संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : ताजा दलबदल को देखते हुए एक नई रोक की जरूरत
12-Jan-2022 5:27 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : ताजा दलबदल को देखते हुए एक नई रोक की जरूरत

सोशल मीडिया पर हिंदी के समकालीन मुद्दों पर टिप्पणी करने वाले एक प्रमुख लेखक ने कल ही लिखा है कि यूपी में भाजपा के विधायक समाजवादी पार्टी में जा रहे हैं, गोवा में भाजपा के विधायक कांग्रेस में जा रहे हैं, उत्तराखंड में भाजपा से लोग कांग्रेस में जा रहे हैं, पंजाब में आम आदमी पार्टी से लोग कांग्रेस में जा रहे हैं, और आखिरी बचा चुनावी राज्य मणिपुर, उसके बारे में उन्होंने लिखा है कि यहां फुटकर कम होलसेल ज्यादा होता है। उनकी बातें 19-20 हो सकती हैं क्योंकि हो सकता है किसी और पार्टी से भी इधर-उधर लोग जा रहे हो, लेकिन आज यहां इस पर लिखने का मकसद यह नहीं है कि किस पार्टी की तरफ लोग जा रहे हैं, बल्कि यह है कि ऐसे जाते हुए लोगों का क्या किया जाना चाहिए? और यह पहला मौका नहीं है कि ऐसे लोगों को लेकर हम लिख रहे हों, बल्कि हमेशा से हमारी यही सोच रही है कि भारतीय राजनीति में गंदगी को रोक पाना तो किसी संवैधानिक संस्था के लिए मुमकिन नहीं है क्योंकि लोग खुद ही कीचड़ में डूबने का मजा लेते रहते हैं, लेकिन चुनाव के वक्त पर चुनाव आयोग के बस का इतना हो सकता है कि वह किसी पार्टी में ताजा-ताजा पहुंचने वाले लोगों को उम्मीदवार बनने से रोक सकें। हो सकता है कि चुनाव आयोग के आज के अधिकारों में ऐसा न हो, और यह भी हो सकता है कि चुनाव आयोग खुद होकर अपने अधिकार किसी और तरह से न बढ़ा सके, लेकिन देश की जनता का संसद और अदालत पर इतना दबाव रहना चाहिए कि दलबदल की गंदगी को रोकने के लिए एक ऐसा कानून बनाया जाए जो कि मौजूदा बिके हुए कानून के बजाय असरदार हो। जैसा कि मणिपुर जैसे कुछ राज्यों में होता है, उस तरह से थोक में खरीद-बिक्री, या थोक में अपनी अंतरात्मा की बिक्री पर रोक लगाने के मामले में मौजूदा दल-बदल कानून पूरी तरह से बेअसर है।

ऐसे में अकेला तरीका जो अभी दिख रहा है वह यह है कि चुनावों की घोषणा के बाद दलबदल करने वालों को चुनाव लडऩे की इजाजत नहीं मिलनी चाहिए। पार्टी छोडऩे वाले लोगों के खिलाफ उनकी पिछली पार्टी ही चुनाव आयोग को रिकॉर्ड दे सकती है कि उनका इस्तीफा किस तारीख को मिला या किस तारीख को उसकी सार्वजनिक घोषणा हुई। और अगर यह तारीख चुनाव घोषणा के बाद की है तो ऐसे लोगों को उस अगले ताजा चुनाव में शामिल नहीं होने देना चाहिए। अभी तक किसी ने इस तरह की कोई बातें सुझाई नहीं हैं लेकिन हमारा मानना है कि हर मौलिक बात कभी ना कभी तो पहली बार सामने रखी जाती है और अगर कानून, दलबदल को थोक में होने पर रोक नहीं सकता तो कम से कम इस बात पर तो रोक लगनी चाहिए कि लोग नामांकन भरने के एक दिन पहले तक दलबदल न करें। हम यह बात आज किसी एक पार्टी के नफे या नुकसान के लिए नहीं कह रहे हैं बल्कि इसलिए कह रहे हैं कि लोगों के बीच सार्वजनिक नेताओं की इस किस्म की धोखाधड़ी और गंदगी खत्म की जानी चाहिए। चुनावों की घोषणा के बाद दलबदल का जो सैलाब आता है, वह खरीदी बिक्री से भी होता है, और इसलिए भी होता है कि कुछ लोगों को अपनी मौजूदा पार्टी में टिकट मिलने की उम्मीद नहीं दिखती है। कई लोग इसलिए भी पार्टी बदलते हैं कि उन्हें अपनी मौजूदा पार्टी जीतते नहीं दिखती है। ऐसे लोग कितने समर्पित हैं, और कितनी जनसेवा का जज्बा रखते हैं, इसे भी तौलना चाहिए और उनके अगले, पांच बरस बाद के चुनाव तक उम्मीदवार न बनने का एक कानून लागू करना चाहिए।

हिंदुस्तान में हरियाणा नाहक ही आयाराम-गयाराम के नाम से बदनाम हुआ। हाल के वर्षों में भाजपा ने पूरे देश में अश्वमेध यज्ञ का अपना घोड़ा दौड़ाते हुए जिस तरह से दलबदल करवाए, वह अभूतपूर्व रहा। एक वक्त तो मजाक में ही सही लिखने की सही नौबत थी कि भाजपा अपने वादे पर खरी उतरी कि देश कांग्रेसमुक्त हो गया और भाजपा कांग्रेसयुक्त हो गई। जिस प्रदेश में कांग्रेस मायने नहीं रखती थी, वहां पर भाजपा ने कहीं तृणमूल कांग्रेस से लोगों को तोडक़र अपनी पार्टी खड़ी की, तो कहीं किसी और पार्टी से। नीति-सिद्धांत धरे रह गए, और जो कल तक भाजपा को सांप्रदायिक पार्टी कहते थे, वे आज उसी में देश का भविष्य देखने लगे, जो लोग ममता बनर्जी को गालियां देते हुए तृणमूल कांग्रेस छोडक़र भाजपा में आए थे, वे अब ममता बनर्जी की रबड़ चप्पलों को छूते हुए वहां वापस लौटने के लिए कतार में खड़े बेताब हैं। अभी हम भाजपा के नफा नुकसान की बात करना नहीं चाहते, हम भारतीय लोकतंत्र और भारतीय मतदाता के नफे नुकसान की बात करना चाहते हैं.  नेताओं ने गंदगी के इस कारोबार में सारे नीति सिद्धांत खो दिए और नतीजा यह हुआ कि जनता ने तो लोकतंत्र में आस्था भी खो दी है। लोगों के बीच यह बात प्रचलित रही कि वोट किसी को भी दो, अगर ईवीएम मशीन ठीक भी है तो भी, जीतने वाला उम्मीदवार तो जाएगा भाजपा में ही. बटन दबाने से भाजपा में वोट जाता हो या न जाता हो, वोट पाने वाले विजेता भाजपा में ही जाते हैं, ऐसा कई-कई प्रदेशों में हुआ। कई प्रदेशों में लोगों ने चुनाव जीतते ही भाजपा में जाना तय किया, कई लोगों ने इस्तीफा देकर विधानसभा में बहुमत की सीमा को बदल डाला, और एक अजीब सा माहौल देश में हो गया है जिसमें वोटर के दिए हुए वोट की कोई इज्जत नहीं रह गई।

ऐसी तमाम बातों को देखते हुए चुनाव सुधारों की जरूरत है जिन्हें कि मौजूदा सरकार बिल्कुल ही नहीं करेगी क्योंकि वह तो हर किस्म के दल-बदल के लिए सबसे ताकतवर पार्टी है। लेकिन फिर भी लोगों को उम्मीद नहीं हारनी चाहिए, उन्हें सुप्रीम कोर्ट को सहमत कराने का जरिया निकालना चाहिए, उन्हें बाकी पार्टियों को साथ में लेना चाहिए और इसे जनहित का एक मुद्दा साबित करते हुए अदालत में लड़ाई लडऩी चाहिए। आज देश में चुनाव लडऩा हर किसी के बस का नहीं रह गया है, चुनाव जीत भी जाएं तो भी सरकार बनाना हर किसी के बस का नहीं रह गया है, क्योंकि कम सीटें जीतने वाली पार्टी भी सरकार बना रही है। लेकिन लोकतंत्र में संविधान निर्माताओं ने इतनी गुंजाइश जरूर रखी हुई थी कि लडऩे का माद्दा रखने वाले लोग अदालत की मदद लेकर बेइंसाफी के मुकाबले एक कोशिश करते हुए कुछ कदम तो आगे बढ़ सकते हैं। देखना होगा कि अदालतें चुनाव सुधार को किस हद तक लागू कर सकती हैं, और संसद से परे आगे बढऩे का कोई रास्ता निकाल सकती हैं या नहीं। लोगों को यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि हिंदुस्तान की आज की संसद कोई भी चुनाव सुधार या दलबदल विरोधी कोई भी कानून बनाने वाली नहीं है। क्योंकि इस संसद को चलाने वाली सत्तारूढ़ पार्टी पूरे देश में इसके ठीक खिलाफ काम करके अपनी ताकत को आसमान पर ले जा चुकी है, और वह ऐसा कोई भी आत्मघाती सुधार नहीं करेगी, इसलिए लोगों को आज रास्ता तो अदालत में जनहित याचिका का ही ढूंढना होगा।

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

 

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