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-अपर्णा अल्लुरी
तुम लोग शाहरुख़ खान को इतना पसंद क्यों करते हो?
हाल ही में मैंने जब यह सवाल अपने कुछ दोस्तों से पूछा तो वे हैरान रह गए. शाहरुख़ को लेकर ऐसे सवाल भी पूछे जा सकते हैं, यह कभी उन्होंने सोचा ही नहीं था. मैंने भी ऐसे सवाल के बारे में कभी नहीं सोचा था. लेकिन एक नई किताब 'डेस्पेरटली सीकिंग शाहरुख़' ने मुझे इस सवाल पर सोचने को मजबूर कर दिया है.
दोस्तों ने कहा कि शाहरुख़ प्यारे लगते हैं. हीरो के तौर पर वह ऐसे दिखते हैं, जिनसे आप खुद को जोड़ सकते हैं. वह मज़ाकिया हैं. इंटरव्यू में साफ बात करते हैं. नाम और दाम का पीछा करने के अपने सफर को लेकर खुल कर बोलते हैं. झूठी विनम्रता नहीं दिखाते.
जब मैंने थोड़े और गहरे सवाल किए तो उन्होंने फिल्मों में किए गए उनके अलग-अलग रोल के बारे में थोड़ी और संजीदगी से सोचना शुरू किया. उनके जवाब थे कि कैसे उन्होंने कभी 'माचो' रोल नहीं किया. वे हमेशा संवेदनशील हीरो के तौर पर दिखे और जिन महिलाओं से प्रेम का दावा किया उनके प्यार में पूरी तरह डूबे नज़र आए.
मेरी एक दोस्त ने कहा कि यह सच है कि हम उन्हें महिलाओं से उनके इश्क़ की वजह से पसंद करते हैं. अपने इस अहसास से मेरी यह दोस्त खुद चकित थी .
लेखिका शरण्या भट्टाचार्य ने जब शाहरुख़ के दर्जनों महिला फैन्स से ये सवाल किए थे तो उन्हें भी ऐसे ही जवाब मिले थे. लेकिन यह बड़े आश्चर्य की बात थी कि शाहरुख़ की महिला प्रशंसको की जो दुनिया था, वो दरअसल आर्थिकअसमानता की कहानी कह रही थी.
'अनोखे सहयोगी शाहरुख़'
शरण्या लिखती हैं, "जब वे मुझे यह बता रही होती थीं कि शाहरुख़ ख़ान की ओर वो कब और कैसे मुड़ीं तो वे हमें यह भी बता रही होती थीं कि दुनिया ने उनका दिल कब, कैसे और क्यों तोड़ा? इन कहानियों में महिलाओं के उस दुनिया के सपने, चिंताएं और रोमांटिक पसंदगी का बखान था, जो हमेशा उन्हें कमतर बनाए रखती है.
लेखिका के सामने ये जवाब पिछले दो दशकों में उन तमाम सिंगल, शादीशुदा और इन दोनों स्थितियों के बीच की महिलाओं से उनकी मुलाकात, बातचीत और दोस्ती के दौरान सामने आए. इनमें हिंदू महिलाएं हैं. मुस्लिम और ईसाई भी. इनमें वो कामकाजी महिलाएं भी हैं जो वक्त के आगे हार मान चुकी हैं और कुछ में अब भी बेचैनी है. लेकिन एक चीज सबको जोड़ती है. और वह यह कि ये सारी महिलाएं शाहरुख़ की फैन हैं.
शाहरुख़ हमारी दुनिया में 1990 के दशक में आए. कोका-कोला, केबल टीवी उस दौर में एक नए युग का सबूत हुआ करता था. यह वह दौर था जब एक के बाद एक कई आर्थिक सुधारों ने भारत को एक नई दुनिया में पहुंचा दिया था. यह दुनिया आर्थिक उदारीकरण की थी.
शरण्या कहती हैं, "मैं उदारीकरण के बाद के दौर के बाद की महिलाओं की कहानी बताना चाहती थी और इस कोशिश में मुझे शाहरुख़ एक अनोखे सहयोगी के तौर पर दिखे. " उन्होंने अपनी इस कहानी को बयां करने का तरीका भी बताया.
वह 2006 के दौरान देश के पश्चिमी इलाक़े की स्लम बस्तियों में अगरबत्ती बनाने वाली महिलाओं के बीच सर्वे कर रही थीं. उन्होंने पाया कि ये महिलाएं अपनी मज़दूरी के बारे किए जाने वाले सवालों से बोर हो चुकी हैं.
लिहाजा एक ब्रेक के दौरान उन्होंने परिचय बढ़ाने के लिए उनसे बातचीत शुरू की. लेकिन मज़दूरी के बजाय यह पूछा कि हिंदी फिल्मों का कौन हीरो उन्हें सबसे ज्यादा पसंद है.
शरण्या कहती हैं, " जो चीज़ उन्हें सबसे ज्यादा ख़ुशी देती थी, उनके बारे में बातचीत करने के प्रति वे काफ़ी उत्सुक दिखीं."
यह सवाल झिझक तोड़ने के काफ़ी काम आया. शरण्या को पता चला कि सिर्फ़ इन महिलाओं को सिर्फ शाहरुख़ ही नहीं जोड़ते. बल्कि मज़दूरी और घरों की ज़िंदगी का संघर्ष भी उन्हें जोड़ता है.
सब शाहरुख़ की दीवानी थीं. मिडिल क्लास महिला से लेकर अमीर महिलाओं तक से बातचीत में एक चाह साफ़ उभर कर सामने आती थी. वह यह कि हमारे ज्यादातर लड़के और पुरुष पर्दे पर दिखने वाले शाहरुख़ ख़ान जैसे क्यों नहीं हो सकते.
शरण्या कहती हैं, " दरअसल महिलाएं शाहरुख़ को बना रही हैं- वे सभी महिलाएं उन्हें बनाने में लगी हैं. यह बनावट खुद महिलाओं की वास्तविकताओं और आकांक्षाओं पर आधारित है."
शाहरुख़ का नायिका के प्रति घोर समपर्ण यह बताता है कि जो पुरुष महिलाओं की परवाह करता है वह वास्तव में उन्हें ठीक से सुनता भी है.
महिलाओं के आदर्श पार्टनर
शाहरुख़ की कई भूमिकाओं की एक ख़ास पहचान है. इनमें हीरो अपनी क़िस्मत को लेकर चिंतित दिखता है. उनकी इन भूमिकाओं की इस खासियत ने उन्हें महिलाओं का एक आदर्श पार्टनर बना दिया, क्योंकि उन महिलाओं में शायद ही किसी की किस्मत उनके हाथ में थी. यहां महिलाओं को कुछ मिलता-जुलता दिखता है.
पर्दे पर शाहरुख़ जो किरदार निभा रहे थे, उनकी कमज़ोरी साफ़ दिखती थी. वे अक्सर रोने-धोने की भूमिकाओं में होते थे. बॉलीवुड में यह दुर्लभ था कि नायक रोता-धोता दिखे. इसका मतलब ये कि शाहरुख़ ने पर्दे पर कभी अपनी भावनाएं नहीं छिपाईं और न ही नायिकाओं की भावनाओं से बेपरवाह दिखे.
एक युवा मुस्लिम गारमेंट वर्कर ने कहा, " काश! मेरे पति मुझे उस तरह छूते या मुझसे उस तरह बात करते, जैसे "कभी खुशी, कभी गम" में शाहरुख़ ने काजोल से की थी. लेकिन मैं जानती थी कि ऐसा कभी नहीं होने वाला. मेरे पति का हाथ और मूड इतना रुखा होता था कि ऐसी उम्मीद ही बेमानी थी.
अपनी शादी से नाखुश गुज़रे ज़माने के एक राजघराने की महिला ने कहा कि वह अपने बेटे को एक "अच्छा आदमी" बनाना चाहती हैं. ऐसा आदमी जो रो सकता है और जिसके साथ पत्नियां प्यार और सुरक्षा का अहसास कर सकें. ठीक ऐसा ही अहसास तो शाहरुख़ खान पर्दे पर अपनी नायिकाओं को कराते हैं.
ऐसा नहीं है कि शाहरुख़ की दीवानी ये महिलाएं उनके हर रोल को स्वीकार किए बैठी हैं. जिन भूमिकाओं में वे महिलाओं का पीछा करते हैं या उनके ख़िलाफ़ हिंसा करते हैं, उन्हें वो रिजेक्ट भी करती हैं.
ये महिलाएं भले ही पर्दे पर निभाए गए शाहरुख़ के रोल के ग्लैमर या ड्रामा का आनंद लेती हों लेकिन उनके जेहन में ये चीजें ज्यादा देर तक नहीं टिकतीं. उनके जेहन में वो चीजें टिकी रहती हैं, जो छोटी लगती हैं या फिल्मों में अक्सर छिप जाती हैं .
दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे शाहरुख़ की सबसे बड़ी हिट में से एक है और शायद बॉलीवुड की सबसे ज्यादा पसंद की जाने वाली रोमांटिक फिल्म. लेकिन शाहरुख़ की फैन एक लड़की की मां ने जो कहा, उस पर शायद ही मैंने कभी ध्यान दिया था . उन्होंने कहा, " मैंने पर्दे पर पहली बार कोई ऐसा हीरो देखा जो गाजर छीलते हुए घर की महिलाओं के साथ किचन में इतना वक्त दे रहा हो."
उनके लिए यह अद्भुत रोमांटिक दृश्य था. ऐसा नहीं है कि शाहरुख़ की प्रशंसक इन महिलाओं ने कामुकता या यौन आकर्षण की बात नहीं की. लेकिन उन्होंने इससे आगे भी ढेर सारी बातें कीं.
राहत का अहसास कराते शाहरुख़
शाहरुख़ इन महिलाओं को उनकी सुस्त जिंदगी से थोड़ा दूर ले जाते हैं. दिल टूटने या रोजाना की नाइंसाफी से गुजरते हुए शाहरुख़ का साथ उन्हें थोड़ी राहत का अहसास कराता है. वे शाहरुख़ से शादी करने के सपने पालती थीं. इसलिए नहीं कि वे बॉलीवुड स्टार हैं. बल्कि इसलिए कि वह दूसरों को समझने की कोशिश करते दिखते हैं.और दूसरे की भावनाओं को समझने या उसका ध्यान रखने वाला शख्स ही आपको काम करने, पैसे बचाने और कम से कम आपके सपनों को जिंदा रखने की इजाज़त देगा- चाहे इसका मतलब सिर्फ़ यही क्यों न हो कि आप शाहरुख़ की किसी अगली फ़िल्म को देखने के लिए सिनेमा हॉल तक जा सकें.
शाहरुख़ की प्रशंसकों में हर तरह की महिलाएं शामिल हैं- चाहे वे किशोर उम्र में झूठ बोल कर शाहरुख़ की फिल्म देखने के 'अपराध' में मां से थप्पड़ खाने वाली ब्यूरोक्रेट हों या फिर अपनी मेहनत की कमाई से भाई को कुछ पैसे देकर फिल्म हॉल तक पहुंचाने का अनुरोध करने वाली गारमेंट वर्कर. या फिर टीवी पर शाहरुख़ की फिल्म देखने के लिए पादरी से झूठ बोल कर लगातार चार रविवार को चर्च की प्रार्थना से गायब रहने वाली घरेलू सहायिका. इन सभी महिलाओं के लिए फिल्म देखने का वह सामान्य सा आनंद चुराई हुई आज़ादी की तरह था. जैसे किसी ने अपना कुछ पल जी लिया हो.
कुछ गरीब महिलाओं ने तो अपनी जिंदगी में काफ़ी बाद तक शाहरुख़ ख़ान की कोई फिल्म नहीं देखी थी लेकिन उन फिल्मों के गानों ने ही उन्हें उनका प्रशंसक बना दिया था. हालांकि इन महिलाओं के लिए इन गानों का आनंद लेना भी इतना आसान नहीं होता था.
शरण्या कहती हैं, " महिलाएं मस्ती कर सकें यह भी इस समाज में काफी मुश्किल काम है. कोई गाना सुनना या किसी एक्टर को देखने को भी अलग नजरिये से देखा जाता है. अगर कोई महिला कहे कि फलां एक्टर उसे पसंद है या फिर उसका लुक उसे भाता है तो उसके प्रति धारणा बनाए जाने की आशंका रहती है. "
जब शाहरुख़ गाड़ी की डिक्की में छिप गए
शरण्या लिखती हैं, भले ही ये महिलाएं बहुत आज़ादख़याल न हों लेकिन अपनी इन छोटी खुशियों और आनंद के लिए उन्होंने विद्रोह किया. बिस्तर के नीचे शाहरुख़ के पोस्टर छिपा कर, उनकी फिल्मों के गाने सुनकर और उन पर नाचकर उन्होंने इसे जाहिर किया. क्योंकि इन छोटी-छोटी बगावतों ने ही उन्हें अहसास कराया कि ज़िंदगी से उन्हें क्या चाहिए था.
मसलन, इस कहानी में जिस ब्यूरोक्रेट महिला का जिक्र किया गया है उन्होंने खुद अपना रास्ता बनाने का मंसूबा बांधा था ताकि उन्हें जिंदगी में दोबारा शाहरुख़ की कोई फिल्म देखने को लिए दूसरों से इजाज़त न लेनी पड़े.
एक युवा महिला की शादी तय करने की कोशिश चल रही थी. शाहरुख़ की ही फिल्म देखने के दौरान होने वाले पति से पता चला कि वह उनके फैन नहीं हैं. साथ में यह भी कि होने वाले पति को उनका शाहरुख का फैन भी होना भी पसंद नहीं है. रिश्ता नहीं हुआ क्योंकि लड़की भाग गई.
(अब वह लड़की फ्लाइट अटेंडेंट बन चुकी है. उसने वैसे ही लड़के से शादी की जो शाहरुख़ जैसा अहसास दिलाता है.)
शाहरुख़ ख़ान मेरी दोस्तों और मुझ जैसी अपेक्षाकृत ज्यादा सुविधासंपन्न और स्वतंत्र महिलाओं के लिए इस तरह का कोई ख़ूबसूरत वादा या वर्जित सपने की तरह नहीं थे. लेकिन जब मैंने यह किताब पढ़ी तब मुझे यह अहसास हुआ कि मैंने कभी अपनी मां और मौसियों को अपनी ख़ुशी हासिल करने के लिए की गई उस शांत बग़ावत को तारीफ के काबिल नहीं माना था. चुपचाप की जाने वाली यह बग़ावत हर शुक्रवार के लेट नाइट शो के लिए उन्हें सिनेमाघरों में पहुंचा देती थी. मुझे भी साथ ले जाया जाता था. शायद ही मुझे उस दौरान अपनी अच्छी किस्मत का अहसास था.
हालांकि फिर भी हमारे (इस कहानी में जिन महिलाओं का जिक्र हुआ है) अलग-अलग बचपन के बावजूद शाहरुख एक साझा सूत्र बने हुए हैं.
एक महिला ने बताया कि उन्होंने उनके इंटरव्यू देख कर अच्छी अंग्रेजी सीखी.
शरण्या कहती हैं कि शाहरुख़ अपने समय के एक स्तंभ हैं. हालांकि बॉलीवुड में उनकी एंट्री के बाद से लेकर अब तक काफी कुछ बदल चुका है.
"युवा महिलाएं शाहरुख़ से शादी नहीं करना चाहती हैं. वह वैसा बनना चाहती हैं. वे उनकी स्वायत्तता और उनकी सफलता चाहती हैं."
शरण्या भट्टाचार्य की किताब Desperately Seeking Shah Rukh: India's Lonely Young Women and the Search for Intimacy and Independence हार्पर कॉलिन्स इंडिया से प्रकाशित हुई है. (bbc.com)