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छत्तीसगढ़ एक खोज : पैंतालीसवीं कड़ी : प्रवीर चंद्र भंजदेव : एक अभिशप्त नायक या आदिवासियों के देवपुरुष
04-Dec-2021 3:16 PM
छत्तीसगढ़ एक खोज : पैंतालीसवीं कड़ी :  प्रवीर चंद्र भंजदेव : एक अभिशप्त नायक या आदिवासियों के देवपुरुष

-रमेश अनुपम

महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव इन्हीं सब बातों की चर्चा करने के लिए पहले भोपाल गए और मुख्यमंत्री कैलाशनाथ काटजू से मिले। वहां से दिल्ली जाकर देश के गृहमंत्री गोविंद वल्लभ पंत से मिले। महाराजा ने सोचा था कि भोपाल और दिल्ली में बैठे हुए नए हुक्मरान बस्तर के आदिवासियों के दुख दर्द को समझेंगे और इसका कोई हल निकालेंगे।

लेकिन हुआ ठीक इसके उल्टा ही। महाराजा को कहीं से भी न्याय नहीं मिला। उल्टे दिल्ली से बस्तर वापसी के समय उन्हें धनपूंजी नामक गांव में गिरफ्तार कर लिया गया।

महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की गिरफ्तारी एक तरह से शासन-प्रशासन की बहुत बड़ी भूल थी। जिसका आसानी से कोई हल निकाला जा सकता था, उसे जानबूझ कर इतना उलझा दिया गया।

बस्तर के आदिवासियों की संवेदना महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव के साथ जुड़ी हुई थी, वे उन्हें अपने रक्षक के रूप में देखते थे और शासन-प्रशासन को अपने शत्रु के रूप में।

महाराजा की इस तरह की बेतुकी गिरफ्तारी के चलते बस्तर के आदिवासियों का शासन-प्रशासन के प्रति आक्रोशित होना स्वाभाविक ही था।

महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की गिरफ्तारी के विरोध में बस्तर में भीतर ही भीतर चिंगारी सुलगने लगी थीं, जो लोहांडीगुड़ा में एक दिन ज्वालामुखी के रूप में आखिर फूट ही पड़ी।

आज भी बस्तर के स्वर्णिम इतिहास में लोहांडीगुड़ा गोली कांड एक कलंकित और काले अध्याय की तरह याद किया जाता है।

शासन द्वारा 11 फरवरी सन 1961 को महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव को गिरफ्तार कर उनके अनुज विजय चंद्र भंजदेव को बस्तर रियासत का महाराजा घोषित किया गया। इसके ठीक 40 दिनों बाद ही 24 और 25 मार्च सन 1961 को लोहांडीगुड़ा और आस-पास के गावों में आदिवासियों के भीतर का आक्रोश फूट पड़ा।

पहली बार 24 मार्च को प्रत्येक शुक्रवार के दिन लगने वाले हाट में आदिवासियों ने बाजार टैक्स अदा करने से मना कर दिया तथा साथ ही गैर आदिवासी व्यापारियों के बाजार में दुकान लगाने का विरोध किया।

उस दिन सभी आदिवासियों के हाथों में लाठी और कुल्हाड़ी थी। शासन द्वारा महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की गिरफ्तारी ने हमेशा शांत रहने वाले भोले-भाले आदिवासियों के हृदय में ज्वाला प्रज्वलित कर दी थी।

उस दिन उन्होंने हाट में मौके पर उपस्थित तहसीलदार पर हमला करने की कोशिश भी की पर तहसीलदार किसी तरह अपने प्राण बचाकर भागने में सफल हो गए।

देवड़ा और करंजी में लगने वाले साप्ताहिक बाजार में भी आदिवासियों ने इसी तरह का विरोध किया।

इस तरह की घटनाओं को देखते हुए स्थानीय प्रशासन ने जगदलपुर से हथियारबंद जवानों को वहां भेजा। अनेक आदिवासी नेताओं को पुलिस ने गिरफ्तार किया।

लोहांडीगुड़ा, तोकापाल, सिरसागुडा सभी जगह महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव को तत्काल रिहा किए जाने की मांग जोर पकड़ती चली गई।


साप्ताहिक हाट बाजारों में बाजार टैक्स वसूली तथा गैर आदिवासी व्यापारियों के बाजार में दुकान लगाने के खिलाफ नाराजगी बढ़ती चली गई। इसी के साथ महाराजा को रिहा करने की मांग भी जोर पकड़ती चली गई।

सोमवार को तोकापाल में लगने वाले हाट बाजार में पुलिस को भीड़ को तितर-बितर करने के लिए टियर गैस का सहारा लेना पड़ा। उस दिन आदिवासियों ने पुलिस बल पर पत्थर फेंके जिससे कुछ पुलिस वाले बुरी तरह से घायल हो गए।

घटना स्थल पर उपस्थित पुलिस सुपरिटेंडेट आर.पी. मिश्रा पर भी आदिवासियों ने पत्थर फेंके, पर वे किसी तरह बच निकले। पुलिस ने इससे क्षुब्ध होकर कुछ आदिवासी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया।

आदिवासियों की भीड़ ने अपने नेताओं को छुड़ाने के लिए पुलिस वैन को घेर लिया।

यह सब 31 मार्च के लोहांडीगुड़ा गोली कांड की पूर्वपीठिका ही थी, जिसे या तो शासन-प्रशासन समझ पाने में असमर्थ था या फिर जानबूझकर इसे गंभीरता से लेने की कोई जरूरत ही नहीं समझी गई।

31 मार्च सन 1961, दिन शुक्रवार, हमेशा की तरह लोहांडीगुड़ा का हाट बाजार का दिन। हमेशा की तरह आस-पास के आदिवासी सौदा सुलुफ करने लोहांडीगुड़ा पहुंचने लगे थे। पर आज नजारा आम दिनों में लगने वाले हाट बाजार से कुछ अलग सा था।

आज भीड़ कुछ ज्यादा ही दिखाई दे रही थी। आदिवासियों के चेहरे भी आज कुछ अलग दिखाई दे रहे थे। आज उनकी आंखों में जैसे चिंगारियां फूट रही थी।

देखते ही देखते 10 हजार आदिवासी लोहांडीगुड़ा बाजार में इक_े हो गए। सभी माडिय़ा आदिवासी महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव के अनन्य भक्त। ज्यादातर आदिवासी अपने-अपने हाथों में धनुष, टंगिया लिए हुए।

आज का दिन जैसे उनके लिए कयामत का दिन था। अपने देवता तुल्य महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव के लिए कुछ करने और शासन-प्रशासन से दो-दो हाथ करने का दिन।

लोहांडीगुड़ा की हवा में उस दिन कुछ अलग ही गंध थी और फिजा में कुछ अलग ही रंगत।

31 मार्च सन 1961 का दिन बस्तर के इतिहास में कोई मामूली दिन नहीं था।

(बाकी अगले हफ्ते)

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