संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : हितों के टकराव के खिलाफ एक जनहित याचिका की जरूरत...
10-Jan-2022 2:41 PM
 ‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  हितों के टकराव के खिलाफ एक जनहित याचिका की जरूरत...

पिछले दो दिनों में देश के दो बड़े चर्चित विभागों के अफसर रहे हुए अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों ने इस्तीफे दिए और उनके चुनाव लडऩे की चर्चा है। यह पहला मौका नहीं है, इसके पहले भी ऐसे बहुत से मामले हुए हैं और लोगों को याद होगा कि छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री अजीत जोगी जब इंदौर के कलेक्टर थे उस वक्त उन्हें राज्यसभा भेजने के लिए राजीव गांधी और अर्जुन सिंह ने उनका नाम छांटा था और उन्हें रातों-रात आईएएस से इस्तीफा दिलवाकर राज्यसभा भेजा गया था। जनरल वीके सिंह जैसे कुछ रिटायर्ड फौजी भी हैं जो तुरंत ही राजनीति में आए और चुनाव लडक़र केंद्रीय मंत्री तक बने। अब ऐसा समय आ गया दिखता है कि अखिल भारतीय सेवाओं के अफसरों और देश की बड़ी अदालतों के बड़े जजों के बारे में यह फैसला होना चाहिए कि वे रिटायर होने के बाद राजनीति और चुनाव में क्या-क्या कर सकते हैं। क्योंकि वे ऐसे ऊंचे पदों पर रहते हैं जहां कि वे सरकार या सत्तारूढ़ पार्टी की पसंद या मर्जी के बहुत सारे काम कर सकते हैं, और आमतौर पर होता यही है कि सत्ता को खुश रखने वाले रिटायर होते ही सत्तारूढ़ दल में चले जाते हैं, और वहां से चुनाव लडक़र कई बार मंत्री भी बन जाते हैं। दूसरी तरफ सत्ता से बहुत ज्यादा नाखुश रहने वाले कुछ अफसर भी सत्ता की प्रताडऩा झेलते हुए थक चुके रहते हैं और वे भी इस्तीफा देकर राजनीति में आते हैं और सत्तारूढ़ पार्टी के खिलाफ चुनाव लड़ते हैं। सुप्रीम कोर्ट के कुछ रिटायर्ड जजों ने सरकार को पसंद आने वाले बहुत से चर्चित फैसले दिए और उसके तुरंत बाद वे किसी राज्य में गवर्नर बन कर चले गए, तो उनमें से कोई राज्यसभा में चले गया। यह पूरा सिलसिला सार्वजनिक जीवन में एक नैतिक सिद्धांत के खिलाफ जाता है जिसे हितों का टकराव कहते हैं। जब किसी एक कुर्सी पर बैठे हुए आप ऐसे काम करें जिससे कि आपकी अगली कुर्सी तय होने लगे तो यह साफ-साफ हितों का टकराव रहता है, यह बात बंद होनी चाहिए।

हमारे पाठकों को याद होगा कि हम इसी जगह पर कुछ दूसरी मिसालों को लेकर भी हितों के टकराव की बात लिख चुके हैं। छत्तीसगढ़ सहित बहुत से राज्य ऐसे हैं जहां पर हाईकोर्ट से जज रिटायर होते हैं, और रिटायर होते ही इसी राज्य में वे रिटायर्ड जजों के लिए उपयुक्त मानी जाने वाली कई संवैधानिक कुर्सियों में से किसी पर काबिज हो जाते हैं, और अगले 5 वर्ष के लिए तनख्वाह और सहूलियतें पाने लगते हैं। यह सिलसिला भी पूरी तरह से गलत है। अगर कुछ संवैधानिक कुर्सियां ऐसी हैं जिन पर किसी रिटायर्ड जज को रखना ही बेहतर माना जाता है तो उसके लिए भी होना यह चाहिए कि प्रदेश के बाहर ही काम करने वाले ऐसे जजों में से नाम छांटे जाएं जिन्होंने कभी उस राज्य में काम न किया हो और उस राज्य की सरकार को उपकृत करने का कोई मौका भी उनके सामने न आया हो। आज जज कुर्सी पर बैठकर सरकार को उपकृत करें और कल उसके कुर्सी से हटते ही सरकार उन्हें अगली कुर्सी देकर उपकृत करे, यह सिलसिला हितों के टकराव का बहुत ही अश्लील और हिंसक उदाहरण है। यह सिलसिला पूरी तरह से खत्म होना चाहिए।

समाज के जो प्रमुख कार्यकर्ता जनहित याचिका लेकर अदालत जाते हैं उनमें से किसी को अदालत में यह अपील करनी चाहिए कि राज्य के भीतर ही किसी रिटायर्ड जज या रिटायर्ड अफसर की पुनर्वास नियुक्ति पर पूरी तरह प्रतिबंध लगना चाहिए। पूरे देश में ढाई दर्जन राज्य हैं और वहां से लोगों को छांटा जा सकता है, सिर्फ अपने ही प्रदेश से रिटायर होने वाले लोगों में से नाम छांटने से एक बहुत ही भ्रष्ट परंपरा शुरू होती है। दिक्कत राज्यों से ऊपर जाकर केंद्र सरकार के स्तर पर आएगी जहां पर कि 50 से अधिक कुर्सियां ऐसी बनाई गई हैं, जिन पर हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जजों को ही बिठाया जा सकता है। अब ऐसे में तो वे जज ही छंाटे जाएंगे जिन्होंने सरकार को किसी न किसी तरह उपकृत किया है, या सरकार को नाराज नहीं किया है। यह पूरा सिलसिला लोकतंत्र का एक सबसे ऊंचे दर्जे का सबसे भ्रष्ट सिलसिला हो गया है जहां पर एक गिरोहबंदी की तरह न्यायपालिका, अफसरशाही, और नेता एक दूसरे का ख्याल रखते हैं।

हालांकि यह बात आज जहां से शुरू की है उस पर लौटें, तो रिटायर्ड फौजी अफसरों या अखिल भारतीय सेवाओं के अफसरों पर नौकरी से हटने के बाद अगले कम से कम कुछ बरस के लिए चुनाव लडऩे पर रोक रहनी चाहिए। जिन लोगों को यह लगता है कि ऐसी रोक उनके बुनियादी हक के खिलाफ होगी, उन लोगों को ध्यान में रखते हुए सरकार को सेवा शर्तों में ही यह बात जोडऩी चाहिए कि नौकरी से हटने के कम से कम 3 बरस बाद तक वे कोई चुनाव नहीं लड़ सकते या किसी सदन के सदस्य मनोनीत भी नहीं हो सकते। ऐसा न होने पर सरकार के भीतर निर्वाचित नेताओं और अफसरों में एक अनैतिक गठबंधन खड़ा होते जा रहा है जो देश के लोकतंत्र को भारी नुकसान पहुंचा रहा है। इसलिए अफसर और जज, इनके बारे में बहुत साफ-साफ नीति बननी चाहिए कि न तो इन्हें अपने सेवा के राज्यों में किसी तरह का कोई मनोनयन मिले, और न ही वे रिटायर होने के बाद 3 बरस तक किसी तरह का चुनाव लड़ सकें। यही बात फौज के अफसरों पर भी लागू होनी चाहिए जिसकी वजह यह है कि अगर फौजी अफसर राजनीतिक महत्वाकांक्षा पाल लेंगे तो यह भारतीय लोकतंत्र की बुनियादी व्यवस्था के खिलाफ बात होगी। भारत में फौज को पूरी तरह से गैर राजनीतिक संस्कृति का रखा गया है वरना  हिंदुस्तान ने बगल के पाकिस्तान में इसके नुकसान देखे हैं। अभी जिन अफसरों ने इस्तीफा देकर चुनाव लडऩा तय किया है और जिसकी औपचारिक घोषणा शायद अभी बाकी है, उन्हें तो आज बनने वाले नए नियमों के तहत रोका नहीं जा सकता, लेकिन इसे लेकर एक जनहित याचिका दायर होनी चाहिए, जिसमें जजों के नाम भी शामिल किए जाएं, जिसमें यह भी शामिल किया जाए कि जिन प्रदेशों में वे जज काम कर चुके हैं उन प्रदेशों में वे कोई भी मनोनयन मंजूर नहीं कर सकते। अगर ऐसा नहीं होगा तो सरकार और अदालत के बीच एक बहुत ही भ्रष्ट गठबंधन आम लोगों को तो दिखता ही है, जजों को अपनी ऊंची कुर्सियों से फिर चाहे वह ना दिखता हो।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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