संपादकीय
सुप्रीम कोर्ट में मामले की सुनवाई के दौरान देश के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन्ना ने केंद्र सरकार के वकील तुषार मेहता से कहा कि वे बहुत अच्छी अंग्रेजी नहीं जानते क्योंकि उन्होंने आठवीं के बाद अंग्रेजी पढऩा शुरू किया। यह बात तुषार मेहता और रमन्ना जस्टिस रमन्ना दोनों के बीच एक ही किस्म की थी क्योंकि अप भी पढ़ाई-लिखाई का ऐसा भी इतिहास तुषार मेहता ने भी रखा। यह मुद्दा इसलिए उठा कि केंद्र सरकार का पक्ष रखते हुए तुषार मेहता ने दिल्ली के ताजा प्रदूषण के लिए किसानों को जिम्मेदार ठहराने से अपनी बात शुरू की। इस पर तुरंत ही मुख्य न्यायाधीश ने आपत्ति की। तब सरकारी वकील ने साफ किया कि उनकी बात का यह मतलब बिल्कुल न निकाला जाए कि केंद्र सरकार किसानों को ही जिम्मेदार मान रही है, और वे सिलसिलेवार तरीके से बाकी पहलुओं को भी पेश करने जा रहे हैं। इस मुद्दे पर दोनों ने अपने अपने स्कूल और कॉलेज की पढ़ाई के बारे में बात रखी।
दरअसल हिंदुस्तान ही नहीं दुनिया के अधिकतर देशों में अभावग्रस्त स्कूलों से पढक़र निकले हुए बच्चों को कई तरह की दिक्कत आगे चलकर झेलनी पड़ती है। इन अभावों के अलावा हिंदुस्तान जैसे देश में अंग्रेजी भाषा का अपना एक महत्व है क्योंकि मुख्य न्यायाधीश तेलुगू स्कूल से पढक़र निकले थे, और उस तेलुगु भाषा का सुप्रीम कोर्ट में कोई काम नहीं है। सुप्रीम कोर्ट में तो हिंदी भाषा का भी कोई काम नहीं है, वहां पर तो हर कागज अंग्रेजी में दाखिल करना पड़ता है, और सारी बातचीत भी अंग्रेजी में होती है। यह बात समय-समय पर उठी है, और मौजूदा चीफ जस्टिस, जस्टिस रमन्ना ने ही यह बात कही थी कि वकीलों के मुवक्किल अंग्रेजी भाषा न जानने की वजह से यह भी नहीं समझ पाते कि उनके वकील उनकी बात को दमखम से रख रहे हैं या नहीं। भाषा की एक बहुत बड़ी ताकत होती है, और हिंदुस्तान में अंग्रेजी ही ताकतवर जुबान है। सत्ता और सरकार से लेकर कारोबार तक हर जगह अंग्रेजी का बोलबाला रहता है, और बड़ी अदालतों में तो अंग्रेजी के अलावा किसी और जुबान में काम होता नहीं है। इसलिए यह जुबान ही हिंदुस्तान की कई चीजों को महंगा बना देती है।
फिर भाषा के अलावा कुछ और चीजें भी हैं जो कि लोगों के बीच भेदभाव खड़ा करती हैं। भाषा जानने के बाद भी अगर उस भाषा की बारीकियां न जाने, उसके व्याकरण को न जाने, उसके हिज्जे और उच्चारण को सही-सही ना समझें तो भी जानकार लोग कमजोर लोगों की खिल्ली उड़ाने में पीछे नहीं रहते। जबकि हकीकत यह है कि किसी भी जुबान में हिज्जों और उच्चारण का इस्तेमाल उस भाषा को सिखाने के लिए तो जरूरी है, लेकिन उस भाषा में कामकाज के लिए उसका एक सीमित उपयोग रहता है। अधिकतर काम मामूली गलतियों वाली भाषा के साथ चल सकता है, और चलता है। आज हिंदुस्तान के सोशल मीडिया में हिंदी में लिखने वाले बहुत ही शानदार और दमदार लेखक ऐसे हैं जो कि बड़े वजनदार सोच लिखते हैं, लेकिन उनकी टाइपिंग में कई किस्म की गलतियां रह जाती हैं। अब या तो उन गलतियों पर ही ध्यान दिया जाए, या फिर जिन मुद्दों को वे उठा रहे हैं और जिन सामाजिक सरोकारों पर लिख रहे हैं, उन पर ध्यान देते हुए उनकी भाषा की गलतियों को, या टाइपिंग की गलतियों को भूल जाया जाए।
हमारा तो हमेशा से यही मानना रहता है कि भाषा की शुद्धता को एक शास्त्रीय स्तर तक ले जाना उसे लोगों से काट देने जैसा है ,क्योंकि आम लोग व्याकरण की बारीकियों को समझकर, अगर उसका ख्याल रखकर लिखेंगे और बोलेंगे, तो शायद वे कभी बोल नहीं पाएंगे। और यह बात यहीं नहीं, यह बात अंग्रेजी जुबान के साथ भी है, और हो सकता है कि दूसरी भाषाओं के साथ भी हो। अंग्रेजी में देखें तो एक जैसे हिज्जे वाले शब्दों के बिल्कुल ही अलग-अलग किस्म के उच्चारण किसी भी नए व्यक्ति को वह भाषा सीखते समय मुश्किल खड़ी कर देते हैं। इसके बाद अंग्रेजी के कई अक्षर मौन रहते हैं, और वह मौन क्यों रहते हैं इसे खासे पढ़े-लिखे लोग भी नहीं समझ पाते। ऐसे में अंग्रेजी को पूरी तरह से सही समझ पाना और लिख-बोल पाना मुश्किल हो जाता है। अब अगर कोई यह सोचे कि जिसे पूरी तरह से सही अंग्रेजी ना आए, वे अंग्रेजी में काम ही न करें, तो यह उस भाषा से लोगों को तोडऩा हो जाएगा। ऐसा ही हिंदुस्तान में सही हिंदी को लेकर है, और अब तो एक दिक्कत और होती है कि कंप्यूटरों पर हिंदी टाइप करने के लिए लोग बोलकर भी टाइप कर लेते हैं, लेकिन ऐसा करते हुए हिज्जों की कई तरह की गलतियां रह जाती हैं। अब लोग अगर यह चाहेंगे कि उनके लिखे हुए में जब कोई भी गलती न बचे तभी वे उसे सोशल मीडिया पर पोस्ट करें, तो ऐसे में उनका लिखना ही बहुत कम हो पाएगा। आज अधिक जरूरत जनचेतना, जागरूकता, और सरोकार की है। आज अधिक जरूरत इंसाफ और अमन की बात करने वालों की है। ऐसे में अगर भाषा की मामूली कमजोरी रह भी जाती है तो भी उसकी अधिक परवाह नहीं करना चाहिए। आज सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश किसी बड़ी अंग्रेजी स्कूल में नहीं पढ़े हैं, लेकिन उनके फैसले बहुत लोकतान्त्रिक, और जनता के हिमायती हैं। भाषा की लफ्फाजी बहुत ऊँचे दर्जे की होती, और इंसाफ कमजोर होता, तो वैसी अंग्रेजी किस काम की होती?
भाषा हो या संगीत, या कोई और कला, उसमें जब किसी शास्त्रीयता के नियम कड़ाई से लाद दिए जाते हैं, तो फिर उस भाषा को बोलने वाले कमजोर तबकों के लोगों को काट दिया जाता है, यह सिलसिला खराब है। सही भाषा बहुत अच्छी बात है लेकिन भाषा की मामूली कमजोरी को किसी इंसान की ही पूरी कमजोरी मान लेना बेइंसाफी की बात है। दुनिया के बहुत से सैलानी तो सौ दो सौ शब्दों की जानकारी रखकर किसी दूसरी भाषा वाले देश भी घूम आते हैं। वह तो वहां पूरा वाक्य भी नहीं बना पाते, लेकिन अपना काम पूरा चला लेते हैं।
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