संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : झाड़ू की चुनौती न समझने वाले अपने दम्भ समेत विपक्ष में रहें
19-Jan-2022 3:31 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  झाड़ू की चुनौती न समझने वाले अपने दम्भ समेत विपक्ष में रहें

हिंदुस्तान की राजनीति में कोई सवा सौ साल से अधिक पुरानी कांग्रेस पार्टी आज अपनी जमीन बचाने के लिए रात-दिन एक कर रही है और खून-पसीना एक कर रही है, फिर भी उसके चुनावी आसार छत्तीसगढ़ जैसे एक-आध राज्य में तो मजबूत दिख रहे हैं, लेकिन इसके बाहर बाकी तमाम राज्यों में मजबूर दिख रहे हैं। ऐसे में जब पंजाब में अपनी पार्टी का मुख्यमंत्री चेहरा घोषित करने के दो दिन के भीतर आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल गोवा में अपनी पार्टी का मुख्यमंत्री प्रत्याशी घोषित करते हैं तो भारत की राजनीति को लेकर कुछ बुनियादी सवाल खड़े होते हैं। कांग्रेस पार्टी अपने लंबे और पुराने गौरवशाली इतिहास, और भारत की आजादी की लड़ाई में अपनी बेमिसाल हिस्सेदारी के बाद भी आज चुनावी राजनीति में हाशिए पर पहुंची हुई है। दूसरी तरफ आम आदमी पार्टी है जिसकी जिंदगी के पहले 10 साल भी नहीं हुए हैं, और वह आज देश की राजधानी दिल्ली में अपनी सरकार का दूसरा कार्यकाल चला रही है, पंजाब में मुकाबले में है, और गोवा में मुकाबले में है। एक-एक करके यह पार्टी अलग-अलग राज्यों में अपने पांव जमाने की कोशिश कर रही है और दिल्ली में कांग्रेस और भाजपा दोनों से मुकाबला करते हुए यह केंद्र सरकार की लगाम से बंधी हुई भी एक अच्छी सरकार चलाते दिख रही है। कम से कम दिल्ली के लोगों के इलाज का इंतजाम, और दिल्ली के बच्चों के पढऩे का इंतजाम इसने बहुत अच्छे से किया है, और इसका मॉडल देखने के लिए दूसरे राज्यों के लोग भी वहां पहुंचते हैं

आज की यह चर्चा मोटे तौर पर आम आदमी पार्टी को लेकर है जिसने कि बहुत कम समय में न सिर्फ देश की राजधानी में अपनी सरकार बनाई, दोबारा जीत हासिल की, बल्कि आसपास के दूसरे राज्यों से लेकर वह देश के कोने पर बसे हुए गोवा में जाकर भी अपनी ताकत आजमा रही है. दिलचस्प और दिक्कत की बात यह है कि इस राजनीतिक दल ने महज चुनाव लडऩे के लिए अपने-आपको एक राजनीतिक दल की तरह रजिस्टर करवाया, और चुनाव चिन्ह हासिल किया। लेकिन इससे अलग अगर देखें तो देश की बाकी दिक्कतों, हिंदुस्तान के बाकी जलते-सुलगते मुद्दों से इसने अपने-आपको अलग रखा है। इसका देश की सांप्रदायिकता से कोई लेना-देना नहीं है, राजधानी में चलने वाले बड़े-बड़े आंदोलनों से कोई लेना-देना नहीं है, जेएनयू से लेकर शाहीन बाग तक और किसान आंदोलन से लेकर धर्म संसद तक पर कहने के लिए इसके पास कुछ नहीं है. आज देश का एक सबसे अधिक पढ़ा-लिखा मुख्यमंत्री इस पार्टी के पास है लेकिन उसकी पीढ़ी के सोशल मीडिया पर हिंदुस्तान में जितने किस्म की हिंसा चल रही है उस पर भी अरविंद केजरीवाल का कुछ भी कहना नहीं है।

इसी जगह हमने पहले भी इस बात को लिखा है कि अरविंद केजरीवाल दिल्ली शहर के एक बड़े म्युनिसिपल कमिश्नर की तरह काम कर रहे हैं, न कि एक निर्वाचित महापौर की तरह। वे निर्वाचन से आए जरूर हैं लेकिन निर्वाचन का उनका कोई परम्परागत चुनावी मिजाज नहीं है, खासकर हिंदुस्तान की राजनीति में जो मुद्दे रहते हैं उन मुद्दों को छुए बिना वे महज एक बेहतर प्रशासन चलाने की अपनी खूबियां गिनाते हुए अपनी पार्टी के लिए वोट मांगते हैं। अब हिंदुस्तान की राजनीति में किसी प्रदेश में जब तक कोई जलते सुलगते मुद्दे न हों तब तक तो अफसरी अंदाज में एक सरकार चलाई जा सकती है, और अपनी ईमानदारी का दावा भी किया जा सकता है, लेकिन जब दूसरी पार्टियों से गठबंधन करके, धर्म और जाति के मुद्दों का सामना करते हुए, क्षेत्रीयता के मुद्दों से जूझते हुए कोई पार्टी चुनावी राजनीति करती है, तो वह आम आदमी पार्टी के तौर तरीकों से तक सीमित नहीं रह सकती। अरविंद केजरीवाल अपने नौजवान साथियों और मंत्रियों के साथ एक सरकार चलाने वाले कामयाब नौजवान दिखते हैं, लेकिन देश के असल मुद्दों पर किसी सार्वजनिक जवाबदेही से वे बचते हैं और उन पर शायद ही कभी मुंह खोलते हैं।

अब यह बात थोड़ी सी अटपटी है कि क्या भारत के बाकी प्रदेशों की राजनीति धर्म और जाति, सांप्रदायिकता और बाकी मुद्दों को छोडक़र भी की जा सकती है? दिल्ली में सरकार के काम सीमित हैं क्योंकि वहां बहुत से अधिकार और जिम्मेदारियां केंद्र सरकार के पास हैं, और केंद्र सरकार के तैनात किए हुए लेफ्टिनेंट गवर्नर राज्य की निर्वाचित सरकार को अपने चाबुक से काबू में रखते आए हैं। इसलिए दिल्ली की केजरीवाल सरकार का मॉडल देश के बाकी प्रदेशों में कितना कामयाब हो सकेगा यह देखना अभी बाकी ही है। इस अर्धस्वायत्त राज्य से परे आम आदमी पार्टी का कोई तजुर्बा नहीं है, और देश के किसी और राज्य को भी आम आदमी पार्टी का कोई प्रशासनिक तजुर्बा नहीं है। ऐसे में पंजाब और गोवा के यह चुनाव इस पार्टी को एक पूर्णस्वायत्त राज्य में काम करने या विपक्ष चलाने का एक तजुर्बा दे सकते हैं जो कि भारत के चुनावी लोकतंत्र में एक नया प्रयोग होगा, और उससे यह साबित भी होगा कि एक नियंत्रित प्रदेश दिल्ली राज्य की कामयाब सरकार चलाने वाली पार्टी पूरी तरह अधिकार संपन्न प्रदेशों को कैसे चला सकेगी?

हम इसे लेकर बहुत निराश भी नहीं हैं क्योंकि दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने शासन या प्रशासन चलाने में बहुत निराश भी नहीं किया है। उसके पास जितने अधिकार हैं उनसे उसने अपनी जिम्मेदारियों को ठीक-ठाक ही पूरा किया है और जैसा कि अभी केजरीवाल ने कहा है, मोदी सरकार ने आम आदमी पार्टी के मंत्रियों और विधायकों पर इतने छापे डलवाए और इतने तरह की जांच करवाई, लेकिन किसी के खिलाफ कुछ साबित नहीं हो सका, यह आम आदमी पार्टी को मिला हुआ ईमानदारी का सबसे बड़ा सर्टिफिकेट है ऐसा केजरीवाल का कहना है। हालांकि देश के कुछ दूसरे राजनीतिक दलों को गैर राजनीतिक अंदाज से चलने वाली आम आदमी पार्टी को लेकर गहरी आपत्ति है कि यह कुल मिलाकर मोदी सरकार के हाथ मजबूत करती है और चुनावी मैदान में भाजपा विरोधी वोटों को काटती है। लेकिन यह बात तो बहुत ही पार्टियों के बारे में कही जा सकती है. यह बात बंगाल, त्रिपुरा या गोवा में तृणमूल कांग्रेस भी कह सकती है कि कांग्रेस वहां पर गैर भाजपाई वोटों को काटने का काम कर रही है, या उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी यह कह सकती है कि कांग्रेस वहां पर भाजपा विरोधी वोटों को काटने वाली, वोटकटवा पार्टी है।

ऐसी तोहमतों से परे अरविंद केजरीवाल की दिल्ली सरकार अब तक बिना किसी बड़े घोटाले के ठीक-ठाक चलते दिख रही है और उससे यह भी लग रहा है कि क्या हिंदुस्तान की राजनीति में सचमुच यही आरक्षण और सांप्रदायिकता जैसे मुद्दों को छुए बिना भी चुनाव लड़े जा सकते हैं और सरकार चलाई जा सकती है? दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार को देखकर यह लगता है कि बहुत किस्म के चुनावी मुद्दे इस्तेमाल किए बिना बुनियादी शासन-प्रशासन की खूबी पर भी चुनाव लड़ा जा सकता है। लेकिन दिल्ली एक अलग हालात वाला प्रदेश है और देश के बाकी प्रदेशों में इस मॉडल का ज्यों का त्यों इतना कामयाब हो पाना पता नहीं कितना हो पाएगा। फिलहाल पंजाब और गोवा इन दो राज्यों के चुनावी नतीजों के बाद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी के सामने एक नए किस्म की चुनौती रहेगी कि सत्ता या विपक्ष का उनका काम किस तरह से रह पाता है। लोकतंत्र में इन दोनों में से किसी का महत्व कम नहीं होता और कई बार तो यह होता है कि सत्ता में पहुंचने के पहले विपक्ष का तजुर्बा खासे काम का रहता है। आम आदमी पार्टी ने दिल्ली से सत्ता का एक तजुर्बा हासिल किया हुआ है, अब देखना है कि इस चुनाव के बाद इन दो राज्यों में वह किस किनारे पहुंचती है और वहां की राजनीति में इसकी क्या कामयाबी रहती है. फिलहाल यह बात तो है ही कि भारत की चुनावी राजनीतिक पार्टियों में आम आदमी पार्टी एक पूरी तरह से अलग तौर-तरीकों वाली पार्टी है, और उसके मुकाबले खड़े हुए लोग अगर उसकी मौलिकता से कुछ सबक लेने से परहेज कर रहे हैं, तो फिर वे अपने दंभ के साथ विपक्ष का मजा लेने के लिए आजाद हैं।
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