संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सत्तर बरस की औसत उम्र वाले हिन्दुस्तानी 350 बरस इंतजार करें कोर्ट-फैसले का?
03-May-2022 4:04 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  सत्तर बरस की औसत उम्र वाले हिन्दुस्तानी 350 बरस इंतजार करें कोर्ट-फैसले का?

प्रधानमंत्री और देश के मुख्यमंत्रियों के साथ हुई एक बैठक में देश के मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमना ने अदालतों पर बोझ के बारे में आंकड़े सामने रखे जिनके मुताबिक देश की निचली, जिला अदालतों में चार करोड़ से ज्यादा केस चल रहे हैं। इसकी एक वजह यह भी है कि जिला अदालतों से लेकर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक जजों की कुर्सियां खाली पड़ी हैं, और वहां पर नियुक्ति का जिम्मा सरकारें पूरा नहीं कर रही हैं। उन्होंने जिला अदालतों का हाल बताया कि प्रति लाख आबादी पर देश में दो जज हैं, और बढ़ती मुकदमेबाजी का बोझ निपटाने के लिए ये बहुत नाकाफी है। देश के मुख्य न्यायाधीशों के सम्मेलन के उद्घाटन के मौके पर मुख्य न्यायाधीश ने प्रधानमंत्री और देश की मुख्यमंत्रियों की मौजूदगी में यह तकलीफ जाहिर की।

देश में अदालतों का हाल इतना खराब है कि वहां से किसी को इंसाफ की कोई उम्मीद नहीं रहती। 2018 में आई नीति आयोग की एक रिपोर्ट में यह कहा गया था कि उस वक्त अदालतों में लंबित 2.9 करोड़ मुकदमों के निपटारे में 324 साल लगने वाले थे। अब चार बरस में 4.7 करोड़ मामले अदालतों में हो गए हैं। अब शायद ताजा अंदाज लगाया जाए तो शायद इनके निपटने में साढ़े तीन सौ साल लगेंगे। जिस देश में इंसानों की औसत उम्र 70 बरस से कम ही है वहां पर अगर इंसाफ के लिए साढ़े तीन सौ बरस रूकने की सलाह किसी को दी जाए, तो लोग अदालतों के बजाय मुहल्ले के गुंडे को सुपारी देकर उससे अपनी पसंद का इंसाफ पाने की कोशिश करेंगे। वैसे भी आज भारत के अदालती इंतजाम में पसंद का फैसला पाने की संभावना ताकतवर और संपन्न तबके की ही अधिक होती है, कमजोर के इंसाफ पाने की गुंजाइश बहुत ही कम होती है।

मुख्य न्यायाधीश ने अदालतों के भ्रष्टाचार के बारे में न तो कुछ कहना था, और न उन्होंने कुछ कहा। लेकिन हिन्दुस्तानी अदालतों में इतने धीमे सिलसिले की एक वजह अदालती भ्रष्टाचार भी है जहां पर बाबुओं से लेकर जजों तक को रिश्वत देकर मनचाहे मामलों को मनमानी लेट करवाया जा सकता है। और एक बार लेट होने का यह सिलसिला जो शुरू होता है, तो फिर पांच लीटर दूध में मिलावट के मामले में फैसला आने में 27 बरस लगने पर हमने कुछ हफ्ते पहले ही इसी जगह पर लिखा था कि जिस मामले में प्रयोगशाला में तय होने वाले रासायनिक सुबूत के आधार पर फैसला होना था, उसमें भी चौथाई सदी लग गई, तो फिर पलटने वाले गवाहों, पुलिस जैसी कई मामलों में भ्रष्ट हो जाने वाली जांच एजेंसी, लोगों के गवाह खरीदने की ताकत के चलते हुए बाकी किस्म के मामलों में इंसाफ की गुंजाइश बहुत कम रह जाती है। हम मुख्य न्यायाधीश की जजों की कमी की फिक्र को भी कम अहमियत देते हैं, और नीति आयोग के अंदाज को भी पल भर के लिए किनारे रखना चाहते हैं, इस जरूरी बात पर पहले चर्चा करना चाहते हैं कि भारत के अदालती मामले सबसे अधिक संख्या में राज्यों की पुलिस से निकलकर आते हैं, जो कि घोर साम्प्रदायिक, या जातिवादी, या भ्रष्ट, या राजनीतिक दबावतले दबी हुई रहती हैं, और उनसे जांच और मुकदमे में ईमानदारी की उम्मीद कम ही की जाती है। इसलिए जजों की कमी का तर्क तो ठीक है, लेकिन उससे परे न्याय की प्रक्रिया में जहां-जहां कमियां और खामियां हैं, उनकी भी मरम्मत करने की जरूरत है।

प्रधानमंत्री ने इस मौके पर यह गिनाया कि उनकी सरकार ने पिछले सात बरसों में देश में गैरजरूरी हो चुके 14 सौ से अधिक पुराने कानूनों को खत्म किया है। उनकी यह शिकायत भी रही कि राज्यों के अधिकार क्षेत्र के ऐसे गैरजरूरी हो चुके कानूनों को राज्यों ने खत्म नहीं किया है। हिन्दुस्तान की न्याय व्यवस्था लागू न किए जा सकने वाले, या जानबूझकर लागू न किए जाने वाले कानूनों से लदी हुई है। यह सिलसिला भी खत्म होना चाहिए। इस देश में अंग्रेजों की छोड़ी गई गंदगी को सिर पर ढोने में हिन्दुस्तानियों के एक ताकतवर तबके को बड़ा फख्र हासिल होता है। यहां समलैंगिकता को अभी हाल तक जुर्म रखा गया था, और इसे जुर्म करार देने वाले अंग्रेज अपने देश में इस दकियानूसी सोच से जमाने पहले छुटकारा पा चुके थे। ऐसे ही बहुत से और कानून है जिनमें से एक पर अभी आज-कल में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होनी है, हिन्दुस्तानियों के खिलाफ अंग्रेजों का बनाया हुआ राजद्रोह का कानून आज तक इस लोकतंत्र की सरकारें अपने ही लोगों की असहमति के खिलाफ, सरकार की आलोचना के खिलाफ इस्तेमाल कर रही हैं। सुप्रीम कोर्ट को इसे खारिज करना चाहिए ताकि केन्द्र सरकार और बहुत सी राज्य सरकारें जो अलोकतांत्रिक मनमानी कर रही हैं, उन्हें यह अहसास हो सके कि वे काले हिन्दुस्तानियों पर राज कर रही गोरी सरकार नहीं हैं।

इसलिए हम हिन्दुस्तान की न्याय व्यवस्था की इस धीमी रफ्तार, और उसकी बेइंसाफी, बेरहमी को सिर्फ जजों की कमी से जोडक़र नहीं देखते, बल्कि मामलों को अदालत तक ले जाने वाली पुलिस की बुनियादी खामियों से जोडक़र भी देखते हैं, अदालतों के अपने भ्रष्टाचार से भी जोडक़र देखते हैं, और अदालतों के कम्प्यूटरीकरण, जेलों के साथ उनकी वीडियो सुनवाई, उसकी कार्रवाई को ऑनलाईन करने, और उसकी पूरी प्रक्रिया से भ्रष्ट मानवीय दखल को हटाने से भी जोडक़र देखते हैं। सत्ता पर बैठे हुए दुष्ट और भ्रष्ट किस्म के मुजरिम नेताओं के लिए यह बात सहूलियत की रहती है कि अदालतों की रफ्तार धीमी रहे, और नेताओं के मर जाने तक उनकी सरकारों का भ्रष्टाचार सजा न पा सके। शायद यही आत्महित सत्तारूढ़ नेताओं को जजों की कुर्सियां भरने से रोकता है। देश के मुख्य न्यायाधीश को अदालतों से जुड़े तमाम पहलुओं पर देश की जनता के सामने सब कुछ साफ-साफ पेश करना चाहिए क्योंकि यह उसकी जिंदगी, और उसके लोकतांत्रिक अधिकारों से जुड़ी हुई बात है।
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