विचार / लेख
-श्याम मीरा सिंह
कोक स्टूडियो ने बहुत से अच्छे गाने दिए हैं, एक गाना सुन रहा हूँ ‘मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न माँग।’ लिखा फ़ैज़ साहब ने है तो आलोचनाओं की गलेबां तो ऐसे ही छोटी हो गई, मजाल क्या किसी की जो फ़ैज़ की कविता में क्या उनके किसी एक शब्द को ही आगे-पीछे कर हिला जाए फ़ैज़ के लिखने की ऊँचाई देखिए-
‘मैंने समझा था कि तू है तो दरख़्शाँ है हयात
तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है’
जितने सुंदर लफ्ज़़ उतने ही खूबसूरत हुमेरा चन्ना और नबील शौक़त की जोड़ी। गाया ऐसे जैसे हर एक लफ्ज़़ एक-एक करके हुमेरा के होठों से निकलता और हवा से घायल हो होकर ज़मीन पर गिर पड़ता हो। संगीत है कि नशा मिलाई कोई मदहोश हवा कि सुनते-सुनते हाथ की उँगलियाँ थपकने के लिए ज़मीन ढूँढने लगें।
लेकिन एक चीज़ बार बार ज़ेहन खुरच रही ही कि न जाने फ़ैज़ ने ऐसा क्यूँ कहा कि मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न माँग। फ़ैज़ इतने निराशावादी तो नहीं हो सकते। प्रेम कोई ऐसी चीज़ कहाँ जो अपना अंत पा ले, ज़रूर लिखते वक्त फ़ैज़ किसी से कुछ ग़ुस्सा रहे होंगे, ज़रूर किसी बात पर ऐतराज जताने का उनका मन हो आया होगा। ज़रूर कुछ उल्टा-सीधा उनके दिमाग़ में इधर-उधर हो रहा होगा, नहीं तो ये कहने वाला कि ‘तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है’ ये तो न लिखता कि ‘और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा।’ दोनों बातें एक ही साथ, कि आँखों के सिवा कुछ भी नहीं, फिर आँखों के अलावा राहतों के विकल्प भी। ऐसा कहाँ होता।
ज़रूर फ़ैज़ उस दिन थके रहे होंगे तो नाराज़ होकर कह दिए होंगे कि जाओ अब प्यार नहीं होता, अब मन नहीं है। पर प्रेम के संवाद तो उलटवासियों में ही अपनी साँस लेते हैं, यहाँ न का मतलब हाँ, और हाँ का मतलब न ही होता है अक्सर। प्रेम की दुनिया इठलाने, झुठलाने, इतराने और रूठने-मनाने की ही तो है।
कोई कहे कि उससे अब प्रेम नहीं होता, उसके बस का नहीं ये सब। तब माना यही जाता है कि उस दिल में ही प्रेम उपजने की सबसे अधिक संभावनाएँ हैं। रेगिस्तान में बूँद की निश्चित्ता हो न हो पर अचानक किसी दिन बाढ़ आने की निश्चितता जरूर होती है। जो कह दिए हैं कि उनसे प्रेम नहीं होता, जो कह दिए हैं कि वे खाली हो चुके हैं, वे इस दुनिया के वे सुंदर फूल हैं जिनके माथे पर हथेली रख देने की ज़रूरत है, जिन्हें पुचकारने की ज़रूरत है। जिन्हें पास कहीं बिठाकर कहा जाए ‘नहीं अभी बहुत संभावनाएँ हैं तुममें’ ‘तुम बहुत खूबसूरत हो।’
शायद फ़ैज़ उस दिन ऐसे ही किसी से कहलवाना चाहते रहे होंगे, इसलिए उल्टी बात कही ताकि कोई आकर उसे सीधी कर दे। उमर कितने भी मौसम क्यों ना दिखा दे, कितने ही बसंत सफेद बालों के ऊपर से उतर जाएँ, पर मन हो ही आता है सुनने का कि नहीं, सब कुछ हार थकने के बाद भी तुममें अभी बहुत सी संभावनाएँ बची हैं, तुम अब भी प्रेम कर सकते हो। फ़ैज़ भी किसी से शायद यही सुनना चाहते होंगे।
काश कोई होता उस समय जो फ़ैज़ से कहता ‘तुममें बहुत बचा है अभी, जिसे और अच्छी और सुंदर कहानियों में खर्च होना है, वक्त आते ही पहले जितनी ही मोहब्बत कर जाओगे, पहले की तरह ही काँपता सा हाथ किसी के माथे के बालों को हटाने को हो ही आया करेगा, फिर किसी से कहोगे कि प्रेम करता हूँ और बहुत करता हूँ।’
ये सुनकर फ़ैज़ शायद घर को लौटते और उस पन्ने को ढूँढते जिस पर लिखा था कि ‘मुझ से पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब ना माँग।’ फ़ैज़ ज़रूर इन थकी हुई पंक्तियों को मिटाते और नीचे उस लडक़ी के लिए माफ़ी लिखते। कहते कि मालूम नहीं क्या परिणाम होगा पर कोशिश करूँगा।...और अपने इसी गाने की उस पंक्ति में से सारे ‘अगर-मगर, किंतु, लेकिन, हालाँकि’ मिटाकर बाकी पंक्ति यूँ ही लिखी छोड़ देते जिसमें वे लिखते हैं-
‘लौट जाती है उधर को भी नजर क्या कीजे
अब भी दिलकश है तिरा हुस्न क्या कीजे’?
नोट- (नज़्म लिखे जाने की पृष्ठभूमि मुझे पता है। मैंने बस एक एंगल लिया है उसका। बाकी इस कविता का स्त्री-पुरुष प्रेम से कोई मतलब नहीं। ये वतन के लिए लिखी एक बेहतरीन नज़्म है। मैंने बस इसको एक आधार के रूप में इस्तेमाल किया है।)