संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : प्रशांत किशोर और कांग्रेस में शादी के बिना ही ऐसा तलाक!
27-Apr-2022 4:24 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  प्रशांत किशोर और कांग्रेस में शादी के बिना ही ऐसा तलाक!

कांग्रेस और प्रशांत किशोर का एक-दूसरे से मोहभंग होना भारतीय चुनावी राजनीति की एक नाटकीय घटना है जिसमें आम जनता से लेकर बड़े नेताओं तक को 2024 के आम चुनावों में प्रशांत किशोर के कंधों पर सवार होकर कांग्रेस के एक बड़े सफर कर लेने की उम्मीद थी, और वह उम्मीद दिन की रौशनी भी नहीं देख पाई। जिस तामझाम से और धूमधाम से कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के घर पर प्रशांत किशोर का चुनावी-राजनीतिक प्रस्तुतिकरण हुआ था, और सोनिया दरबार के कई घंटे पार्टी के कई बड़े नेताओं के साथ प्रशांत किशोर को दिए गए थे, वह कांग्रेस के इतिहास में एक बिल्कुल अलग किस्म की बात थी। उसके बाद कांग्रेस ने औपचारिक रूप से यह घोषणा की थी कि कांग्रेस अध्यक्ष ने प्रशांत किशोर के प्रस्तुतिकरण पर रिपोर्ट देने के लिए मौजूद प्रमुख नेताओं की एक कमेटी बनाई है, फिर इस कमेटी ने हफ्ते भर के भीतर अपनी रिपोर्ट दे दी, और चारों तरफ यह हल्ला होने लगा कि प्रशांत किशोर कांग्रेस के बड़े पदाधिकारी होने जा रहे हैं, और वे एक किस्म के कांग्रेस के भविष्य निर्माता रहेंगे। लेकिन यह बड़ा सा रंगीन और चमकता हुआ बुलबुला चार दिन भी नहीं टिका, और कल कांग्रेस और प्रशांत किशोर दोनों ने एक-दूसरे का साथ न लेने-देने की औपचारिक घोषणा की। लोगों को याद होगा कि कुछ महीने पहले भी प्रशांत किशोर ने सोनिया-कुनबे के साथ ऐसी बैठकें की थीं, और उस वक्त यह लग रहा था कि वे मोदी के खिलाफ ममता बैनर्जी की अगुवाई में एक विपक्षी मोर्चा बनाने की संभावनाओं को टटोलते हुए वहां पहुंचे थे। इस बार तो उनके औपचारिक रूप से कांग्रेस में शामिल होने की चर्चा थी, और पार्टी के बड़े-बड़े नेताओं ने उनके शामिल होने के बारे में ही अपनी जानकारी या अपने विचार सामने रखे थे।

यह नौबत कांग्रेस के उन तमाम लोगों के लिए बड़ी निराशा की हो सकती है जिन्होंने बाहर से जादूगर मैनड्रैक लाने के अंदाज में प्रशांत किशोर को इम्पोर्ट करके अपनी पार्टी की संभावनाओं को आसमान पर ले जाने के सपने देख लिए थे। वह सपना इतनी जल्दी इतनी बुरी तरह टूट जाएगा, यह लग नहीं रहा था। दूसरी तरफ कांग्रेस के भीतर जी-23 नाम का जो एक तबका बना है, और जो पार्टी में लोकतांत्रिक तौर-तरीकों, जवाबदेही, और संगठन चुनावों की मांग कर रहा है, उस तबके को भी यह हैरानी थी कि सोनिया गांधी ने उनके साथ बातचीत करने और उनकी मांगों-सिफारिशों पर विचार करने का जो वायदा किया था, उसे तो साल भर बाद भी आज भी छुआ भी नहीं गया है, और प्रशांत किशोर को एक उद्धारक के रूप में कांग्रेस अपने बीच बिठा रही है। अभी यह साफ नहीं है कि कांग्रेस के किन लोगों को प्रशांत किशोर से क्या शिकायतें थीं, या वे कौन सी उम्मीदें कर रहे थे जो कि पूरी नहीं हुईं। अभी यह साफ नहीं है कि कांग्रेस और प्रशांत किशोर में बातचीत किन वजहों से टूटी, लेकिन एक पार्टी के रूप में यह बात कांग्रेस के लिए बहुत ही शर्मिंदगी और फिक्र की है कि किसी एक बाहरी व्यक्ति पर सवा सौ साल पुरानी यह पार्टी इस हद तक मोहताज हो गई है कि सोनिया के घर उसे सुनने के लिए ऐसी बैठक हुई जैसी कि कांग्रेस के इतिहास में कभी नहीं हुई थी। आज जब एक पेशेवर रणनीतिकार से बातचीत में कांग्रेस इस हद तक आगे बढऩे के बाद किसी किनारे नहीं पहुंच पाई, तो 2024 के आम चुनाव में वह मोदीविरोधी मोर्चा बनाने में किसके साथ कहां पहुंच पाएगी? लोगों को याद होगा कि पिछली बार भी प्रशांत किशोर की सोनिया-परिवार से बातचीत के बाद सार्वजनिक मंचों पर प्रशांत किशोर और कुछ कांग्रेस नेताओं के बीच कड़वी जुबान में हमले हुए थे। इसके कुछ महीनों के भीतर ही दुबारा बात इस हद तक आगे बढऩा, और फिर पंक्चर गुब्बारे की तरह औंधे मुंह जमीन पर गिर जाना राजनीतिक परिपक्वता का संकेत नहीं है। इससे कांग्रेस पार्टी की संभावनाएं जितनी चौपट हुई हों, वह तो हुई हों, उसकी राजनीतिक साख भी गड़बड़ाई है, और पार्टी के बाहर के दूसरे लोगों से तालमेल की कमी की कमजोरी उजागर हुई है।

राजनीति में कोई स्थायी दोस्त नहीं होते, और न ही कोई स्थायी दुश्मन होते हैं। लेकिन आज हिन्दुस्तान की चुनावी राजनीति मोदी-शाह की मेहरबानी से जितना ऊंचा खेल बन चुकी है, उसमें कांग्रेस कहीं टिकी हुई नहीं दिखती है। इसलिए कांग्रेस की संभावनाओं की कोई भी संभावना कांग्रेस के लोगों में एक उत्साह पैदा करती है, और प्रशांत किशोर ने एक किस्म की उम्मीद जगाई थी, जो कि रफ्तार से नाउम्मीदी में तब्दील हो गई है। ऐसे में परंपरागत तरीके से सोनिया-कुनबे के मातहत ही चल रही इस पार्टी का अब क्या भविष्य हो सकता है, यह साफ नहीं है। लेकिन अपनी ही पार्टी के घोषित असंतुष्ट नेताओं को सुनने के बजाय, पार्टी में लोकतांत्रिक सिलसिला शुरू करने के बजाय पार्टी जिस तरह का इम्पोर्टेड इलाज ढूंढ रही थी, उससे पार्टी लीडरशिप की साख पार्टी के भीतर भी कमजोर हुई है। आज किस आत्मविश्वास से सोनिया गांधी जी-23 के नेताओं से बात कर सकती हैं? और अगर अपने ही संगठन के लोगों से वे बात नहीं कर सकतीं, तो फिर दूसरी पार्टियों के नेताओं से एक व्यापक गठबंधन पर किस तरह बात कर पाएंगी? कांग्रेस के भीतर जब उनकी लीडरशिप को दर्जनों बड़े नेताओं की तरफ से एक अघोषित चुनौती दिख रही है, तब वैसे में दूसरी पार्टियों से बातचीत का भी वजन नहीं रह जाता है। हम कभी भी प्रशांत किशोर जैसे आयातित और पेशेवर जादुई करिश्मे के हिमायती नहीं रहे हैं। कांग्रेस में अगर समझदारी होती, तो प्रशांत किशोर के साथ उसके इस प्रयोग का हल्ला नहीं होता, और कांग्रेस उसे बिना अधिक बड़ा मुद्दा बनाए हुए एक हफ्ते का विचार-विमर्श निपटा चुकी होती। लेकिन इस एक हफ्ते का शिगूफा कांग्रेस की साख पर गहरी चोट कर गया है, और इस पार्टी के निराश लोगों को अधिक निराश भी कर गया है। इससे कांग्रेस कैसे उबरेगी, और अपने दम पर कोई रास्ता कैसे निकाल सकेगी, यह अभी एक बड़ी पहेली बना हुआ है।
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