संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : मीडिया के आत्मानुशासन के लिए मानहानि मुकदमे जरूरी
08-Jan-2022 5:30 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : मीडिया के आत्मानुशासन के लिए मानहानि मुकदमे जरूरी

कुछ वक्त पहले राहुल गांधी ने मोदी के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप के सुबूत होने की बात तो उछाली, लेकिन उस बारे में कुछ कहा नहीं। तब सोशल मीडिया और इंटरनेट पर उनके दुबक जाने के तरह-तरह के विश्लेषण किए जा रहे हैं। इनमें से एक बात जो उभरकर आती है, वह यह है कि प्रधानमंत्री या भाजपा की तरफ से मानहानि का कोई मुकदमा होने पर वह राहुल गांधी को एक बार फिर अदालत तक घसीट सकता है, और वे अभी आरएसएस के बारे में कही अपनी एक बात को लेकर वैसे भी अदालती कटघरे में खड़े हुए हैं कि गांधी की हत्या संघ के लोगों ने की थी। लोगों का ऐसा मानना है कि वे संसद के भीतर तो यह बात कहना चाहते थे, क्योंकि संसद में कही बात पर कोई अदालती कार्रवाई नहीं हो सकती। लेकिन लिखने का मुद्दा राहुल गांधी न होकर मानहानि का कानून और मानहानि के मुकदमे हैं।

देश में अलग-अलग ताकत रखने वाले लोग मानहानि के कानून का अलग-अलग तरीके से इस्तेमाल करते हैं। मोटे तौर पर कोई भी बयान मीडिया के मार्फत ही सार्वजनिक जीवन में आते हैं, और ऐसे बयान देने वाले लोगों के साथ-साथ अखबार या टीवी पर भी मुकदमा चलाया जाता है। ये मुकदमे दो तरीके के रहते हैं, एक में तो झूठी बदनामी करने के आरोप में बयान देने वाले, या रिपोर्ट छापने वाले को सजा की मांग की जाती है, और दूसरे मामले रहते हैं जिनमें मानहानि के लिए मुआवजे की मांग की जाती है। देश में सौ-सौ करोड़ रूपयों का मुआवजा मांगते हुए मानहानि के मुकदमे हर बरस दो-चार तो सामने आते ही हैं, और छत्तीसगढ़ में भी नेता, अफसर ऐसे कई मुकदमे दायर करते हैं, और उनमें से अधिकतर मामले किसी समझौते के साथ खत्म हो जाते हैं।

हम यहां मोटे तौर पर मीडिया के बारे में लिखना चाहते हैं, जिसका एक हिस्सा हमेशा ही ब्लैकमेलर की तरह बदनाम रहता है, और मीडिया में बुरे लोग उसी तरह रहते ही हैं जिस तरह सरकार या राजनीति में रहते हैं, कारोबार या धर्म-आध्यात्म में रहते हैं। ऐसे में जब कोई ताकतवर कमर कस लेते हैं कि झूठी खबर या रिपोर्ट छापने वाले या टीवी पर दिखाने वाले को अदालत से सजा दिलवाना ही है, तो भारत के कानून मीडिया का साथ अधिक दूर तक नहीं दे पाते। और ऐसा भी नहीं है कि किसी रिपोर्ट के सच होने पर कानून मीडिया का साथ देता हो। कानून केवल उसी सच का साथ दे पाता है जो अदालत के कटघरे में अपने पैरों पर खड़ा होकर अपने होने को साबित कर पाता है। जो सच अदालत में साबित नहीं हो पाता, वह सबको पता होने पर भी किसी काम का नहीं रहता। अदालत किसी सच को नहीं मान लेती, वह उसी सच को मानती है जिसे कि साबित किया जा सकता है। ऐसे में मीडिया के जो लोग किसी सच को लेकर इस धोखे में रह जाते हैं कि उसे दिखाकर या छापकर लोकतंत्र में बचा जा सकता है, वे लोग फंस जाते हैं। फिर मीडिया के कुछ लोग सोचा-समझा झूठ छापकर अपने आपको बेचते हैं, और सचमुच ही किसी की मानहानि में लग जाते हैं। ऐसे लोग भी तभी तक शान से घूम सकते हैं जब तक कोई उन्हें अदालत में चुनौती न दें।

दरअसल भारत में मीडिया की आदतें इसलिए बिगड़ी हुई हैं कि सार्वजनिक जीवन के लोग मानहानि का मुकदमा दायर करके अदालती कटघरे में खड़े होकर सौ किस्म के और सवालों के जवाब देना नहीं चाहते। अदालत के बाहर की बातों पर तो वे अदालत तक आ जाते हैं, लेकिन जब अदालत में मीडिया के वकील उनसे सौ तरह के और दूसरे सवाल करते हैं, तो उनके जवाब देने का हौसला कम ही लोगों में रहता है। ऐसे में कानून रहते हुए भी उसकी तरफ से बेफिक्र मीडिया बदनीयत भी हो जाता है, और लापरवाह भी। कभी वह सोच-समझकर किसी के खिलाफ झूठी बातें छापने-दिखाने लगता है, तो कभी वह लापरवाही से यह सोचकर यह काम करने लगता है कि उसके खिलाफ भला कोई क्या अदालत जाएगा।

हमारा यह मानना है कि खुद मीडिया के भले के लिए मानहानि के मुकदमे होने चाहिए, और जब उनमें सचमुच कुसूरवार लोगों को सजा मिलेगी, तो ही बाकी मीडिया के लोगों को नसीहत मिलेगी। आज कुछ कुसूरवार बचे रहते हैं, तो बाकी लोग चाहकर या बिना चाहे ही कुसूरवार बनते रहते हैं। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए, और लोकतंत्र में मीडिया की आजादी जितनी जरूरी है, उतना ही जरूरी है मीडिया का जिम्मेदार होना। किसी भी सभ्य समाज में जिम्मेदारी के बिना कोई अधिकार नहीं दिए जा सकते।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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