विचार / लेख
-जेके कर
शुक्रवार 22 नवंबर को लखनऊ में हुए किसानों की महापंचायत में बीज विधेयक 2019 के मसौदे के विरोध में भी आवाजें उठी है। किसान न केवल तीनों कृषि कानूनों को संसद में रद्द किए जाने की मांग कर रहें हैं वरन् किसानी से जुड़े कुछ अन्य मुद्दों के समाधान की बात भी कर रहे हैं। जिसमें से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कानून बनाने की मांग प्रमुख है। यहां पर हम केवल बीज विधेयक 2019 के मसौदे के विरोध को समझने का प्रयास करेंगे।
सबसे पहले यह जान लें कि भारत विश्व-व्यापार-संगठन के समझौते जैसे अन्नायपूर्ण समझौते की डोर से बंधा हुआ है। यह डोर अपने पेटेंट (पढ़े-एकाधिकार व इजारेदारी) कानून के माध्यम से कृषि पर भी नैगम घरानों का आधिपत्य स्थापित करना चाहता है। जिस बीज विधेयक 2019 के मसौदे की बात की जा रही है वह दरअसल विश्व-व्यापार-संगठन प्लस है याने कि विश्व-व्यापार-संगठन में जो मांगा जा रहा है। इस प्रस्तावित विधेयक के माध्यम से उससे भी ज्यादा देने की कोशिश की जा रही है। जाहिर है कि कृषि के कॉर्पोरेटीकरण का विरोध करने वाले किसान बीजों पर कॉर्पोरेट के एकाधिकार का भी विरोध करेंगे।
गौरतलब है कि इस मसौदे के कई प्रावधान प्रोटेक्शन ऑफ प्लांट वैरायटी एंड फार्मर राइट एक्ट 2001 के प्रावधानों का उल्लंघन करते हैं। बीज विधेयक का मसौदा बीजों के अनिवार्य पंजीकरण पर जोर देता है, जबकि प्रोटेक्शन ऑफ प्लांट वैरायटी एंड फार्मर राइट एक्ट 2001 अधिनियम बीजों के स्वैच्छिक पंजीकरण पर आधारित है।
विश्व-व्यापार-संगठन के समझौते पर आधारित होने के कारण प्रोटेक्शन ऑफ प्लांट वैरायटी एंड फार्मर राइट एक्ट 2001 वैधता अवधि के बाद बीजों के पुन: पंजीकरण (पढ़े- एकाधिकार) की अनुमति नहीं देता है इसके उलट बीज विधेयक के मसौदानुसार कोई भी निजी कंपनी वैधता अवधि के बाद भी कई बार बीज का पुन: पंजीकरण करा सकती है याने कि एव्हरग्रीनिंग ऑफ पेटेंट। इस तरह से बीजों की किस्में कभी भी मुफ्त प्रयोग के लिए उपलब्ध नहीं हो पाएंगी। और किसान बीजों के लिए इन कंपनियों पर आश्रित हो जाएंगी।
इसके अलावा बीज विधेयक के मसौदे में बीज की कीमतों के नियमन को लेकर भी अस्पष्ट प्रावधान हैं। इस कारण से बीज कंपनियां जिनमें से ज्यादातर देशी इजारेदार कंपनियां तथा विदेशी कंपनियां हैं, बीजों के मूल्य अपने हिसाब से तय कर सकेंगी। यह बताने की जरूरत नहीं है कि इस दांव से छोटे-मझोले तथा यहां तक कि बड़े किसानों को भी बीजों से मरहूम करके किसानी में कॉर्पोरेट के पदार्पण का मार्ग प्रशस्त किया जायेगा।
हालांकि, मसौदे में सरकार को आकस्मिक स्थितियों जैसे- बीज की कमी, मूल्य में असामान्य वृद्धि, एकाधिकार मूल्य निर्धारण, मुनाफाखोरी जैसे मामले में कुछ चयनित किस्म के बीजों के मूल्य निर्धारण में हस्तक्षेप का अधिकार दिया गया है लेकिन सबकों मालूम है कि इन धाराओं का उपयोग कभी नहीं किया जायेगा क्योंकि यह बड़े घरानों के खिलाफ होगा।
इसमें एक झोल और भी है। वह है प्रोटेक्शन ऑफ प्लांट वैरायटी एंड फार्मर राइट एक्ट 2001 के तहत, यदि कोई पंजीकृत बीज किस्म के कारण किसान को नुकसान होता है तो वह प्राधिकरण के समक्ष मुआवजे का दावा कर सकता है। इसके विपरीत बीज विधेयक 2019 के मसौदे के अनुसार इस प्रकार की स्थिति में उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 के अनुसार विवाद का निपटारा किया जायेगा जो कि आदर्श और मैत्रीपूर्ण संस्थाएँ नहीं हैं जिनसे किसान संपर्क कर सकें।
वैसे जब किसानी के लिए कोई विधेयक लाया जा रहा हो तो उसका उद्देश्य किसानों को लाभ पहुंचाना होना चाहिए न कि इसमें बीज बेचने वाली कंपनियों का हित छुपा हुआ हो। एक प्रसिद्ध टीवी सीरियल के तकियाकलाम के अनुसार कहे तो लखनऊ के किसान महापंचायत में किसानों ने कॉर्पोरेटीकरण के इस छुपे कदमों को ‘सही पकड़ा है।’
आम जनता पर प्रभाव
* बीजों के दाम बढऩा याने फसलों के भी दाम बढऩा, जनता पर बोझ बढ़ेगा।
* किसानों को बीजों वंचित करना याने किसानी से भी, बेरोजगारी में इज़ाफा।
* बीजों पर एकाधिकार याने कृषि में आत्मनिर्भरता से कॉर्पोरेट पर निर्भरता बढऩा।
* इससे ग्रामीण भारत की क्रयशक्ति घटेगी, देश की अर्थव्यवस्था बिगड़ेगी।