संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : दिल्ली के लोगों को बचाना है तो कतरा-कतरा कोशिशों से काम नहीं चलेगा, दूर की सोचनी होगी...
23-Nov-2021 3:42 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  दिल्ली के लोगों को बचाना है तो कतरा-कतरा कोशिशों से काम नहीं चलेगा, दूर की सोचनी होगी...

दिल्ली का इलाका एनसीआर कहलाता है, नेशनल कैपिटल रीजन, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, इसके बारे में अभी खबर आई है कि यहां पर वायु प्रदूषण इतना अधिक हो चुका है कि कोरोना वायरस की वजह से होने वाली मौतों से अधिक मौतें वायु प्रदूषण से हो सकती हैं, और जिन लोगों को पहले कोरोना की वजह से फेफड़ों की बीमारी निमोनिया हो रहा था, उससे अधिक संख्या में लोगों को वायु प्रदूषण की वजह से निमोनिया हो रहा है। अब दिक्कत यह है कि वायु प्रदूषण से होने वाली मौतें सीधे-सीधे कोरोना मौतों की तरह दर्ज नहीं होती हैं और इसलिए वे मोटे तौर पर अनदेखी रह जाती हैं। फिर दूसरी बात यह भी है कि मौतों से अलग, प्रदूषण की वजह से फेफड़ों की, सांस की, जो भी दूसरी बीमारियां हो रही हैं उनकी वजह से लोगों की जिंदगी घट रही है, उनकी मौत तो तुरंत नहीं हो रही है, लेकिन उनकी सेहत कमजोर होती चली जाती है, और वे अपनी पूरी जिंदगी नहीं जी पाते। लेकिन यह बात भी सरकारी रिकॉर्ड में नहीं आ पाती क्योंकि इसे आंकड़ों में नापतौल पाना मुमकिन नहीं होता।

इस बारे में सुप्रीम कोर्ट लगातार सुनवाई कर रहा है कि दिल्ली का प्रदूषण कैसे कम किया जाए, केंद्र और दिल्ली सरकार इन दोनों की खासी आलोचना भी हो रही है, लेकिन हर बरस इस्तेमाल होने वाले तौर-तरीकों को ही बार-बार अपनाया जा रहा है और दिल्ली के बुनियादी ढांचे में जो फेरबदल करके इस शहर को जिंदा रहने लायक बनाना चाहिए उस बारे में अभी तक कोई बातचीत भी नहीं हो रही है। हमने इसी जगह अभी हफ्ते-दस दिन पहले ही लिखा था कि दिल्ली की घनी बसाहट को कम करने के लिए केंद्र सरकार को राष्ट्रीय स्तर पर एक योजना बनानी चाहिए कि दिल्ली से कौन-कौन सी चीजों को बाहर ले जाया जा सकता है। अभी पिछले डेढ़ बरस से जिस तरह लॉकडाउन और ऑनलाइन काम, वर्क फ्रॉम होम, इन सबका तजुर्बा बाकी दुनिया के साथ-साथ हिंदुस्तान को भी हुआ है, उसे इस्तेमाल करते हुए किस तरह से दिल्ली से दफ्तरों को बाहर ले जाया जा सकता है, दिल्ली से किन कारोबार को बाहर ले जाया जा सकता है, इसके बारे में सोचना चाहिए।

दिल्ली से परे देश की एक उपराजधानी बनाने की एक सोच लंबे समय तक चलती रही लेकिन हाल के वर्षों में उस पर कोई बातचीत नहीं हो रही है। दक्षिण भारत के कुछ राज्यों का यह मानना था कि उत्तर भारत में बसी हुई देश की राजधानी की वजह से दक्षिण भारत के साथ बेइंसाफी होती है, और उपराजधानी दक्षिण भारत में होनी चाहिए। राजीव गांधी के मंत्रिमंडल में ताकतवर मंत्री रहे माधवराव सिंधिया अपने शहर ग्वालियर में उपराजधानी ले जाना चाहते थे और वे उसके लिए खुली कोशिश भी कर रहे थे। अब हमारा यह मानना है कि शारीरिक रूप से बहुत से दफ्तरों को एक साथ रखने की जरूरत नहीं रह गई है। लोग अब ऑनलाइन काम कर रहे हैं, वीडियो कॉन्फ्रेंस पर बैठकें हो जा रही हैं, लोग कंप्यूटरों पर सारा काम कर ले रहे हैं और एक साथ आना-जाना, बैठना, इसकी जरूरत पहले के मुकाबले घट गई है। ऐसे में केंद्र सरकार को तुरंत ही यह सोचना चाहिए कि वह अपने कौन-कौन से दफ्तरों को दिल्ली के बाहर ले जा सकती है। इसके लिए उसे देशभर के अलग-अलग राज्यों से सलाह भी करनी चाहिए और उनसे प्रस्ताव मंगवाने चाहिए कि कौन-कौन सा राज्य अपने कौन से शहर में केंद्र सरकार के दफ्तरों के लिए कितनी जगह देने को तैयार है, और कितने किस्म की रियायतें वह राज्य दे सकता है। बहुत से राज्य ऐसे होंगे जो अपने किसी शहर के विकास के लिए, एयरपोर्ट और खुली जगह के साथ-साथ केंद्र सरकार के ऐसे संस्थानों के लिए जगह बनाएं।

आज एक बड़ी जरूरत यह है कि केंद्र सरकार एक ऐसा आयोग बनाए जिसमें राज्यों के प्रतिनिधि भी हों और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर के योजनाशास्त्री हों, शहरी विकास के विशेषज्ञ हों, और जिसमें यह तय हो कि केंद्र सरकार के कौन-कौन से दफ्तर, दिल्ली में चलने वाले कौन-कौन से संवैधानिक संस्थान, कौन-कौन से शैक्षणिक संस्थान बाहर ले जाए जा सकते हैं। इससे परे यह भी देखने की जरूरत है कि अंतर्राष्ट्रीय संगठनों और विदेशी संस्थानों का जो जमावड़ा दिल्ली में हो गया है उसे भी कैसे कम किया जा सकता है। और ऐसा करते हुए देश में आज प्रदूषण और घनी बसाहट झेल रहे दूसरे महानगरों को बाहर रखना चाहिए। ऐसी कोई वजह नहीं है कि संयुक्त राष्ट्र संघ या ऐसे दूसरे अंतरराष्ट्रीय संगठन देश के किसी दूसरे हिस्से में अपने दफ्तर ना बना सकें। इसके लिए दिल्ली में नए भवन निर्माण पर बड़ी कड़ाई से रोक लगानी होगी। आज प्रदूषण को घटाने के लिए दिल्ली सरकार की जो योजनाएं चल रही हैं, वे बहुत तंग नजरिए की हैं और वे केवल डीजल की गाडिय़ों को कम करने, पुरानी गाडिय़ों को हटाने, इस तरह की छोटी-छोटी बातें कर रही हैं। लेकिन दिल्ली की प्रदेश सरकार का यह अधिकार भी नहीं है कि वह दिल्ली में बसे हुए केंद्र सरकार या अंतरराष्ट्रीय संगठनों के दफ्तरों को बाहर ले जाने के बारे में किसी योजना पर काम करे, वह शायद ऐसा चाहेगी भी नहीं, यह काम केंद्र सरकार को ही करना होगा।

आज हिंदुस्तान में कम से कम 2 दर्जन ऐसे शहर छंाटे जा सकते हैं जो अलग-अलग राज्यों में होंगे, जो हवाई सफऱ के लिए, ट्रेन के लिए जुड़े हुए होंगे, और जहां पर राज्य सरकार खुली जगह दे सकेगी जिससे कि वहां होने वाले भवन निर्माण से स्थानीय रोजगार और कारोबार दोनों को बढ़ावा मिलेगा। यह काम बिना देर किए करना चाहिए और इस बारे में हम एक से अधिक बार इसलिए भी लिखते हैं क्योंकि ऐसी कोई सुगबुगाहट भी आज शुरू नहीं हो रही है। हो सकता है सरकार का इतना बड़ा हौसला न हो लेकिन इस देश में शहरी योजना को लेकर आईआईटी या एसपीए जैसे जो शैक्षणिक संस्थान बड़े-बड़े कोर्स चलाते हैं, जहां बड़ी-बड़ी पढ़ाई होती है, शोध कार्य होते हैं, वहां से भी किसी को ऐसा काम करना चाहिए और ऐसी एक ठोस योजना बनाकर केंद्र सरकार के सामने या सार्वजनिक रूप से सामने रखना चाहिए कि कैसे दिल्ली को फिर से जिंदा रहने लायक एक शहर बनाया जा सकता है। आज हकीकत यह है कि जिनके परिवार के लोग अधिक बीमार हैं और जिनके पास दिल्ली से बाहर उन्हें रखने की सहूलियत है वे लोग उन्हें बाहर ले जा रहे हैं, और जब तक ठंड का पूरा मौसम खत्म नहीं हो जाता तब तक उन्हें वापस नहीं ला रहे हैं। यह सिलसिला बहुत ही खतरनाक है और इसके पहले यह सिलसिला बढ़ते चले जाए और कोई योजना न बन सके, हम इसे अपनी जिम्मेदारी समझते हैं कि ऐसा फैसला लेने वाले, योजना बनाने वाले, शोध कार्य करने वाले लोगों के के बीच कागज पर काम शुरू हो सके।

यह याद रखने की जरूरत है कि दिल्ली के सबसे गरीब लोगों के पास तो इस जानलेवा प्रदूषण से बचने के लिए न एसी गाडिय़ां हैं, और न ही एसी घर हैं। वे सबसे पहले बेमौत मारे जा रहे हैं।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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