विचार / लेख

हिंदी कैसे बने विश्वभाषा ?
11-Jan-2022 11:42 AM
हिंदी कैसे बने विश्वभाषा ?

बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक

आज 10 जनवरी को विश्व हिंदी दिवस मनाया जाता है। पहली बार यह 1975 में नागपुर में हुआ था। इसका आयोजन श्री अनंत गोपाल शेबड़े और श्री लल्लनप्रसाद व्यास ने किया था। इसका उदघाटन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने किया था। उस समय मैंने ‘नवभारत टाइम्स’ में जो संपादकीय लिखा था, उसका शीर्षक था, ‘हिंदी मेला: आगे क्या?’ इस संपादकीय की बहुत चर्चा हुई थी, क्योंकि न.भा.टा. उस समय देश का सबसे बड़ा अखबार था और मुझे हिंदीयोद्धा के नाम से सारा देश जानने लगा था। मैंने उस संपादकीय में जो प्रश्न उठाए थे, वे आज 46 साल बाद भी देश के सामने जस के तस खड़े हैं। ये सम्मेलन भारत समेत दुनिया के कई देशों में संपन्न हो चुके हैं लेकिन नतीजा वही है। नौ दिन चले और ढाई कोस !

इसके आयोजन पर हर बार करोड़ों रु. खर्च होते हैं। सैकड़ों भारतीय सरकारी अधिकारियों, हिंदी साहित्यकारों, अध्यापकों और पत्रकारों तथा तथाकथित हिंदीकर्मियों की चांदी हो जाती है। जिनके लिए भारत में भी अपने पैसों से पर्यटन करना कठिन होता है, वे मुफ्त में विदेश-यात्राओं का आनंद लेते हैं। मुझे इन सम्मेलनों के निमंत्रण कभी हिंदी और कभी अंग्रेजी में भी आते रहे हैं। मैं 2003 में सूरिनाम में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन में गया, वह भी भारत और सूरिनाम के प्रधानमंत्रियों के व्यक्तिगत आग्रह पर! वहां मैंने मेरे कई साहित्यकार, पत्रकार और सांसद मित्रों के समर्थन से हिंदी को संयुक्तराष्ट्र संघ की भाषा मान्य करवाने का प्रस्ताव पारित करवाया लेकिन आज तक क्या हुआ? कुछ भी नहीं। श्रीमती सुषमा स्वराज जब विदेश मंत्री बनीं तो मैंने उन्हें बार-बार प्रेरित किया। उन्होंने काफी प्रयत्न किया लेकिन संयुक्तराष्ट्र संघ में हिंदी अभी तक मान्य नहीं हुई है। लेकिन वे छह भाषाएं वहां मान्य हैं, जिनके बोलनेवालों की संख्या दुनिया के हिंदीभाषियों से बहुत कम है। चीनी भाषा (मेंडारिन) के बोलनेवालों की संख्या भी विश्व के हिंदीभाषियों के मुकाबले काफी कम है।

यह बात चीन में दर्जनों बार गांव-गांव घूमकर मैंने जानी है। यदि सं.रा. में अरबी, अंग्रेजी, हिस्पानी, रूसी, फ्रांसीसी और चीनी मान्य हो सकती हैं तो हिंदी को तो उनसे भी पहले मान्य होना चाहिए था लेकिन जब हमारी सरकार और नौकरशाही ने भारत में ही हिंदी को नौकरानी बना रखा है तो इसे विश्वमंच पर महारानियों के बीच कौन बिठाएगा? हम महाशक्तियों की तरह सुरक्षा परिषद में घुसने के लिए बेताब हैं लेकिन पहले उनकी भाषाओं के बराबर रुतबा तो हम हासिल करें। यह सराहनीय है कि अटलजी और नरेंद्र मोदी ने सं. रा. में अपने भाषण हिंदी में दिए। 1999 में संयुक्तराष्ट्र में भारतीय प्रतिनिधि के नाते मैं अपना भाषण हिंदी में देना चाहता था लेकिन मुझे मजबूरन अंग्रेजी में बोलना पड़ा, क्योंकि वहां कोई अनुवादक नहीं था। संस्कृत की पुत्री होने और दर्जनों एशियाई भाषाओं के साथ घुलने-मिलने के कारण हिंदी का शब्द-भंडार दुनिया में सबसे बड़ा है। यदि हिंदी संयुक्तराष्ट्र की भाषा बन जाए तो वह दुनिया की सभी भाषाओं को अपने शब्द-भंडार से भर देगी। यदि हिंदी को संयुक्तराष्ट्र संघ में मान्यता मिलेगी तो भारत में से अंग्रेजी की गुलामी भी घटेगी। उसका फायदा यह होगा कि दुनिया के चार-पांच अंग्रेजीभाषी देशों के अलावा सभी देशों के साथ व्यापार और कूटनीति में हमारा सीधा संवाद कायम हो सकेगा।

(नया इंडिया की अनुमति से)

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