संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : बीवी से बलात्कार करके भी बलात्कार की सजा से छूट किस किस्म का लोकतंत्र?
18-Jan-2022 3:32 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  बीवी से बलात्कार करके भी बलात्कार की सजा से छूट किस किस्म का लोकतंत्र?

दिल्ली हाई कोर्ट में एक मुकदमा चल रहा है जिसमें शादीशुदा जोड़ों के बीच पति द्वारा पत्नी पर किए गए बलात्कार पर बलात्कार की सजा का प्रावधान न होने को चुनौती दी गई है। भारत के कानून में धारा 375 के तहत यह खास छूट दी गई है कि अगर पति अपनी पत्नी से जबरदस्ती सेक्स करता है और पत्नी की उम्र 15 वर्ष से अधिक है तो इसे बलात्कार में नहीं गिना जाएगा। भारत की महिला आंदोलनकारी, और दूसरे तबके लगातार इस छूट को हटाने की बात कर रहे हैं और उनका यह मानना है कि शादी हो जाने भर से ही किसी महिला पर बलात्कार करने की छूट नहीं हो सकती। वह महिला अपने पति से कब सेक्स चाहती है, और कब नहीं, यह उसकी मर्जी की बात रहनी चाहिए, और उसकी मर्जी के खिलाफ अगर पति भी ऐसा करे तो उसे बलात्कार मानना चाहिए। दुनिया के बहुत सारे विकसित देशों में पहले से यह सजा के लायक जुर्म है, लेकिन हिंदुस्तान में इस कानून में पति को यह खास छूट दी गई है कि वह पत्नी की मर्जी के खिलाफ उसे जबरदस्ती देह संबंध बनाकर भी किसी भी सजा से बच सकता है और इसे बलात्कार नहीं गिना जाता। जब कानून में पति को ऐसी छूट दी गई है तो उसका मतलब है कि शादीशुदा महिला के बुनियादी अधिकारों को भी कानून निर्माताओं ने अनदेखा किया है। अदालत में अभी इस पर बहस चल ही रही है, और यह आसान इसलिए नहीं है कि हिंदुस्तान में जगह-जगह हाईकोर्ट में यह देखने में आता है कि कई जजों का नजरिया पुरुषवादी रहता है, और तो और कई महिला जजों का नजरिया भी महिलाओं के हक को कुचलने की हद तक जाकर पुरुषवादी दिखता है। शादीशुदा जिंदगी में पति जो चाहे कर ले, उसे बलात्कार न गिनना बहुत से लोगों को हिंदुस्तान में स्वाभाविक लग सकता है, लेकिन इस बात को समझने की जरूरत है कि कोई पत्नी शादी के बाद अपने पति की सेक्स गुलाम नहीं हो जाती कि उससे जब चाहे तब सेक्स किया जाए, जबरदस्ती करना पड़े तो जबरदस्ती किया जाए, और वह बलात्कार की सजा भी ना पाए।

यह सिलसिला कोई अनोखा नहीं है। हिंदुस्तान में महिला के हक को लेकर कानून बनाने वाले लोगों, और कानून की व्याख्या करके अदालत में फैसले देने वाले लोगों की सोच पुरुषप्रधान बनी हुई है। कानून बनाने वालों ने अभी कुछ समय पहले तक मुस्लिम महिला को तीन तलाक की तकलीफ बर्दाश्त करने के लायक बनाया था, और देश के बहुत से राजनीतिक दलों ने एक अल्पसंख्यक तबके के तुष्टिकरण के लिए तीन तलाक के कानून को खत्म करने का विरोध जारी रखा हुआ था। मुस्लिम समाज को हक देने की बात मानो सिर्फ मुस्लिम मर्दों को हक देने तक सीमित रह गई थी और मुस्लिम औरत का तो कोई अस्तित्व रहता ही नहीं है। आज जिस तरह केंद्र में मोदी सरकार अपनी विकराल संसदीय ताकत से कई तरह के कानून बना रही है, कई तरह के कानून खारिज कर रही है, ठीक उसी तरह एक अभूतपूर्व संसदीय बाहुबल से प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सरकार ने एक मुस्लिम महिला शाहबानो को हक देने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के लिए संसद में कानून बदल दिया था। उसी वक्त लोकतंत्र के हिमायती लोगों को यह लगा था कि किसी के हाथों इतना बड़ा संसदीय बाहुबल नहीं होना चाहिए कि वह एक अकेली मुस्लिम महिला को कुचलने के लिए खड़ा हो जाए, और उसे कोई झिझक ना हो। लेकिन शाहबानो का वह अकेला मामला ही नहीं, और भी बहुत से मामले ऐसे हैं जिनमें महिला के अधिकार कुचले जाते हैं और सिर्फ मुस्लिम महिला के नहीं सभी महिलाओं के। आज भी हिंदू समाज में बंटवारे के वक्त आमतौर पर लड़कियों को कोई हक नहीं दिया जाता और यह मान लिया जाता है कि उनकी शादी के वक्त किया गया खर्च और उन्हें दहेज में दिया गया सामान ही उनका हक था। इसके खिलाफ जागरूकता बढ़ती जा रही है और कानून भी लड़कियों के हक को मान्यता देता है, लेकिन समाज में अभी तक इसके लिए लड़ाई चल रही है।

हम फिर लौटकर शादीशुदा जिंदगी में जबरिया सेक्स पर लौटें तो हिंदुस्तानी अदालत को एक प्रगतिशील नजरिए से सोचना चाहिए और दकियानूसी अंदाज छोडऩा चाहिए। भारतीय महिला को लिखित कानून में बराबरी के अधिकार दिए बिना समाज में उसे बराबरी का दर्जा कभी नहीं मिल सकेगा। बलात्कार के कानून में एक खास रियायत जोडक़र हिंदुस्तानी मर्दों को अपनी बीवी से बलात्कार की जो छूट दी गई है, वह पूरी तरह अमानवीय है और लोकतांत्रिक असमानता के खिलाफ भी है। आज अदालत के जजों सहित कानून बनाने वाले सांसदों तक सबकी फिक्र यही है कि अगर महिला को ऐसे अधिकार मिल जाएंगे तो परिवार का ढांचा टूट जाएगा। लेकिन किसी को यह फिक्र नहीं है कि परिवार का ढांचा टूटने की यह बात तो पत्नी पर बलात्कार के साथ ही हो जानी चाहिए। जिसे परिवार का ढांचा बचाए रखने की फिक्र है, उसे पत्नी से बलात्कार से बचना चाहिए। अगर पत्नी बलात्कार को भी बर्दाश्त करते हुए परिवार के ढांचे को बचाने के लिए जिम्मेदार समझी जाती है तो फिर उसे आम नागरिक से अधिक महान कोई दर्जा दिया जाना चाहिए कि वह बलात्कार झेलकर भी परिवार को बचा रही है। यह सिलसिला पूरी तरह खत्म होना चाहिए और एक सामान्य समझ अदालत के जानकार लोगों की है, जब तक कोई बड़ा जन आंदोलन किसी मुद्दे के पक्ष में खड़ा नहीं होता है, तब तक बड़ी अदालतों के जज भी उस पर कोई गौर नहीं करते, और वह भी अपनी परंपरागत पुरुषप्रधान सोच पर ही चलते रहते हैं। महिला के हक के लिए अदालतों के सामने बड़े प्रदर्शन की जरूरत है, और यह बोझ सिर्फ महिलाओं पर नहीं रहना चाहिए, यह हर उस इंसान पर रहना चाहिए जिसे किसी महिला ने जन्म दिया है।
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