संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय, नवाब मलिक के मर्द होने को अमृता फडणवीस की चुनौती में आखिर गलत क्या है?
02-Nov-2021 4:02 PM
 ‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय, नवाब मलिक के मर्द होने को अमृता फडणवीस की चुनौती में आखिर गलत क्या है?

मुंबई में इन दिनों खबरों की अंधड़ चल रही है। वहां पर शाहरुख खान के बेटे को नशे के एक कारोबार, या नशा पार्टी के सिलसिले में गिरफ्तार किया गया, और उसकी रिहाई तक वह खबरों में लगातार बने रहा। इसी दौरान महाराष्ट्र सरकार के एक मंत्री नवाब मलिक ने नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो के मुंबई के अफसर के खिलाफ लगातार एक अभियान छेड़ा जिससे जिससे उस अफसर, समीर वानखेडे, की विश्वसनीयता खतरे में पड़ी, और शाहरुख के बेटे की जांच के बजाए, अब नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो समीर वानखेड़े की जांच कर रहा है। इसी बीच नवाब मलिक ने महाराष्ट्र के भूतपूर्व भाजपा मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस और उनकी पत्नी पर नशे के सौदागरों और तस्करों से संबंध रखने के आरोप लगाए और पति-पत्नी दोनों की नशे के उन सौदागरों के साथ तस्वीरें पोस्ट की, जो कि एनसीबी द्वारा ही गिरफ्तार करके जेल में रखे गए हैं। अब यह मामला चल ही रहा है कि देवेंद्र फडणवीस की पत्नी अमृता फडणवीस ने एक प्रेस कॉन्फे्रंस लेकर कहा कि अगर नवाब मलिक मर्द हैं, तो वे उनके मार्फत उनके पति देवेंद्र फडणवीस को निशाना न बनाएं। और उन्होंने यह भी कहा कि अगर उन पर कोई आरोप लगाता है तो वह उसे छोड़ती नहीं है। खैर आरोप लगाने वाले को न छोडऩा, इसके कई मतलब हो सकते हैं लेकिन नवाब मलिक के मर्द होने को लेकर उन्होंने जो बात कही है, उसका सिर्फ एक ही मतलब होता है कि मर्द ऐसा काम नहीं करते हैं।

अमृता फडणवीस सार्वजनिक और सामाजिक जीवन में लगातार सक्रिय रहने वाली, और खबरों में भी बने रहने वाली, एक बैंक अफसर रही हैं, जिन पर मुंबई में बैंक का अफसर रहते यह आरोप भी लगे थे कि उनकी वजह से महाराष्ट्र सरकार या वहां की पुलिस के लाखों बैंक खाते उनकी बैंक में खोले गए थे। खैर वह बात तो आई-गई हो गई थी और हम आज जो लिखने जा रहे हैं, उसमें अमृता फडणवीस की राजनीति का कोई लेना-देना नहीं है, न ही शाहरुख खान और नवाब मलिक का, लेकिन हम एक सीमित बात को लेकर लिख रहे हैं कि किस तरह एक पढ़ी-लिखी, कामकाजी, कामयाब, हस्ती होने के बावजूद अमृता फडणवीस की भाषा में मर्दों के किए जाने वाले काम बहादुरी के दर्जे में आते हैं, और बिना कहे इस बात का आगे का मतलब यही निकलता है कि शायद औरतें ऐसा कम करती हैं।

हम इस जगह पर और दूसरी जगहों पर भी लगातार इस बात को लिख-लिखकर थक चुके हैं कि महिलाओं को नीचा दिखाने के काम में हिंदुस्तान की महिलाएं पीछे नहीं रहती हैं। आज महाराष्ट्र जैसे देश के सबसे प्रमुख राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके देवेंद्र फडणवीस की पत्नी रहने के अलावा अपने खुद के जीवन में एक कामयाब बैंक का अफसर रहने के बाद अमृता फडणवीस को यह बात समझ नहीं आ रही कि वे किसी मर्द को कायर मानने से इंकार कर रही हैं, या मर्द के बहादुर रहने की जरूरत बतला रही हैं, या वह औरत को कमजोर और कायर साबित करना चाहती हैं। कुल मिलाकर उनकी बात मर्दों का दबदबा बढ़ाने वाली और औरतों का दर्जा गिराने वाली है, जिसे किसी भी मायने में बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन वे अकेली ऐसी नहीं हैं। हिंदुस्तान की संसद की बहुत सी ऐसी महिला सांसद हैं, जो प्रदर्शन करते हुए जब किसी सरकार के खिलाफ अपनी बात रखना चाहती हैं, तो मंत्रियों और अफसरों को चूडिय़ां भेंट करती हैं। मानो चूडिय़ां कमजोरी और नालायकी का प्रतीक हैं, और चूड़ी ना पहनने वाले मर्द मजबूत, बहादुर, और लायक होते हैं। यह सिलसिला राजनीतिक दलों की महिला कार्यकर्ता जगह-जगह करती हैं कि वे अफसरों को चूडिय़ां भेंट करती हैं कि अगर वे काम नहीं कर सकते, तो चूड़ी पहनकर घर बैठ जाएं। जिस कांग्रेस पार्टी में इंदिरा गांधी जैसी विश्वविख्यात नेता रही हो, जिसकी मुखिया सोनिया गांधी हो, उस पार्टी की नेता भी चूडिय़ां भेंट करने को प्रदर्शन का एक तरीका मानती हैं। दूसरी तरफ भाजपा में भी महिलाएं कम नहीं रहीं, विजयाराजे सिंधिया से लेकर सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे सिंधिया तक बहुत सी प्रमुख महिलाएं भाजपा की राजनीति में रहीं, और इस पार्टी को भी चूडिय़ों को कमजोरी का प्रतीक मानने से बचना चाहिए था, लेकिन वह बच नहीं पाई। बाकी बहुत सी क्षेत्रीय पार्टियां ऐसी हैं जो कि अपनी सोच से ही दकियानूसी हैं और वे महिलाओं के खिलाफ जितने किस्म की बातें कर सकती हैं, वह करती ही हैं, लेकिन जब मुंबई में एक काबिल और कामयाब, आधुनिक महिला बहादुरी के काम को मर्दों से जोडक़र और कमजोरी के काम को गैर मर्द से जोडक़र देख रही हैं, तो फिर बाकी महिलाओं से क्या उम्मीद की जाए।

हिंदुस्तान में यह सिलसिला ही खराब चले आ रहा है जिसमें महिला को सामाजिक व्यवस्था के तहत आगे बढऩे नहीं दिया गया, और फिर उसे कमजोर साबित करने का कोई मौका नहीं छोड़ा गया। समाज की पूरी की पूरी भाषा इसी तरह की बनाई गई कि लड़कियों के मन में कोई आत्मविश्वास पैदा न हो सके महिलाओं का अपने खुद पर कोई भरोसा न हो सके। और ऐसी भाषा को कई किस्मों के प्रतीकों से जोड़ दिया गया। महिलाओं को चूड़ी-कंगन से लेकर मंगलसूत्र और पायजेब तक से घेर दिया गया, उसके माथे पर बिंदी और मांग में सिंदूर से इस बात का प्रदर्शन किया गया कि वह शादीशुदा है, उसके नाम के साथ अनिवार्य रूप से श्रीमती जोडक़र उसका शादीशुदा दर्जा उजागर किया गया जबकि मर्दों के साथ ऐसी कोई चीज नहीं की गई। पूरा सिलसिला महिलाओं को कमजोर साबित करने और कमजोर बनाने का था जिससे उबर पाना किसी के लिए आसान नहीं है।

आज जब हिंदुस्तान की सभी पार्टियों की महिलाओं को अलग-अलग अपने स्तर पर अपनी पार्टियों के बीच, और तमाम पार्टियों को मिलकर भी महिला आरक्षण के लिए लडऩा चाहिए था, तो किसी पार्टी ने अपनी महिलाओं को महत्व नहीं दिया, कांग्रेस पार्टी ने भी नहीं। आज उत्तर प्रदेश के चुनाव में प्रियंका गांधी की साख दांव पर लगी हुई है, और वे तुरुप के पत्ते की तरह 40 फीसदी सीटें महिला उम्मीदवारों को देने की घोषणा कर चुकी हैं। लेकिन उनकी पार्टी ने कई दशक पहले से चले आ रहे महिला आरक्षण विधेयक का उस वक्त भी साथ नहीं दिया जिस वक्त वह ताकत में थी, और चाहती तो कोशिश करके उसे देश में लागू कर सकती थी, और आज एक तिहाई महिला सांसद संसद में रहतीं, और उसी अनुपात में महिला विधायक विधानसभा में रहतीं। भारत में महिलाओं के खिलाफ अन्याय ना सिर्फ भाषा में है बल्कि राजनीतिक दलों की रणनीति में भी है, और समाज के सारे तौर-तरीकों में भी है।

अमृता फडणवीस ने कोई बहुत अलग बात नहीं कही है, उसी भाषा को मर्दों के झांसे में अधिकतर महिलाएं इस्तेमाल करती हैं, और बोलचाल की जुबान में महिलाओं का कोई जिक्र भी नहीं होता, सारी भाषा पुरुष के हिसाब से बनाई गई है, और यह मान लिया गया है कि पुरुष के भीतर महिला शामिल है। भारत के कानून में और अदालतों की कार्यवाही में भी, सुप्रीम कोर्ट के फैसलों में भी, सिर्फ अंग्रेजी का पुरुष का ‘ही’ शब्द इस्तेमाल किया जाता है, और महिला के लिए ‘शी’ शब्द का इस्तेमाल नहीं होता, और अदालत भी यह मानती है कि पुरुष में महिला शामिल है। यह पूरा सिलसिला गलत है और अदालतों को भी अपनी भाषा सुधारनी चाहिए। संसद को भी अपनी भाषा सुधारनी चाहिए। महिलाओं को पुरुषों की लादी गई भाषा का इस्तेमाल करने के बजाय देश में महिला आरक्षण लाने की कोशिश करनी चाहिए और सोशल मीडिया की, सार्वजनिक जीवन की सारी भाषा को आक्रामकता के साथ सुधारना चाहिए।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

 

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news