विचार / लेख
-कनक तिवारी
किसी मजहब का मतावलंबी होना व्यक्तिगत अधिकार है अथवा उसी मजहब का सम्बन्धित व्यक्ति पर अधिकार? संविधान के अनुसार व्यक्ति धर्म संबंधी अबाध स्वतंत्रता रखता है। किसी मजहब में शामिल होकर प्रचार का अधिकार भी उसे है। संविधान की आयतों में उल्लेख नहीं है कि मजहब के बहुमत के अनुयायी उसी मजहब के व्यक्ति को अनुशासन में रहने का फतवा जारी कर सकते हैं। फतवे जारी हैं। हुक्म नहीं मानने वालों के सर तोड़े भी जा रहे हैं।
हिन्दू धर्म में जाति समस्या को धर्म की आंतरिकता बना दिया गया। जाति प्रथा का जहर दलितों में वर्षों से घुलता रहा है। विवेकानंद और गांधी के अनोखे और पुरअसर तर्क थे कि जाति और वर्णाश्रम व्यवस्था के कुछ सकारात्मक पक्ष भी हैं। अंबेडकर ने इस हाइपोथीसिस को कतई मंजूर नहीं किया। उन्होंने जाति प्रथा की सड़ी गली रूढ़ि के खिलाफ जेहाद का बिगुल फूंका। अंबेडकर आधुनिक नीति-संहिता का विधायन रचने के प्रखर आग्रही बने रहे। उस नवोन्मेष के जरिए दलित समूह में रियायतें मांगने के बदले संपूर्ण अधिकारों के लिए संघर्ष करने की वर्ग चेतना पैदा करते रहे। बौद्ध धर्म में उनका प्रवेश धर्म आधारित आदेशों के तहत रहकर दलित वर्ग की सामाजिक स्थिति को सुधारना भर नहीं था। बौद्ध धर्म की बहुप्रचारित अवधारणाओं स्वतंत्रता, समता और सामाजिक बंधुत्व का मनोवैज्ञानिक माहौल मुहैया कराकर दलितों को एक नया जीवनशास्त्र देने का प्रयत्न भी था।
बहुत सावधानी चुस्ती और चालाकी के साथ देश के कई राजनीतिक नेताओं ने वितंडावाद रचा है। उसके परिणामस्वरूप राजसत्ता सदैव उच्च वर्गों के हाथ ही रही। भारत में धर्म प्रमुख सामाजिक ताकत, जरूरत और उपस्थिति है। धर्म का झुनझुना बजाकर लोगों को गाफिल किया जा सकता है। उसका शख बजाकर घबराहट पैदा की जा सकती है। धर्म है कि राजनीति का खिलौना बना हुआ है। कुछ हिन्दू मान्यताओं का फतवा दिया जाता है। उनमें यह सोच कहां था कि भारत कभी एक राष्ट्र-राज्य या संवैधानिक सार्वभौम देश के रूप में निर्मित किया जा सकेगा? प्राचीन हिन्दू सोच में विदेशी राज्य पद्धतियों का विवेचन कहां है? उन असंगत धर्मादेशों को किस तरह हिन्दू या अन्य मतावलंबियों पर क्यों लागू किया जाए?
दलित उत्थान की नयी सामाजिक वैचारिकी को राष्ट्रीय स्तर पर षुरू करने का श्रेय मुख्यतः डा0 अम्बेडकर को है। अपने अंतिम वर्षों में हिन्दू धर्म की रूढ़ियों से त्रस्त होकर डाॅ. अंबेडकर ने लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। उससे एक समतामूलक समाज भूमि पर खड़ा होने का पहला मौका तो दलित वर्ग को मिल सका। ऐसा नहीं है कि अंबेडकर ने समाज के लिए धर्म की आवश्यकता प्रतिपादित नहीं की। लेकिन अपने अनुयायियों से उन्होंने कुछ विशिष्ट मानकों पर धर्म की गत्यात्मकता को जांचने का आग्रह किया। उनके अनुसार सामाजिक नीतिशास्त्र, विवेकशीलता, शांतिमय सहअस्तित्व और अंधविश्वास पर अनास्था एक नए समाज धर्म के अवयव हो सकते हैं। अंबेडकर ने कहा कि ऐसे तत्व हिन्दू धर्म में दिखाई नहीं पड़ते क्योंकि वह जाति प्रथा की गिरफ्त में है। उनके तर्क में बुद्ध की शिक्षाओं के अतिरिक्त पश्चिम के ज्ञानशास्त्र से उपजा नवउदारवाद भी था।
ईसाई धर्म में अंतरित होने से आदिवासियों को शिक्षा, स्वास्थ्य, आधुनिकता और सामाजिकता की स्थितियों में बेहतर संभावनाएं नजर आती रही हैं। ईसाई मिशनरियों का केवल इतना सोचना नकारात्मक समाजशास्त्रीय परिकल्पना है। मनुष्य में पशुत्व तो है लेकिन मनुष्य केवल पशु ही नहीं है। भौतिक सुविधाओं के कारण धर्म परिवर्तन करना गहरी सामाजिक भूल है और अभिशाप भी। ईसाइयत के मूल्यों में समानता और बंधुत्व की समाजशास्त्र सम्मत परिकल्पनाएं, व्यवस्थाएं और व्यवहारगत स्थितियां हैं। उनका समानांतर हिन्दू व्यवस्थाओं में नहीं है। दलित आदिवासी को सामाजिक धार्मिक और निजी आयोजनों में साथ बैठने, भोजन करने और बराबरी के आधार पर सम्मान पाने के अवसर देने की परंपरा हिन्दू धर्म में कहां है? संघ परिवार इस बात की कभी ताईद नहीं करेगा कि वह अपने निजी सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक आयोजनों में दलितों और आदिवासियों की सम्मानजनक बराबरी की भागीदारी प्रत्यक्ष कर दिखा दे। जातीय व्यवस्था के चलते वैवाहिक अवरोधों, शिक्षा के अवसरों, चिकित्सा सुविधाओं और अन्य सामाजिक स्थितियों में लगातार वही ढाक के तीन पात हैं।
अंबेडकर ने राजनीति में धर्म के प्रयोग के कारण पाकिस्तान बनने और सांप्रदायिक दंगों की विभीषिका को आंखों से देखा था और गांधी की हत्या को भी। अंबेडकर वाकिफ थे कि संप्रदायवाद धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक सहिष्णुता को कतई बर्दाश्त नहीं करता। जबकि ये दोनों तत्व आधुनिक राष्ट्र राज्य की परिकल्पना के आधार स्तंभ हैं। इन्हें अंततः संविधान के जीवंत उद्देश्यों के रूप में शामिल किया गया। उन्होंने यह भी देखा कि धर्म सामाजिक नीतिशास्त्र के रूप में आधुनिक मूल्यों की हेठी करता है। दलित और स्त्रियां मिलाकर देश की आधी से ज्यादा आबादी हैं। इन दोनों वर्गों को मोटे तौर पर लगातार घरेलू और सामाजिक स्तर पर जाति प्रथा के सहित या रहित शोषित किया जाता रहा है। स्वतंत्र और संविधानसम्मत भारत में पीड़ित वर्गों को सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर समुन्नत होने का कम ही अवसर मिलने की संभावना अंबेडकर ने देखी थी, जब सामाजिक दुराग्रहों का उनके जीवन से लोप कर दिया जाए। यह मिथकीय विचार या यूटोपिया बनकर नहीं रह जाए। इसलिए अंबेडकर उन्हें अनंत यात्रा के पथिक के रूप में ऐसे पड़ाव पर खड़ा कर देना चाहते थे जो कम से कम उस राह का प्रस्थान बिन्दु तो हो। ऐसा करना जातिग्रस्त हिन्दू समाज की व्यवस्थाओं के तहत संभव नहीं था। एक नई संविधानिक व्यवस्था के मानक सिद्धान्तों की स्वप्नषीलता को साकार करने में बौद्ध धर्म की तात्विक घोषणाओं की वृहत्तर भूमिका से अंबेडकर ने तत्कालीन राजनीति को इसीलिए सम्पृक्त किया था। एक अनीष्वरवादी आध्यात्मिक दर्शन ही अम्बेडकर के अनुसार संविधान का पाथेय हो सकता है। उनका यह उत्तर-आधुनिक सोच अब तक बहस के केन्द्र में नहीं आया है।