संपादकीय
केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड यानी सीबीएसई ने अभी दसवीं के अंग्रेजी के पर्चे में अपनी एक किताब के कुछ पैराग्राफ दिए और उन पर सवाल किए। इस मामले को लोकसभा में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने उठाया और इसके हिस्से पढ़ते हुए उन्होंने कहा कि यह महिलाओं के लिए बहुत ही अपमानजनक बात है कि एक केंद्रीय बोर्ड इस तरह के सवाल कर रहा है। उन्होंने इसके हिस्से पढक़र सुनाए जिसमें कहा गया है कि महिलाओं को स्वतंत्रता मिलना कई तरह की सामाजिक और पारिवारिक समस्याओं का मुख्य कारण है। इसी पर्चे में यह बात भी लिखी गई है कि पत्नियां अपने पतियों की बात नहीं सुनती हैं जिसकी वजह से बच्चे और नौकर अनुशासनहीन होते हैं। सोनिया गांधी ने संसद में इस पर कड़ी आपत्ति की और संसद के बाहर प्रियंका गांधी ने इस प्रश्न पत्र की कॉपी ट्विटर पर पोस्ट करते हुए यह लिखा कि यह बात अविश्वसनीय है कि हम अपने बच्चों को इस तरह की चीजें पढ़ा रहे हैं, भाजपा सरकार महिलाओं पर इस तरह के दकियानूसी ख्याल रखती है और इसी वजह से सीबीएसई में ऐसी बातें पढ़ाई जा रही है। इस बात पर कांग्रेस से परे के लोगों ने भी सोशल मीडिया पर खूब जमकर लिखा। संसद में भी बहुत से लोगों ने सोनिया गांधी के उठाए गए मुद्दे का साथ दिया और सीबीएसई की जमकर आलोचना की गई। आखिर में सीबीएसई को अपने पर्चे से इस सवाल को हटाना पड़ा और कहना पड़ा कि सभी परीक्षार्थियों को इस सवाल की जगह पर पूरे नंबर दिए जाएंगे।
हिंदुस्तान में महिलाओं का अपमान खत्म होने का नाम ही नहीं लेता। लोगों के मिजाज में यह बात सदियों से बैठी हुई है और रीति-रिवाज, कहावत-मुहावरे, हर किस्म की बातों में महिलाओं को पांव की जूती की तरह मानकर चलना इस 21वीं सदी में भी जारी है। अभी दो दिन पहले मैथिलीशरण गुप्त की एक कविता एक महिला ने फेसबुक पर पोस्ट की जिसकी पहली ही लाइन यह है- ‘नर हो न निराश करो मन को, कुछ काम करो कुछ काम करो, जग में रहकर कुछ नाम करो, कुछ तो उपयुक्त करो तन को, नर हो न निराश करो मन को’। मतलब यह कि अभी पिछली ही सदी के मैथिलीशरण गुप्त को भी केवल नर ही दिख रहे थे, उनके पास नारियों को प्रेरणा देने के लिए कुछ नहीं था। मानव प्रेरणा पाने के हकदार सिर्फ नर ही रहते हैं। अखबारों को देखें तो उनकी सुर्खियों में कहीं पर महिला का नरकंकाल मिल जाता है, तो कहीं पर नरसंहार में महिला मारी जाती है। यानी लाशों और कंकालों में भी एक नारी को जगह नहीं मिल पाती है। इस बात को पहले भी हम यहां पर लिख चुके हैं कि शेर आदमखोर होता है, मानो वह सिर्फ आदमियों को खाएगा और औरतों को नहीं छुएगा। लेकिन यह दिक्कत महज उर्दू की नहीं है, यह दिक्कत हिंदी की भी है, जहां पर शेर नरभक्षी होता है, और कभी भी नारीभक्षी नहीं होता। और यह दिक्कत अंग्रेजों की भी है जहां पर एक टाइगर मैनईटर होता है और वह कभी भी वह वुमनईटर नहीं होता। काम-काज की दुनिया में मैनपावर होता है, कभी भी वूमेनपावर नहीं होता। गांधी का लिखा पढ़ें या पिछली सदी के बहुत से दूसरे दार्शनिकों का, हिंदुस्तान के जे कृष्णमूर्ति की बातों को पढ़ें, तो उनमें भी आदमी का जिक्र ही तमाम इंसानों का जिक्र मान लिया जाता है, मानो औरत तो उस आदमी के भीतर समाहित है ही। भारत के कानून की भाषा को देखें तो पूरे कानून में सिर्फ आदमी के हिसाब से लिखा गया है सिर्फ ‘ही’ लिखा गया है कहीं भी ‘शी’ की गुंजाइश नहीं है। नतीजा यह है कि औरत को गिना ही नहीं जाता। बच्चों के जन्म का सर्टिफिकेट बनाना हो या स्कूल का दाखिला हो या उसकी नौकरी हो, हर जगह बाप का नाम ही पूछा जाता है। मां का नाम दर्ज करना अब 21वीं सदी में आकर तमाम कानूनी लड़ाई लडऩे के बाद रियायत के तौर पर मर्जी पर छोड़ा गया है, न कि किसी कानूनी जरूरत के तहत मां के नाम का जिक्र जरूरी है।
देश का सबसे बड़ा केंद्रीय स्कूली बोर्ड अगर इस तरह की घटिया बातों को बढ़ा रहा है और उन्हें इम्तिहान में पूछने का भी हौसला रखता है, तो यह बात जाहिर है कि देश की राजनीति की हवा और फिजा उसी तरह की है। उत्तर प्रदेश के योगी आदित्यनाथ से लेकर हरियाणा के मनोहर लाल तक कितने ही ऐसे मुख्यमंत्री हैं जो कि महिलाओं के बारे में एक से बढक़र एक घटिया बातें बोलते आए हैं, और कभी उनकी पार्टी ने उन बातों का विरोध नहीं किया। और तो और, पिछले वर्षों में कई पार्टियों और गठबंधनों ने केंद्र सरकार की अगुवाई की है, लेकिन किसी ने भी महिला आरक्षण विधेयक को पास करवाने की कोई फिक्र नहीं की। अब तो ऐसा दिखता है कि इसकी मांग भी कोई राजनीतिक दल नहीं करता। आज जब चुनाव सामने खड़ा हुआ है तो हर पार्टी अलग अलग राज्य में अलग-अलग किस्म के वायदे महिलाओं के लिए कर रही हैं। उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी ने 40 फीसदी उम्मीदवार महिलाएं रखने की घोषणा की है। पंजाब में कांग्रेस के मुख्यमंत्री ने महिलाओं के लिए कई किस्म की मदद की घोषणा की है। उत्तराखंड में केजरीवाल ने आज ही कहा है कि उनकी पार्टी की सरकार बनी तो हर महिला को हजार रुपया महीना दिया जाएगा। लेकिन गोवा की महिला के लिए अधिक फायदे की घोषणा ममता बनर्जी की टीएमसी ने की है जिसमें वहां कहां है कि हर महिला को पांच हजार रूपया हर महीने दिया जाएगा। लेकिन तोहफे या खैरात की शक्ल में ऐसी नगदी देने से परे कोई पार्टी आज संसद में यह मांग भी नहीं कर रही कि महिला आरक्षण बिल पास किया जाए। जो कांग्रेस पार्टी उत्तर प्रदेश में 40 फ़ीसदी सीटें महिलाओं को दे रही है वह पार्टी भी संसद में एक तिहाई सीटें महिलाओं को देने के विधेयक का नाम भी लेना बंद कर चुकी है। सरकारों में अगर देखें तो जहां-जहां पर नौकरियों में महिलाओं को उम्र की छूट है वहां पर जिस टेबिल पर फाइल जाती है, वहां बैठे हुए मर्द उसका विरोध करना शुरू कर देते हैं, उस फाइल को खोलते ही गालियां बकना शुरू कर देते हैं और सरकार में किसी महिला को उसका हक पाने के लिए बरसों तक लडऩा पड़ता है।
यह पूरा सिलसिला देश के कड़े कानून के बावजूद जमीन पर महिला की फजीहत का सुबूत है। कानून चाहे जो कहता हो, महिला को आपसी रंजिश निपटाने के लिए बलात्कार करने का एक सामान मान लिया जाता है कि किसी परिवार की महिला से बलात्कार करके उस परिवार से दुश्मनी का हिसाब चुकता किया जा सकता है। देशभर में जगह-जगह ऐसा सुनाई पड़ता है कि पुरानी दुश्मनी के चलते किसी महिला से बलात्कार किया गया और यह मान लिया गया कि दुश्मन के परिवार की इज्जत खत्म हो गई। हम पहले भी कई बार इस बात को लिख चुके हैं कि इज्जत तो बलात्कार और बलात्कारी के परिवार की खत्म होनी चाहिए जिसने एक जुर्म किया है, जबकि हिंदुस्तानी सोच बलात्कार की शिकार लडक़ी की इज्जत खत्म होने की बात सोचती है। सीबीएसई में जिन लोगों ने ऐसी बातें पढ़ाना तय किया था, उनके खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए, अगर वे सरकारी नौकरी में हैं तो उनकी तनख्वाह कटनी चाहिए, उनका प्रमोशन खत्म होना चाहिए, और उन्हें सस्पेंड करना चाहिए। महिलाओं के खिलाफ पूर्वाग्रह और अपमान के ऐसे पुख्ता सुबूत कम मिलते हैं, इसलिए सरकार को इसे एक मिसाल मानकर लोगों के सामने कड़ी कार्यवाही की एक मिसाल पेश करनी चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)