संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : गया हुआ वक्त भी वापिस लौट सकता है, अगर वह निवेश हो...
13-Jan-2022 6:47 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  गया हुआ वक्त भी वापिस लौट सकता है, अगर वह निवेश हो...

वक्त को न गँवाने के लिए कहा जाता है कि गया हुआ वक्त दोबारा नहीं आता। लेकिन हकीकत यह है कि बीज से लगे हुए पौधे से बने हुए पेड़ की तरह वक्त भी दुबारा वापस आ सकता है। दुनिया में जिस देश स्विटजरलैंड को बैंकों के लिए, और काले धन के लिए सबसे अधिक जाना जाता है, उसी स्विट्जरलैंड ने यह साबित किया है कि गया हुआ वक्त वापस लौट सकता है। उसने ऐसा इंतजाम किया है कि लोग आज अपना वक्त लगाकर उसे कल जरूरत के वक्त पा सकते हैं। और दिलचस्प बात यह है कि स्विट्जरलैंड के साथ-साथ दुनिया के बहुत से दूसरे विकसित देश इस तरकीब पर अमल कर रहे हैं। इसके तहत लोग आज जरूरतमंद लोगों की मदद, उनका सलाह-मशवरा, उनके बच्चों की देखभाल, उन्हें ट्यूशन पढ़ाना, उनके लिए बागवानी करना जैसे कई काम कर सकते हैं और वहां का टाइम बैंक उनके इस योगदान का रिकॉर्ड रखते चलता है। फिर जब ऐसे लोग खुद जरूरतमंद हो जाते हैं तो वे अपने बीते हुए कल के योगदान का ‘नगदीकरण’ करवा सकते हैं, उसके बदले में वे आज उस तरह लोगों की सेवाएं पा सकते हैं। अपने साथ वक्त गुजारने के लिए लोगों का साथ पा सकते हैं। अभी इस किस्म का टाइम बैंक स्विट्जरलैंड के अलावा करीब 34 और देशों में चल रहा है। इनमें अधिकतर देश विकसित दुनिया के हैं और पिछले 20 बरस से एक-एक करके कई देशों में इस योजना को शुरू किया गया है। इस बारे में जब यह ताजा खबर आज यह सामने आई है तो उसके साथ जुड़ा हुआ यह एक तथ्य भी आया है कि हिंदुस्तान में 2018 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने ऐसी योजना सुझाई थी, और इस पर मध्य प्रदेश में हिंदुस्तान का पहला टाइम बैंक 2019 में खोला गया था, जिसमें 2021 में 500 नए सदस्य जुड़े थे। मध्य प्रदेश का यह तजुर्बा कैसा रहा इस बारे में कोई खबर पढऩा तो याद नहीं पड़ रहा है, लेकिन हिंदुस्तान में ऐसा सोचा गया और उस पर किसी एक जगह पर अमल शुरू हुई, यह बात दूसरी जगहों के लिए सोचने की हो सकती है।

भारत के राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने स्विट्जरलैंड की शुरू की हुई बुजुर्ग नागरिकों और शारीरिक दिक्कतों वाले लोगों के लिए टाइम बैंक की योजना पर अमल भारत में भी सुझाया था। इस योजना के तहत लोग अपना वक्त आज के जरूरतमंद लोगों के बीच देंगे, उनसे बात करेंगे, उनकी मदद करेंगे, और एक राष्ट्रीय बैंक में उनका दिया हुआ यह वक्त जमा होते चलेगा। जब आगे कभी उन्हें जरूरत पड़ेगी तो इस बैंक से किसी दूसरे नए वालंटियर को यह जिम्मा दिया जाएगा और वह वक्त उसके खाते में जमा होते चलेगा। इस तरह से लोग पहले इसमें अपने योगदान को जमा करेंगे और बाद में अपनी जरूरत के समय उसे निकालेंगे, उसका इस्तेमाल करेंगे। इस सोच को देखें तो ऐसा लगता है कि जिस तरह बाजार में जालसाजी की एक नेटवर्क मार्केटिंग होती है जिसमें एक चेन की तरह लोग कुछ सामान दूसरों को बेचते हैं और वे खरीददार लोग सामान कुछ और लोगों को बेच देते हैं, और यह सिलसिला तब तक चलता है जब तक कि आसपास के तमाम इलाके के लोगों में से हर एक के हाथ में वे सामान ना रहें। नेक कामों के टाइम बैंक का यह सिलसिला इसका ठीक उल्टा है, आज बहुत सारे लोग अपना समय देना शुरू करेंगे जिन्हें इसकी जरूरत कुछ या कई बरस बाद पड़ेगी। मतलब यह कि अगर बैंक में 10 लाख घंटों का हिसाब जमा हो चुका है, तो हो सकता है कि हर महीने 10 हजार घंटे उसमें से लोग लेना शुरू करें। और भलमनसाहत और सामाजिक सरोकार की यह योजना पहले बैंक में लोगों के योगदान को जमा करते हुए एक डिपॉजिट को बढ़ा लेगी, और फिर आज के जमा करने वाले लोगों को जब निकालने की जरूरत पड़ेगी तब तक बहुत से और लोग इससे जुड़ चुके होंगे।

यह सिलसिला बहुत ही अद्भुत दिख रहा है। दिक्कत यह है कि इसे स्थानीय स्तर पर करने से इसका उतना फायदा नहीं दिखेगा जितना कि इसे राष्ट्रीय स्तर पर करने से होगा। आज किसी ने छत्तीसगढ़ में बुजुर्गों के साथ साल भर में 100 घंटे गुजारे, किसी गरीब स्कूल में 20 घंटे बच्चों को पढ़ाया, या समाज सेवा का कोई और काम किया, और फिर अपने बुढ़ापे में असम या सिक्किम में केरल या गुजरात में रहते हुए वहां लोगों से इसके एवज में मदद हासिल की, तब तो यह योजना अधिक लोकप्रिय हो सकती है, लेकिन स्थानीय स्तर पर इसकी संभावना सीमित रहेगी। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की इस सोच पर अमल शुरू करने का काम अलग-अलग राज्य अपने स्तर पर भी कर सकते हैं, और यह एक ऐसी मौलिक सोच है जिस पर काम होने से किसी भी राज्य की अपनी एक पहचान बन सकती है। दुनिया में श्रीलंका एक अकेला ऐसा देश है जहां बौद्ध धर्म के त्याग के दर्शन के प्रभाव से जिंदगी गुजारकर जाने वाले लोग बड़ी संख्या में नेत्रदान करते हैं, और वहां मिली हुई आंखों से दुनिया के बहुत से देशों में रौशनी फैलती है। इसी तरह हिंदुस्तान का कोई भी एक राज्य ऐसा हो सकता है जो कि इस तरह के टाइम बैंक की सोच को असरदार स्तर तक बढ़ा सके।

ऐसी सोच सिर्फ समाज सेवा के लिए लोगों का वक्त पाने तक सीमित नहीं रहेगी, बल्कि अपनी जिंदगी में वंचित तबकों की ऐसी जरूरत देखने वाले लोग अपनी क्षमता का दूसरा इस्तेमाल भी इनके लिए करने की बात सोचने लगेंगे। कुछ लोगों को यह लगने लगेगा कि वे वृद्ध आश्रम के लोगों के बीच जब वक्त गुजारने जाते हैं तो वहां भरी गर्मी के बीच भी उनके पास कोई कूलर नहीं है, या वहां पानी साफ करने की कोई मशीन नहीं है, तो मध्यमवर्गीय या संपन्न तबकों के वालंटियर इन जरूरतों को पूरा करने के बारे में भी सोचने लगेंगे। इसलिए लोगों से सिर्फ वक्त नहीं मिलेगा, धीरे-धीरे सामाजिक सरोकारों में उनका दूसरे किस्म का साथ भी खुद होकर मिलने लगेगा जो कि एक बड़ी सामूहिक जनभागीदारी का काम होगा। लोगों को यह भी सोचना चाहिए कि आज जो लोग सरकार को टैक्स देने से कतराते हैं कि सरकार अपने भ्रष्टाचार में उस टैक्स को खत्म कर देती है और बेईमान सरकार को टैक्स क्यों दिया जाए, समाज सेवा से जोडऩे की ऐसी पहल उस नौबत को भी बदल सकती है, और लोग बहुत सी सामाजिक जरूरतों को सीधे ही पूरा करने का काम शुरू कर सकते हैं।

टाइम बैंक की यह सोच दुनिया के कामयाब विकसित और संपन्न देशों में सफल हो चुकी है, लेकिन इसके साथ एक शर्त भी जुड़ी हुई लगती है कि लोग ईमानदार हों। जहां पर लोग सार्वजनिक संपत्ति को अपनी मानकर लूटने लगते हैं, जहां गवर्नमेंट सप्लाई के नाम पर घटिया से भी घटिया चलिटी का सामान बनाया जाता है, जहां सप्लाई में चोरी करके बचत की जाती है, और सरकार को चूना लगाया जाता है, वहां पर ऐसे टाइम बैंक में लोग अपने झूठे योगदान को असली खातों में जुड़वाने से कैसे बचेंगे यह सोचना थोड़ा मुश्किल है। क्या यह आम हिंदुस्तानी बेईमान सोच के चलते धोखाधड़ी का एक और सिलसिला तो नहीं बन जाएगा जिसमें लोग आज के योगदान का झूठा रिकॉर्ड जुड़वाने लगेंगे और कल अपनी जरूरत के समय उसके एवज में वालंटियर की मांग करने लगेंगे? जब देश की संस्कृति ही बेईमान हो जाती है और मिजाज भ्रष्ट हो जाता है, उसके बाद किसी अच्छे काम में भी खतरे खड़े हो जाते हैं। फिर भी आज लोग रक्तदान करते हैं, नेत्रदान और देह दान करते हैं, तरह-तरह से दूसरों की मदद करते हैं, इसलिए ईमानदारी कुछ लोगों में तो जिंदा होगी ही। इसलिए बेईमानों को देखकर हौसला खोने की कोई वजह नहीं है, बल्कि ईमानदारों को देखकर उत्साह से ऐसा कोई काम शुरू करना है।
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