संपादकीय
फ्रांस में मौजूदा राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों फिर से राष्ट्रपति बन गए हैं, और उन्होंने उग्र दक्षिणपंथी उम्मीदवार मारीन ले पेन को हरा दिया है। ये चुनाव एक बहुत अलग किस्म के अंतरराष्ट्रीय तनाव के बीच हुए थे जिनमें फ्रांस पर रूस-यूक्रेन संघर्ष का दबाव भी था, और यूरोपीय समुदाय की एक सबसे बड़ी ताकत होने के नाते फ्रांस पर एक बड़ी जिम्मेदारी भी थी, और है। ऐसे में उग्र दक्षिणपंथी उम्मीदवार महिला के इर्द-गिर्द वोटर बहुत जुटे, पिछले चुनाव के मुकाबले मैक्रों के वोट आठ फीसदी गिर गए, मारीन ले पेन को पिछले चुनाव से बहुत अधिक वोट मिले, लेकिन राहत की बात यह है कि उग्र दक्षिणपंथ परास्त हुआ। मारीन ले पेन यूरोपीय समुदाय की धारणा के खिलाफ है, फ्रांस के भीतर बसे हुए दसियों लाख मुस्लिमों के हिजाब के हक के खिलाफ है, बाहर से आए प्रवासियों और शरणार्थियों के खिलाफ है, अल्पसंख्यकों के और काले लोगों के खिलाफ है। इसलिए न सिर्फ फ्रांस के उदारवादी लोगों को, बल्कि यूरोपीय समुदाय के लोगों को भी यह डर लगा हुआ था कि कहीं ऐसी कट्टरपंथी और दकियानूसी महिला फ्रांस की राष्ट्रपति न बन जाए। उसके राष्ट्रपति बनने से फ्रांस के यूरोपीय समुदाय से हटने का भी खतरा खड़ा हो सकता था जैसा कि ब्रिटेन उससे हट चुका है। जैसे कि किसी भी देश में घोर कट्टरपंथी लोग होते हैं जो कि अल्पसंख्यकों के खिलाफ होते हैं, लोगों की धार्मिक आजादी के खिलाफ होते हैं, शरणार्थियों के खिलाफ होते हैं, गरीबों की मदद के खिलाफ होते हैं, वैसा ही हाल फ्रांस में होने का खतरा था, जो कि टल गया। दरअसल लोग इस खतरे को इस बात से जोडक़र देख रहे थे कि इन्हीं सारी खतरनाक बातों के लिए जाने जाने वाले डोनल्ड ट्रंप को अमरीकी मतदाताओं ने जिता ही दिया था, और वैसी ही कोई चूक फ्रांसीसी मतदाता न कर बैठें। मैक्रों न सिर्फ दुबारा जीते हैं बल्कि वे पिछले डेढ़ दशक में दुबारा जीतकर आने वाले पहले राष्ट्रपति भी रहे हैं। उन्होंने खुलकर इस बात को मंजूर किया कि उन्हें यह पता है कि बहुत से फ्रांसीसियों ने उन्हें इसलिए वोट दिया कि वे लोग उग्र दक्षिणपंथ के विचार को रोकना चाहते थे, न कि वे मेरा समर्थन कर रहे थे। उन्होंने कहा- इसलिए मुझे पता है कि उनका वोट मुझे आने वाले बरसों के लिए मेरी जिम्मेदारी बताता है।
दुनिया के अलग-अलग देशों में अलग-अलग वक्त पर विचारधाराएं जोर पकड़ती हैं, या कमजोर होती हैं। डोनल्ड ट्रंप की शक्ल में अमरीका को हाल के दशकों का सबसे नस्लवादी और सबसे नफरतजीवी नेता मिला था। और भी कुछ-कुछ देशों में समय-समय पर साम्प्रदायिक और दकियानूसी दक्षिणपंथी काबिज हो जाते हैं। ऐसे में फ्रांस ऐसी ही एक नफरतजीवी सरकार पाने के मुहाने पर आ गया था। चुनाव हारने के बाद भी मारीन ले पेन उन्हें मिले हुए भारी वोटों को अपनी जीत बता रही है, और फ्रांस में आज मैक्रों के जीत के जश्न के बीच भी बहुत से लोग दक्षिणपंथियों को मिले इतने वोटों को अगले चुनाव के लिए भी खतरनाक मानते हुए फिक्र जाहिर कर रहे हैं। जिम्मेदार लोकतंत्र वही होते हैं जो खतरे की तरफ से बरसों पहले आगाह हो जाते हैं, और नफरत से बचने की कोशिश करते हैं। फ्रांस एक अलग किस्म की खतरनाक शुद्धतावादी, नस्लभेदी, अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारियों से मुक्त सरकार पाने की कगार पर पहुंच गया था, लेकिन मैक्रों की जीत ने सबको राहत की एक सांस लेने का मौका दिया है।
दुनिया के देश अब एक-दूसरे से इतने कटे हुए भी नहीं हैं कि एक देश के मुद्दे दूसरे देश को प्रभावित न करें। बहुत से देशों के चुनाव अंतरराष्ट्रीय मुद्दों से प्रभावित होते हैं, और हिन्दुस्तान, पाकिस्तान, या चीन की सरकारें अपने घरेलू मोर्चे पर लोगों को संतुष्ट रखने के लिए, या दुश्मन की उनकी एक धारणा को संतुष्ट रखने के लिए बहुत सा जुबानी जमाखर्च भी करती हैं। ऐसे में अंतरराष्ट्रीय संगठनों के प्रति जवाबदेही रखने वाले बड़े और ताकतवर देश अगर जिम्मेदार पार्टियों के हाथ में रहते हैं, तो उसका बड़ा असर पड़ता है। आज जिस तरह से यूक्रेन पर रूस के हमले को लेकर दुनिया खेमों में बंट गई है, उसमें भी देशों में अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारी समझने वाली और नैतिकता निभाने वाली सरकारों की जरूरत है, और जहां तक योरप का सवाल है, वहां पर आज के दिन फ्रांस में मैक्रों का लौटकर आना बहुत महत्वपूर्ण है, वरना न सिर्फ रूस के हाथ मजबूत हुए होते, बल्कि यूरोपीय समुदाय और अमरीका से भी फ्रांस के संबंध खराब हुए रहते।
आज टेक्नालॉजी और संचार-सहूलियतों के चलते दुनिया भर के लोग एक-दूसरे से जुड़े हुए तो अधिक हैं, लेकिन एक-दूसरे के प्रति जिम्मेदार कम रह गए हैं। एक वक्त था जब आम हिन्दुस्तानी भी दुनिया के दूसरे देशों के मुद्दों को लेकर चर्चा करते थे, और बहस करते थे। आज के हिन्दुस्तानी बाकी दुनिया के प्रति अपनी जिम्मेदारी से बहुत हद तक अछूते हो गए हैं। आज रूस-यूक्रेन की लड़ाई में दुनिया भर के देशों में अनाज की किल्लत हो गई है, और कई देश तो ऐसे हैं जहां पर अंतरराष्ट्रीय राहत एजेंसियों ने भी भूखी मरती आबादी के पूरे हिस्से को बहुत सीमित खाना देने के बजाय एक हिस्से को जिंदा रहने जितना खाना देना तय किया है, और एक हिस्से को खाना देना बंद ही कर दिया है। ऐसी भयानक नौबत इसी धरती पर चल रही है, लेकिन हिन्दुस्तानी लोगों के बीच मंदिर और मस्जिद के बीच पथराव सबसे बड़ा मुद्दा बना हुआ है। इंसानों और धरती के प्रति इतनी बड़ी गैरजिम्मेदार सोच इतिहास में जरूर ही दर्ज होगी। आज दुनिया के तमाम देशों को न सिर्फ अपने चुनावों में जिम्मेदारी दिखाने की जरूरत है, बल्कि दुनिया भर के मुद्दों में अपनी मानवीय जिम्मेदारी पूरी करने की भी जरूरत है। फ्रांस के चुनावी नतीजों को लेकर जो पहलू सामने आ रहे हैं, उन पर बाकी देश भी सोच-विचार कर सकते हैं।
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