुली जमीन से हटाने और इसे दूसरे लोगों के लिए एक धमकी की तरह इस्तेमाल करने की नीयत केंद्र सरकार की भी रही, राज्य सरकारों की भी रही, और इनसे शायद ही कोई पार्टी बची रही। भाजपा से लेकर कांग्रेस तक, और ममता बनर्जी से लेकर दूसरे क्षेत्रीय दलों के मुख्यमंत्रियों तक इन सबने ऐसे कानूनों को एक ताकतवर हथियार की शक्ल में पाया, और उसका जमकर इस्तेमाल किया। दिक्कत यह है कि देश के सुप्रीम कोर्ट तक ने इन कानूनों के अलोकतांत्रिक होने के बारे में कोई फैसले नहीं दिए, और सरकारें मनमर्जी से इनका इस्तेमाल कर रही हैं।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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