संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : नेता से असहमति को राजद्रोह करार देना कलंक की बात है...
31-Oct-2021 4:06 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : नेता से असहमति को राजद्रोह करार देना कलंक की बात है...

भारत और पाकिस्तान के बीच क्रिकेट मैच हमेशा कुछ बवाल खड़ा करता है। अभी ऐसे मैच के स्टेडियम से एक पाकिस्तानी खिलाड़ी की फोटो आई है जिसने पाकिस्तानी टीम की जर्सी पहनी हुई है, और उस पर धोनी का नाम लिखा हुआ है। जाहिर है कि वह धोनी का फैन है, और अपनी पसंद जाहिर कर रहा है। अब तक उसके खिलाफ किसी जुर्म दर्ज होने, या उसकी गिरफ्तारी की बात सामने नहीं आई है, लेकिन पाकिस्तान में भी ऐसा हो सकता है। हिंदुस्तान में तो ऐसे हर मैच के बाद में दो चार जगहों पर कहीं पटाखे फूटते हैं तो कहीं कोई खुशी मनाते हैं तो उसके बाद उनके खिलाफ जुर्म दर्ज होता है। अभी उत्तर प्रदेश में आगरा में कुछ कश्मीरी छात्रों ने भारत-पाकिस्तान मैच के बाद खुशी मनाई तो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा कि उनके खिलाफ राजद्रोह के आरोप में जुर्म दर्ज किया जाएगा। इस बारे में सुप्रीम कोर्ट के एक भूतपूर्व जज दीपक गुप्ता ने एक इंटरव्यू में दिलचस्प बातें कही हैं, जिन्हें समझने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि भारतीय टीम को हराने के बाद पाकिस्तानी टीम की जीत का जश्न निश्चित रूप से राजद्रोह का अपराध नहीं है। उन्होंने कहा यह सोचना भी हास्यास्पद है कि यह राजद्रोह के बराबर है। ऐसी खुशी मनाने वालों पर आरोप लगाने के लिए कुछ दूसरी धाराएं हैं, और राजद्रोह के आरोप अदालत में टिक नहीं पाएंगे, इससे समय और जनता का पैसा दोनों बर्बाद होगा। उन्होंने यह भी कहा कि यह जरूरी नहीं है कि हर कानूनी काम अच्छा और नैतिक हो या सभी अनैतिक और बुरे काम गैरकानूनी हों। उन्होंने इस बात पर राहत जाहिर की कि हिंदुस्तान कानून के शासन से चल रहा है, न कि नैतिकता के नियम से. वे बोले-समाज के अलग-अलग धर्मों, और अलग-अलग समय में नैतिकता के अलग-अलग मतलब होते हैं।

सुप्रीम कोर्ट के एक भूतपूर्व जज का यह कहना मायने इसलिए रखता है कि उन्होंने पहले भी कई बार सार्वजनिक रूप से भारत के राजद्रोह कानून की व्याख्या की है और उन्होंने यह भी कहा है कि अब समय आ गया है कि राजद्रोह की धारा की संवैधानिकता को दी गई चुनौती पर सुप्रीम कोर्ट को कदम उठाना चाहिए, और साफ साफ शब्दों में कहना चाहिए कि यह कानून वैध है, या अवैध है, और इसकी सीमाएं क्या हैं जो इसे इतना कड़ा बनाती हैं। उन्होंने कहा कि यह अंग्रेजों के समय का बनाया गया कानून है जिसे खत्म किया जाना चाहिए। इस मौके पर यह याद रखने की जरूरत है कि भारत के आज के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमणा ने भी राजद्रोह के कानून के इस प्रावधान को जारी रखने पर आपत्ति व्यक्त करते हुए कहा था कि स्वतंत्रता आंदोलन को कुचलने के लिए अंग्रेजी राज के दौरान पेश किया गया कानून आज के संदर्भ में आवश्यक नहीं हो सकता। इस बारे में सुप्रीम कोर्ट में एक चुनौती सुनी भी जा रही है।

हिंदुस्तान में ना केवल केंद्र सरकार बल्कि राज्य सरकारें भी असहमति को दबाने के लिए बार-बार राजद्रोह के कानून का इस्तेमाल करती हैं। किसी सरकार से असहमति लोकतंत्र में एक आम बात रहनी चाहिए, और इससे लोकतंत्र के साथ-साथ सरकार को भी संभलने का और विकसित होने का मौका मिलता है। लेकिन हकीकत यह है कि अलग-अलग विचारधाराओं की पार्टियों की बहुत सी सरकारों ने राजद्रोह के कानून का बेजा इस्तेमाल किया है. जिस तरह आपातकाल के दौरान इंदिरा इज इंडिया का नारा लगाया गया था, उसी तरह आज कहीं कोई मोदी को हिंदुस्तान मान लेते हैं, तो कहीं किसी राज्य में किसी मुख्यमंत्री को ही राज्य मान लेते हैं, और उनकी आलोचना पर राजद्रोह के मुकदमे दर्ज हो जाते हैं। जैसा कि जस्टिस दीपक गुप्ता ने कहा है ऐसे मामले अदालत में टिकते नहीं है लेकिन राजद्रोह के मामले में क्योंकि जमानत मिलने में दिक्कत होती है इसलिए जमानत होने तक की जेल को सत्ता एक सजा की तरह लोगों को दिखा देती है, ताकि बाकी लोगों की असहमति उनकी जुबान पर न आ सके, या उनकी कलम से न निकल सके। सरकारों का राजद्रोह के कानून का इस्तेमाल ऐसा अंधाधुंध है कि जिस पर चाहे उस पर यह कानून लगाकर उसे जेल में डाल दिया जाता है। लेकिन जब अदालतें इस कानून के इस्तेमाल को गलत पाती हैं, और लोगों को महीनों बाद या बरसों बाद जेल से छूटने का मौका मिलता है, तो उस वक्त अदालतें सरकारों पर जुर्माना और हर्जाना नहीं लगाती हैं कि जिसकी जिंदगी का इतना वक्त जेल में गया है, उसे सरकार हर्जाना दे, और इस बात को अदालतें अफसरों के रिकॉर्ड में दर्ज भी नहीं करवाती हैं कि उन्होंने बदनीयत से ऐसे मामले दर्ज किए थे, फिर चाहे वे उन्हें हांकने वाले नेताओं के दबाव में ही क्यों ना दर्ज किए गए हो।

हिंदुस्तान में लोकतंत्र की समझ लगातार कमजोर होते चल रही है, और ऐसी कमजोर समझ के देश में लोगों को आसानी से इस बात पर से सहमत कराया जा सकता है कि सत्ता से असहमति देश से असहमति है, या किसी सत्तारूढ़ नेता से असहमति देश के खिलाफ बगावत है। यह सिलसिला खत्म करने की जरूरत है और सुप्रीम कोर्ट को बिना देर किए हुए इस मामले की सुनवाई करके राजद्रोह के इस कानून को, या इसकी अधिक बेजा इस्तेमाल हो रही धाराओं को खत्म करना चाहिए। कहने के लिए तो केंद्र की मोदी सरकार ने पिछले कुछ वर्षों में लगातार कहा है कि उसने गैरजरूरी हो चुके कानूनों को खत्म करने का अभियान छेड़ा हुआ है, और ऐसे सैकड़ों कानून खत्म किए गए हैं, लेकिन आज इस राजद्रोह कानून का सबसे अधिक बेजा इस्तेमाल अदालतों में जाकर साबित भी हो रहा है, इस कानून को, राजद्रोह कानून की धाराओं को खत्म किया जाना चाहिए। यह अदालती फैसला आने के पहले भी लोगों को सजा देने की नीयत से, कैद में रखने की नीयत से इस्तेमाल किया जा रहा है, यह लोकतंत्र के ठीक खिलाफ है, इनसे लोकतंत्र कमजोर हो रहा है, और सुप्रीम कोर्ट को इसे प्राथमिकता के साथ सुनना चाहिए, और जो सरकारें, जो अफसर इसका बेजा इस्तेमाल करते हुए मिलते हैं, उनके रिकॉर्ड में ऐसे काम दर्ज भी होने चाहिए।

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

 

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