संपादकीय
भारत के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना अपने सामाजिक सरोकार को लेकर कई बार हैरान करते हैं कि क्या उन्हें रिटायरमेंट में किसी और पुनर्वास की कोई चाह नहीं है? उनकी बातें सत्ता को बगावती तेवरों की बातें लग सकती हैं। अभी उन्होंने दिल्ली नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी के एक समारोह में छात्रों के बीच कहा कि पिछले कुछ दशकों से छात्र बिरादरी से कोई बड़े नेता निकलकर नहीं आए हैं, और यह एक ऐसे देश का हाल है जहां छात्र, देश की आजादी के आंदोलन का चेहरा थे। उन्होंने कहा कि आर्थिक उदारीकरण के बाद ऐसा लगता है कि सामाजिक मुद्दों को लेकर उनमें छात्रों की भागीदारी घटती चली गई है। मुख्य न्यायाधीश ने निजी हॉस्टल-स्कूलों और कोचिंग सेंटरों में भेज दिए जाने वाले छात्रों के बारे में कहा कि वे कटी हुई ऐसी जिंदगी जीते हैं जिन्हें उनके आसपास की सामाजिक हकीकत का भी एहसास नहीं रहता, उनके भीतर की प्रतिभा भी बस आगे करियर बनाने में झोंक दी जाती है। उन्होंने कहा कि आज चारों तरफ ऐसे पेशेवर कोर्स की चाह रह गई है जिनसे ऊंची तनख्वाह वाले काम मिल सकें, दूसरी तरफ इंसानों से जुड़े हुए विषयों और कुदरत से जुड़े हुए विषयों की पढ़ाई पूरी तरह उपेक्षित होती जा रही है। जस्टिस रमना ने कहा कि प्रोफेशनल कोर्स वाले विश्वविद्यालयों में जाने के बाद बच्चे वहां पर क्लास रूम की पढ़ाई में रह जाते हैं, और पता नहीं ऐसे में सामाजिक सरोकारों से उनके कट जाने की तोहमत किसे दी जाए। उन्होंने कहा कि आज हिंदुस्तान की आबादी का एक चौथाई हिस्सा बुनियादी तालीम पाने से भी दूर है और विश्वविद्यालयों में पढऩे की उम्र वाले कुल 27 फीसदी लोग ही यूनिवर्सिटी की पढ़ाई कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि किसी भी लोकतांत्रिक समाज में पढ़े-लिखे लोग बड़ी पूंजी होते हैं, और हिंदुस्तान में उसी की कमी दिखाई पड़ती है। उन्होंने छात्र-छात्राओं की समाज में भूमिका के बारे में एक बड़ी बात कही कि छात्र ही आजादी, इंसाफ, समानता, नैतिकता, इन सबके रखवाले होते हैं, और जब यह पीढ़ी, इस उम्र के लोग, सामाजिक और राजनीतिक रूप से चेतनासंपन्न होते हैं, तब समाज और देश में शिक्षा, भोजन, कपड़े, इलाज, और रहने जैसे बुनियादी मुद्दे राष्ट्रीय बहस के बीच में बने रहते हैं। पढ़े-लिखे नौजवान सामाजिक हकीकत से कटे नहीं रह सकते हैं।
जस्टिस रमना आए दिन कभी अदालत के फैसले में, कभी सुनवाई के दौरान अपनी टिप्पणियों से, और कभी बाहर किसी जगह पर भाषण देते हुए सामाजिक इंसाफ की बहुत सारी बातें कहते हैं। बहुत समय बाद भारत का कोई प्रमुख न्यायाधीश लीक से हटकर और अपनी न्यूनतम जिम्मेदारी से बाहर जाकर इस तरह की बातें कहते हुए सुनाई पड़ रहा है। हम उनकी इन बातों के एक छोटे से हिस्से से कुछ असहमत हैं, लेकिन उनकी पूरी सोच के साथ हैं, और यह भी समझने की जरूरत है कि आज हिंदुस्तान में ऐसा हो क्यों रहा है। हम उनकी यह बात ठीक नहीं मानते कि हिंदुस्तान में हाल के दशकों में कोई बड़ा छात्र नेता उभरकर सामने नहीं आया। ताजा इतिहास गवाह है कि जिस वक्त देश की सरकार और दिल्ली की पुलिस जेएनयू के छात्र-छात्राओं पर तरह-तरह की झूठी और साजिशन तोहमत लगाकर उनके खिलाफ फर्जी मामले दर्ज कर रही थी, उस वक्त भी जेएनयू में कन्हैया कुमार जैसे छात्र नेता सामने आए और उन्होंने देश को हिलाकर रख दिया। कन्हैया कुमार अभी कुछ अरसा पहले तक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में थे और उसी पार्टी की छात्र शाखा में वे राजनीति कर रहे थे। उन्होंने बार-बार खुलकर इस बात पर जोर दिया था कि विश्वविद्यालयों के छात्र राजनीति में हिस्सा लेंगे ही। और जो लोग विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राओं को राजनीति से परे रखने की बात करते हैं, उनको यह भी समझना चाहिए की 18 बरस की उम्र में जब वोट देने का अधिकार दिया गया है तो छात्र राजनीति से परे कैसे रहेंगे? और फिर विश्वविद्यालयों में न सिर्फ वामपंथी दलों के छात्र संगठन हैं, बल्कि कांग्रेस और भाजपा इन दोनों का छात्र संगठनों का लंबा इतिहास रहा है. इसलिए वहां जेएनयू की मिसाल दे-देकर छात्रों को राजनीति से दूर रखने की बात करना एक बड़ी बेवकूफी की बात रही है, और वह मोटे तौर पर वामपंथी रुझान के छात्र-छात्राओं को कुचलने की सोच रही है। लेकिन ऐसी तमाम साजिशों के पीछे से उबरकर जेएनयू के और जामिया मिलिया के छात्र नेता जिस तरह से पिछले वर्षों में सामने आए हैं, हमारा ख्याल है कि जस्टिस रमना को इन्हें अनदेखा नहीं करना था। कन्हैया कुमार ने जेल से रिहा होने के बाद जेएनयू के कैंपस में करीब 1 घंटे का जो भाषण दिया था और जो देश के कई चैनलों पर लाइव दिखाया गया था उसने लोगों को यह बतलाया था कि छात्र नेता भी कितने समझदार और गंभीर हो सकते हैं, और बाद में भी कन्हैया कुमार ने लगातार एक परिपच् नेता के रूप में अपने आपको पेश किया। उनकी निजी राजनीति सीपीआई से निकलकर कांग्रेस तक आ गई लेकिन उससे हमारी आज की बात का कोई लेना-देना नहीं है। ऐसे और भी छात्र नेता वहां पर रहे, लेकिन सवाल यह है कि जब देश या प्रदेशों की सरकारें छात्र आंदोलनों को कुचलने में लगी रहें, और जब उनके खिलाफ झूठे जुर्म दर्ज किए जाएं, उनके खिलाफ देशद्रोह के नारों वाले झूठे वीडियो गढ़े जाएं, जिन्हें अदालतें ही फर्जी साबित करें, तो फिर ऐसी सरकारों के खिलाफ छात्र आंदोलन कितने चल सकते हैं? ऐसा भी नहीं है कि ज्यादती से डरकर कन्हैया कुमार जैसे लोग किसी सत्तारूढ़ दल में चले गए हैं। लेकिन जब जेएनयू जैसे विश्वविद्यालय में कुलपति बनाने से लेकर बाकी तमाम फैसलों तक में सरकार की नीयत साफ दिखती है कि छात्र आंदोलन को किस तरह कुचला जाए, तो फिर वहां से कोई बहुत बड़ा आंदोलन निकलना कुछ मुश्किल भी रहता है. फिर अलग-अलग राज्य में राज्यों में सरकारों ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खिलाफ जिस तरह का रुख दिखाया है, उससे भी नौजवान पीढ़ी और छात्रों का हौसला पस्त हुआ है।
लेकिन जस्टिस रमना की इस बात से हम पूरी तरह सहमत हैं कि जिस देश में छात्रों की पीढ़ी जागरूक रहेगी और सामाजिक-राजनीतिक चेतना संपन्न रहेगी, वहां पर जमीनी हकीकत भी बेहतर होगी। देश के बुनियादी मुद्दों से नौजवान पीढ़ी को जुड़े रहना चाहिए और उसे अपने-आपको कभी हाशिए पर नहीं जाने देना चाहिए। जब नौजवान कॉलेज और विश्वविद्यालय में रहते हैं उस वक्त भी कुछ खतरे उठाने का हौसला भी रखते हैं। लेकिन आज आर्थिक उदारीकरण के बाद जिस तरह से हिंदुस्तान में उच्च शिक्षा के नगदीकरण का सिलसिला चल रहा है उसमें मां-बाप और नौजवान पीढ़ी को ऊंची तालीम पाने के लिए पूंजी निवेश करना पड़ता है, और फिर उस पूंजी निवेश की वापिसी के लिए ऊंची तनख्वाह, ऊंची कमाई वाले काम करने पड़ते हैं, और इन सबका नतीजा यह रहता है कि वे सामाजिक सरोकार से कटते चले जाते हैं। आज देश में अधिकतर छात्रों का हाल यह है कि वे महंगे मोबाइल और महंगी मोबाइक से परे कम ही सोच पाते हैं। और डॉक्टरी, इंजीनियरिंग, कानून या मैनेजमेंट जैसी पढ़ाई करने वाले लोग तो अपने-आपको जमीन से काट ही लेते हैं। जेएनयू या जामिया जैसे संस्थानों के, या सामाजिक विज्ञान के विषय पढऩे वाले दूसरे छात्र-छात्राओं के बीच जागरूकता का एक बेहतर स्तर दिखता है और वहीं से कुछ उम्मीद भी की जा सकती है।
जस्टिस रमना के पूरे दीक्षांत-भाषण को पढऩा या सुनना चाहिए और छात्रों के बीच इसे लेकर एक चर्चा भी छिडऩी चाहिए। नौजवान पीढ़ी अगर भारत के 2-4 राजनीतिक दलों से जुड़े हुए छात्र संगठनों की सोच के कैदी होकर रह जाएगी, तो भी उससे छात्र आंदोलनों का नुकसान होगा। होना यह चाहिए कि छात्रों के बीच से अधिक असरदार आंदोलन शुरू हों, और इस बात को खारिज कर दिया जाए कि छात्रों का काम केवल पढ़ाई करना है, राजनीति करना नहीं है। जिस दिन से लोगों को वोट डालने का हक मिलता है उस दिन से ही उन्हें राजनीति करने का हक भी मिल जाता है, और आज देश के तमाम प्रमुख राजनीतिक दलों के छात्र संगठन इसीलिए हैं कि वे छात्र-छात्राओं के राजनीति में आने की उम्मीद करते हैं, उसे बढ़ावा देते हैं।
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