संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : शरणार्थियों की जिम्मेदारी आऊटसोर्स करने की सोच क्या खारिज करने लायक?
16-Apr-2022 7:03 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  शरणार्थियों की जिम्मेदारी आऊटसोर्स करने की सोच क्या खारिज करने लायक?

सदी के शुरू होने से अब तक पिछले बीस बरसों में दुनिया के कुछ देशों से वहां के गृहयुद्ध की वजह से, या वहां पर अमरीकी हमलों की वजह से लाखों लोग देश छोडक़र निकले, और समंदर की लहरों पर जान पर खेलते हुए योरप के अलग-अलग देशों पर पहुंचने की कोशिश की। खुद को और बच्चों को बचाने का संघर्ष भी था, और एक बेहतर जिंदगी की उम्मीद भी थी। योरप के अधिकतर देशों ने कम या अधिक संख्या में ऐसे शरणार्थियों को अपने यहां जगह दी, हालांकि ऐसा फैसला लेने वाली सत्तारूढ़ पार्टियों को वोटरों के एक ऐसे तबके की नाराजगी भी झेलनी पड़ी जो कि अपनी सरहदों को अपनी संस्कृति के लोगों के लिए बंद रखना चाहता है। ऐसे लोग योरप के हर देश में हैं, और योरप ही क्यों, हिन्दुस्तान में भी ऐसे लोग हैं जो कि आज रोहिंग्या शरणार्थियों को इस जमीन पर पांव भी रखना नहीं देना चाहते। खैर, अभी बात योरप की चल रही है जहां पर यूक्रेन पर रूसी हमले के चलते दसियों लाख यूक्रेनी शरणार्थियों का दबाव आसपास के देशों पर पड़ रहा है, और यह द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद का सबसे बड़ा शरणार्थी मोर्चा बन चुका है।

दुनिया जब सभ्य होने का दावा करती है तो सभ्यता का यह तमगा कई जिम्मेदारियों के साथ आता है, इनमें से एक शरणार्थियों को जगह देना भी है। श्रीलंका से गए हुए तमिल शरणार्थी भी योरप के बहुत से देशों में जगह पाकर वहां बसे हुए हैं, और काम कर रहे हैं। बहुत से मुस्लिम देशों से शरणार्थी योरप पहुंच रहे हैं, और वहां के शरण के नियमों के मुताबिक वे अगर यह साबित कर पाते हैं कि अपने देश लौटने पर उनकी जान को खतरा है, तो उन्हें वहां जगह मिलने की संभावना बढ़ जाती है। ऐसे में अभी ब्रिटेन में एक नया मसला उठ खड़ा हुआ है। प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने वहां पहुंचने वाले शरणार्थियों को एक अफ्रीकी देश रूआंडा भेजने की योजना बनाई है जहां पर ब्रिटिश खर्च से शरणार्थी कैम्प बनाए जा रहे हैं, और ब्रिटेन की सरहद तक पहुंचे हुए लोगों को रूआंडा भेजा जा रहा है जहां उनके रहने-खाने की लागत ब्रिटिश सरकार उठाएगी। इस बात को लेकर संयुक्त राष्ट्र की शरणार्थी एजेंसी ने इस योजना को खारिज कर दिया है, और कहा है कि यह अंतरराष्ट्रीय कानून के खिलाफ है। इसके खिलाफ तर्क बहुत से हैं। पहला तर्क तो यही है कि रूआंडा का मानवाधिकार का रिकॉर्ड बहुत ही खराब रहा है, और ऐसे देश में शरणार्थी कैम्प बनाकर या बनवाकर ब्रिटेन जैसा देश रूआंडा को एक अनैतिक मान्यता दे रहा है। जानकार लोग रूआंडा को एक खतरनाक जगह भी मान रहे हैं लेकिन बोरिस जॉनसन का कहना है कि वह दुनिया में एक सबसे सुरक्षित देश है, और ब्रिटिश सरकार ने रूआंडा की सरकार के साथ एक अनुबंध भी किया है जिसके तहत मोटरबोट से ब्रिटिश सरहद से शरणार्थियों को रूआंडा पहुंचाना शुरू भी हो गया है। एक ब्रिटिश अखबार ने जब सरकार की इस योजना के बारे में अपने पाठकों के बीच सर्वे किया तो पता लगा कि 47 फीसदी पाठक इससे सहमत हैं, और कुल 26 फीसदी इसके खिलाफ हैं। यह बात सही है कि दुनिया के कई देशों में पिछले दशकों में जिस तरह बहुत से आतंकी हमलों में ऐसे शरणार्थी शामिल रहे हैं, उनकी वजह से पश्चिम के देशों में इन्हें जगह देने के खिलाफ एक जनमत बना हुआ है। यह बात भी है कि मुस्लिम देशों से आने वाले इन शरणार्थियों का धर्म और लोकतंत्र के प्रति, महिलाओं के प्रति, मानवाधिकार के प्रति नजरिया पश्चिम की स्थानीय संस्कृति से बिल्कुल ही अलग है, और उन्हें वहां जगह देकर लोग अपने आपको खतरे में भी महसूस करते हैं। इसलिए भी शरणार्थियों के खिलाफ इन अपेक्षाकृत विकसित देशों में एक माहौल बना हुआ है, और आज जब फ्रांस में राष्ट्रपति का चुनाव चल रहा है, तो वहां भी शरणार्थी एक बड़ा चुनावी मुद्दा बने हुए हैं।

आज जब पश्चिम के कुछ देशों में संकीर्णतावादी, कट्टर और राष्ट्रवादी पार्टियां शरणार्थियों के मुद्दे पर बेहतर चुनावी संभावनाएं पा रही हैं, तब इन देशों की सत्तारूढ़ पार्टियों को भी यह सोचना पड़ रहा है कि शरणार्थियों का लगातार बना हुआ दबाव उन्हें किस हद तक मंजूर करना चाहिए, और कब जाकर इसके लिए मनाही कर देनी चाहिए। जब अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारियों को अपनी घरेलू चुनावी संभावनाओं के साथ रखकर तौलकर देखना होता है, तो मुश्किल फैसले लेना कोई आसान काम नहीं होता है। यह सिलसिला अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारियों पर एक बड़ा तनाव भी डाल रहा है। आज यूक्रेन से जिस तरह दसियों लाख लोग घरबार, और सभी कुछ खोकर निकल चुके हैं, तो उसका दबाव दूर बसे अमरीका तक भी पड़ रहा है जिसने एक लाख शरणार्थियों को मंजूर करने की घोषणा की है।

अब चूंकि किसी देश की यह कोई जिम्मेदारी नहीं होती है कि वे शरणार्थी मंजूर करें, या कितने शरणार्थी मंजूर करें, तो ऐसे में इस बारे में भी सोचने की जरूरत है कि किन देशों में शरणार्थियों के लिए ऐसे कैम्प बनाए जा सकते हैं जिनका खर्च विकसित और संपन्न देश उठाएं, और जो एक किस्म से कमजोर देशों के लिए एक कमाई का जरिया भी बन सके। अब रूआंडा में अगर ब्रिटिश खर्च से ऐसे शरणार्थी बसाए जा रहे हैं, तो दुनिया के दूसरे देश भी इस बारे में सोच सकते हैं। आज भी दुनिया का संपन्न हिस्सा, कई किस्म के प्रदूषण वाले कारखानों को दुनिया के विपन्न हिस्से में खिसकाते चलता है, और अधिक मजदूरी, अधिक प्रदूषण वाले बहुत से काम अब गरीब देशों में ही होते हैं, और वहां से सामान बनकर संपन्न दुनिया में जाता है। इसलिए अगर अपने देशों में शरणार्थियों को जगह देने के बजाय कुछ देश कुछ तीसरे देशों में उनके लिए इंतजाम करते हैं, तो यह एकदम से खारिज कर देने वाली सोच नहीं है, फिर चाहे संयुक्त राष्ट्र की शरणार्थी एजेंसी इसे खारिज क्यों न करती रहे। हर देश के लिए शायद यह मुमकिन नहीं होगा कि वह बाहर से आते शरणार्थियों को अपने देश में अंतहीन जगह देता चले। अपने लोगों की हिफाजत से लेकर अपनी सामाजिक संस्कृति की हिफाजत तक, बहुत से ऐसे मुद्दे हो सकते हैं जिन पर किसी देश की सरकार को अपनी अंतरराष्ट्रीय नैतिक जिम्मेदारी छोडक़र भी फैसला लेना पड़े। इस बारे में सोचना चाहिए कि क्या कुछ देशों की अर्थव्यवस्था में ऐसे शरणार्थियों से कोई मदद मिल सकती है जिनका अपना देश जिंदा रहने लायक नहीं रह गया है, लेकिन जिन्हें मंजूर करना पश्चिम के देशों के लिए मुमकिन भी नहीं रह गया है। इसे एकदम से खारिज करने के बजाय सभी पक्षों के फायदे के बारे में सोचना चाहिए।
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