संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : हाईकोर्ट फैसले के खिलाफ हमने जो लिखा था, वही सुप्रीम कोर्ट ने लिखा
18-Nov-2021 5:21 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय  :  हाईकोर्ट फैसले के खिलाफ हमने जो लिखा था, वही सुप्रीम कोर्ट ने लिखा

सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला इस साल के शुरू से चले आ रहे एक तनाव को खत्म करने वाला रहा। मुंबई हाई कोर्ट की नागपुर बेंच की एक महिला जज ने जनवरी में फैसला दिया था कि अगर किसी बच्ची के बदन को कोई व्यक्ति कपड़ों के ऊपर से छूता है, और अगर चमड़ी से चमड़ी का संपर्क नहीं होता है, तो उस पर यौन शोषण वाला पॉक्सो कानून लागू नहीं होगा। यह फैसला आते ही विवादों से घिर गया था और इसके ठीक अगले ही दिन इस अखबार ने इसी जगह पर इसके खिलाफ जमकर लिखा था। उस संपादकीय में हमने यह भी लिखा था कि सुप्रीम कोर्ट को खुद ही इस फैसले के खिलाफ सुनवाई करनी चाहिए और इस फैसले को तुरंत खारिज करके इस महिला जज को आगे इस तरह के किसी मामले की सुनवाई से अलग भी रखना चाहिए। यह मामला एक आदमी द्वारा 12 बरस की एक बच्ची को लालच देकर घर में बुलाने और उसके सीने को छूने, उसके कपड़े उतारने की कोशिश का था, जिस पर जिला अदालत ने उसे पॉक्सो एक्ट के तहत 3 साल की कैद सुनाई थी। नागपुर हाई कोर्ट बेंच की महिला जज ने इस सजा को खारिज कर दिया था और कहा था कि जब तक चमड़ी से चमड़ी न छुई जाए तब तक पॉक्सो एक्ट लागू नहीं होता।


अभी सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में हाईकोर्ट के फैसले को बेतुका करार दिया और खारिज कर दिया। हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ भारत के महान्यायवादी, राष्ट्रीय महिला आयोग, और महाराष्ट्र शासन अपील में गए थे जिस पर यह फैसला आया। सुप्रीम कोर्ट के 3 जजों की बेंच ने यह कहा कि पॉक्सो की शर्तों को चमड़ी से चमड़ी छूने तक सीमित करना इस कानून की नीयत को ही खत्म कर देगा जो कि बच्चों को यौन अपराधों से बचाने के लिए बनाया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में कहा कि ऐसी परिभाषा निकालना बहुत संकीर्ण होगा और यह इस प्रावधान की बहुत बेतुकी व्याख्या भी होगी। यदि इस तरह की व्याख्या को अपनाया जाता है तो कोई व्यक्ति किसी बच्चे को शारीरिक रूप से टटोलते समय दस्ताने या किसी और कपड़े का उपयोग कर ले, तो उसे अपराध के लिए दोषी नहीं ठहराया जाएगा, और यह बहुत बेतुकी स्थिति होगी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कानून का मकसद मुजरिम को कानून की पकड़ से बचने की इजाजत देना नहीं हो सकता। अदालत ने फैसले में कहा कि जब कानून बनाने वाली विधायिका ने अपना इरादा स्पष्ट रखा है तो अदालतें उसे अस्पष्ट नहीं कर सकतीं, किसी कानून को अस्पष्ट करने में न्यायालय को अतिउत्साही नहीं होना चाहिए। एक जज ने इस फैसले से सहमतिपूर्ण, लेकिन अलग से फैसला लिखा और कहा कि हाईकोर्ट के विचार ने एक बच्चे के प्रति नामंजूर किए जाने लायक व्यवहार को वैध बना दिया। सुप्रीम कोर्ट ने और भी बहुत सी बातें हाई कोर्ट की इस महिला जज के फैसले के बारे में लिखी हैं, लेकिन उन सबको लिखना यहां प्रासंगिक नहीं है।

जब हाई कोर्ट का यह फैसला आया था उसके अगले ही दिन हमने इसी जगह पर लिखा था- ‘बाम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच की जज पुष्पा गनेडीवाला ने लिखा है- सिर्फ वक्ष स्थल को जबरन छूना मात्र यौन उत्पीडऩ नहीं माना जाएगा इसके लिए यौन मंशा के साथ स्किन टू स्किन संपर्क होना जरूरी है। हाईकोर्ट का यह फैसला अगर कानून के पॉस्को एक्ट के शब्दों की सीमाओं में कैद है, तो यह शब्दों का गलत मतलब निकालना है। जितने खुलासे से इस मामले के यौन शोषण की जानकारी लिखी गई है, वह मंशा भी दिखाने के लिए काफी है, और बच्ची तो नाबालिग है ही इसलिए पॉस्को एक्ट भी लागू होता है। एक महिला जज का यह फैसला और हैरान करता है कि क्या यह कानून सचमुच ही इतना खराब लिखा गया है? और अगर कानून इतना खराब है तो उसे बदलने और खारिज करने की जरूरत है। फिलहाल तो कानून के जानकार लोग हाईकोर्ट के इस फैसले को पूरी तरह से गलत मान रहे हैं, और सुझा रहे हैं कि इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जानी चाहिए। कानून के एक जानकार ने कहा है कि पॉस्को एक्ट में कहीं भी कपड़े उतारने पर ही जुर्म मानने जैसी बात नहीं लिखी गई है, यह हाईकोर्ट ने अपनी तरफ से तर्क दिया है।’

हमने लिखा था- ‘अब सवाल यह है कि कई बरस मुकदमेबाजी के बाद तो जिला अदालत से सजा मिलती है, वह अगर कई बरस चलने के बाद हाईकोर्ट से इस तरह खारिज हो जाए तो सुप्रीम कोर्ट में जाने और कितने बरस लगेंगे। ऐसी ही अदालती बेरूखी, और उसके भी पहले पुलिस की गैरजिम्मेदारी रहती है जिसके चलते शोषण की शिकार लड़कियां और महिलाएं कोई कार्रवाई न होने पर खुदकुशी करती हैं। बाम्बे हाईकोर्ट के इस फैसले के खिलाफ सोशल मीडिया पर आज खूब जमकर लिखा जा रहा है, और लिखा भी जाना चाहिए। एक विकसित राज्य के हाईकोर्ट की महिला जज अगर यौन शोषण की शिकार एक लडक़ी के हक के बारे में सोचने के बजाय ऐसे दकियानूसी तरीके से बलात्कारी या यौन शोषण करने वाले के पक्ष में कानूनी प्रावधान की गलत व्याख्या कर रही है, तो निचली अदालत के जजों से क्या उम्मीद की जा सकती है? बाम्बे हाईकोर्ट का यह फैसला इस मायने में भी बहुत खराब है कि जज उस आदमी का पॉस्को एक्ट के तहत गुनाह नहीं देख रही है जो कि एक नाबालिग बच्ची को बरगला कर घर ले गया, और कपड़ों के ऊपर से उसका सीना थाम रहा है, उसके कपड़े उतारने की कोशिश कर रहा है। अगर यह सब कुछ यौन उत्पीडऩ की श्रेणी में नहीं आता, तो फिर यौन उत्पीडऩ और होता क्या है? हाईकोर्ट की महिला जज ने इस एक्ट के तहत शरीर से शरीर के सीधे संपर्क की जो अनिवार्यता बताई है, उसे कानून के जानकारों ने खारिज किया है कि पॉस्को एक्ट में ऐसी कोई शर्त नहीं है। हमारा तो यह मानना है कि अगर एक्ट में ऐसी कोई नाजायज शर्त होती भी, तो भी हाईकोर्ट जज को उसकी व्याख्या करके उसके खिलाफ लिखने का हक हासिल है, लेकिन इस जज ने ऐसा कुछ भी नहीं किया।’

हमने फैसले के अगले ही दिन लिखा था-‘हिन्दुस्तान में एक बड़ी दिक्कत यह भी है कि लड़कियों और महिलाओं की शिकायत को, बच्चों की शिकायत को भरोसेमंद नहीं माना जाता, और उन्हें आसानी से खारिज कर दिया जाता है। हाईकोर्ट के इस फैसले के तहत अगर किसी बच्चे का यौन शोषण कपड़ों के ऊपर से हो रहा है, तो उसके खिलाफ कानून लागू ही नहीं होता। यह बच्चों का यौन शोषण करने वालों का हौसला बढ़ाने वाला फैसला है, और देश भर की अदालतों में जहां-जहां पॉस्को एक्ट के तहत ऐसी हालत वाले मामले रहेंगे, वहां-वहां इस फैसले का बेजा इस्तेमाल किया जाएगा। इसलिए इस फैसले के खिलाफ तुरंत ही सुप्रीम कोर्ट में अपील करनी चाहिए, और सुप्रीम कोर्ट को इसे तुरंत सुनवाई के लिए लेना चाहिए इसके पहले कि देश भर के इस किस्म की बलात्कारी अपनी सुनवाई में इसका फायदा उठा सकें। सुप्रीम कोर्ट को इस मामले में फैसला देते हुए ऐसी सोच रखने वाली महिला जज को इस किस्म के अगले मामलों से परे भी रखना चाहिए।’
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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