विचार / लेख
-मनोरमा सिंह
विनोद दुआ की मौत पर शोक मैंने भी जताया, वो मानवीयता है, और बतौर पत्रकार उनके योगदान को नजऱअंदाज़ नहीं किया जा सकता, लेकिन ये भी नजऱअंदाज नहीं किया जा सकता है कि विनोद दुआ पर कार्यस्थल पर यौन उत्पीडऩ का आरोप लगाया गया था। और उन्होंने ‘द वायर’ में एंटी सेक्सुअल हैरेसमेंट कमेटी की प्रक्रिया का पालन नहीं किया था। कल से अपनी टाइम लाइन पर अलग-अलग पोस्ट्स में उषा अरवामुधन सक्सेना, निष्ठा जैन की पोस्ट का जिक्र पढ़ा और मुझे भी उन पर निष्ठा जैन द्वारा लगाए गए #मीटू आरोपों का स्मरण हुआ, और उस दौरान अपनी लिखी एक पोस्ट का भी ध्यान आया जो तब उनके और उनके नेतृत्व में काम रहे लोगों के निहायत गैर पेशेवर व्यवहार से जुड़ा था। बेशक हम एक साथ #मीटू के तहत अपने उत्पीडऩ की कहानियों को सार्वजानिक कहने वाली लड़कियों का समर्थन और #मीटू पर हंसने वाले का ये गुनाह नजरअंदाज नहीं कर सकते। उनकी पत्रकारिता का सम्मान होते हुए भी, मोदी सरकार या सत्ता विरोध की पत्रकारिता को स्त्रियों के शोषण, उत्पीडऩ और उनकी उत्पीडऩ की कहानियों का मखौल उड़ाने या ख़ारिज करने की छूट नहीं दी जा सकती, कभी भी नहीं !
मैं साथ में अपनी पुरानी पोस्ट भी शेयर कर रही हूँ।
पुरानी पोस्ट
14 अक्टूबर, 2018
मीटू कहानी से इतर बतौर संपादक कैंडिडेट को इंटरव्यू पर बुलाने का तरीका इनके छोटे से मीडिया हाउस का कितना अनप्रोफेशनल रहा है ये मेरा भी अनुभव रहा है, बात उन दिनों की है जब कोई सरिता जोशी और टीवी एंकर संदीप चौधरी इनकी टीम का हिस्सा थे संभवत: साल 2001-02 की बात है, सरिता जोशी नौकरी चाहने वाले उम्मीदवारों के फोन रिसीव करती थीं और फोन पर उन्हीं को फॉलो करना होता था, रिज़्यूमे मेल करने के बाद एक दिन मेरी विनोद दुआ से बात हुई , शायद तब वो राष्ट्रीय सहारा के लिए कार्यक्रम करते थे, उन्होंने कहा ठीक है आप रिज़्यूमे लेकर आ जाइये, वेन्यू नोएडा का कोई शिप्रा होटल था, मैंने अजय को मुझे वहां छोड़ देने का रिक्वेस्ट किया वो आ गया, हम दोनों गए रिसेप्शन पर पूछा तो संदीप चौधरी के रूम में जाने को कहा गया, माथा ठनका ये क्या है रिसेप्शन या लॉबी के बज़ाय रूम में? मेरी और अजय की वहीं थोड़ी बहस हुई वो हमेशा से इस तरह के गैर पेशेवराना तौर तरीकों को गंभीरता से लेता रहा है, खैर हम दोनों गए, संदीप चौधरी अपने कमरे में बेड पर ही बैठे थे, हमें बैठने का इशारा किया, हमारे चेहरे की ओर देखने और अजय मेरे दोस्त का तब वो माइक्रोमैक्स में काम करता था, परिचय जानने के बाद झेंपे थोड़ा, मैंने बताया मुझे इंटरव्यू के लिए बुलाया गया है, मुझे नहीं मालूम उन्हें उम्मीदवार के बारे में कितना पता था, मैंने फाइल से रिज़्यूमे का हार्ड कॉपी निकाल कर दिया, उसने सरसरी तौर पर देखा, ना तो इंटरव्यू लेने की उसकी तैयारी थी ना ही वो उस फ्रेम ऑफ माइंड में दिखा, और मेरा मन ये देखकर ही खराब हो चुका था, मैंने भी उसे रिज़्यूमे थमाया और निकल आयी वहां से दो लोगों के वक्त की बरबादी केवल रिज़्यूमे देने के लिए वो भी जिसे कई बार पहले मेल कर चुकी थीं। हद है!! खैर, इसके बाद मैंने कभी दोबारा उनके मीडिया हाउस को कॉल नहीं किया, ये अनुभव हैं जिसके आधार पर मैं बार-बार रूल बुक से चलने की बात करती हूँ, ज्यादातर मीडिया हाउस का एटीट्यूड रहा है उम्मीदवार के समय की कोई कीमत नहीं होती !