संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : राजद्रोह का कानून, न तो इस देश को जरूरत है, और न ही संभालने लायक लोग हैं
11-May-2022 5:53 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : राजद्रोह का कानून, न तो इस देश को जरूरत है, और न ही संभालने लायक लोग हैं

सुप्रीम कोर्ट में अभी राजद्रोह कानून को लेकर बहस चल रही है। और यह बहस दो वकीलों की बीच में नहीं चल रही, यह अदालत और सरकारी वकील के बीच चल रही है। 1870 में आजादी के आंदोलन को कुचलने के लिए अंगे्रजों का लाया गया कानून आज डेढ़ सदी बाद भी आजाद हिंदुस्तान की पौन सदी पूरी होने के मौके पर जंगली घास की फसल सरीखे लहलहा  रहा है। देश और प्रदेशों की सरकारें एक-एक बयान पर, एक-एक कार्टून पर, एक-एक ट्वीट पर इस कानून का इस्तेमाल कर रही हैं, मानो आजाद हिंदुस्तान के किसी नागरिक के कुछ शब्द देश की सरकार को पलटने का काम करने जा रहे हैं। लोगों के शब्दों की इतनी कीमत तो कभी नहीं थी। अंगे्रजों के वक्त भी गांधी और नेहरू की कही और लिखी बातों पर उनके खिलाफ इस कानून का ऐसा अंधाधुंध इस्तेमाल नहीं हुआ था जैसा कि आज चल रहा है। आज जब हम इस मुद्दे पर लिख रहे हैं, सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार को इस बात का जवाब देना है कि यह कानून क्यों जारी रहना चाहिए, और अगर वह इस कानून पर पुनर्विचार कर रही है, तो वह पुनर्विचार होने तक राज्यों को इसके इस्तेमाल से रोक क्यों नहीं रही है?

अभी दोपहर आई खबर के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह कानून के तहत देश में चल रहे तमाम मामलों की कार्रवाई तब तक के लिए रोक दी है जब तक केंद्र सरकार इस कानून के प्रावधानों पर पुनर्विचार नहीं कर लेता।

जब कोई ताकत राज करती है, तो उसे द्रोह का डर सताते रहता है। फिर चाहे वह लोकतंत्र में निर्वाचित सरकार ही क्यों न हो, जिसका कि अधिकतम कार्यकाल 5 बरस का ही हो सकता है। दरअसल होता यह है कि हिंदुस्तान की संवैधानिक व्यवस्था के चलते हुए कोई पार्टी सत्ता पर 33 बरस लगातार रहने के दिन भी देखती है, तो कोई प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री 18-20 बरस तक भी लगातार रह लेते हैं। लोगों को राजद्रोह का खतरा शायद 5 बरस के कार्यकाल पर तो कम लगता होगा, लेकिन जब कार्यकाल की उम्मीद दशकों तक उडऩे लगती है, तो फिर ऐसे खतरे अधिक डराने लगते होंगे। दुनिया के बहुत से सभ्य लोकतंत्र अपने-आपको ऐसे 18वीं सदी वाले सामंती कानूनों से आजाद कर चुके हैं, लेकिन हिंदुस्तानियों की गुलाम-मानसिकता उन्हें गोरे अंगे्रज मालिकों के पखाने का टोकरा सिर पर ढोने का गौरव दिलाती रहती है, और अंगे्रजों की छोड़ी गई सर्द देश की पोशाक में आज उबलते हिंदुस्तान की अदालत में जज और वकील इस कानून पर बहस कर रहे हैं। गुलाम मानसिकता लोगों को हिंदुस्तान की जुबान से दूर करती है, इस देश के गरीबों से दूर करती है, और लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी बराबरी के हक से दूर करती है। इसलिए सत्ता पर बैठे हुए परले दर्जे के भ्रष्ट और दुष्ट लोग भी देश के जागरूक लोगों को उनका मुंह खुलने पर उसमें राजद्रोह के कानून पर तपाकर पिघलाया गया सीसा उसी तरह भर देते हैं, जिस तरह एक वक्त हिंदुस्तान में शूद्र के कानों में वेद के वाक्य पड़ जाने पर उनमें पिघला सीसा भर देने का कानून था। आज अगर इस देश का एक छात्रनेता प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बारे में गृह मंत्री अमित शाह का कहा हुआ शब्द, जुमला, दुहराता है, तो केंद्र सरकार के साथ-साथ हाईकोर्ट के जज भी इस छात्रनेता के मुंह में पिघला हुआ सीसा भर देने पर आमादा दिखते हैं। राजद्रोह का कानून ताकतवर के हाथ में हर कमजोर के खिलाफ, हर अकेले, हर जागरूक के खिलाफ अपने गलत कामों को बचाने के लिए ढाल की तरह है, यह एक अलग बात है कि इसे ढकोसले के लिए लोकतंत्र को बचाने के औजार की तरह दिखाया जाता है।

सुप्रीम कोर्ट में अभी चल रही बहस के दौरान सरकार शायद इसलिए इस पर पुनर्विचार का तर्क देकर इसकी सुनवाई को टालना चाह रही है कि कुछ ऐसे जज तब तक रिटायर हो जाएं जो कि सरकार को अपने हमदर्द नहीं लगते हैं। अदालतों में ऐसी धूर्तता एक आम तरकीब रहती है, और इसे भांपते हुए ही इस मामले में याचिकाकर्ता के वकील कपिल सिब्बल ने टालने की इस तरकीब का विरोध किया है और कहा है कि अदालत की कार्रवाई इसलिए नहीं रोकी जा सकती कि सरकार उस पर विचार करने की बात कर रही है। लेकिन इस मामले में वकील कपिल सिब्बल का एक तर्क उनकी पार्टी के लिए घातक साबित हुआ है जिसमें उन्होंने कहा कि नेहरू ने कहा था कि हम जितनी जल्दी राजद्रोह कानून से छुटकारा पा लें, उतना अच्छा है। बिना कहे हुए कांगे्रस पार्टी के बड़े-बड़े मंत्रालय संभाल चुके कपिल सिब्बल ने यह मंजूर कर लिया, याद दिला दिया कि नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह तक अनगिनत सरकारें चलाते हुए भी कांगे्रस पार्टी ने इस कानून को खत्म नहीं किया था। जाहिर है कि मौका मिलते ही केंद्र सरकार के वकील ने सिब्बल के जवाब में कहा कि हम वही करने की कोशिश कर रहे हैं जो नेहरू नहीं कर सके थे।

अभी सुप्रीम कोर्ट से आ रही ताजा जानकारी बता रही है कि केंद्र सरकार ने उसके पुनर्विचार तक इस कानून के तहत दर्ज मामलों पर कार्रवाई रोकने का विरोध किया है, और यह सुझाया है कि राजद्रोह के मामले पुलिस अधीक्षक की पड़ताल के बाद दर्ज करने की व्यवस्था की जाए। केंद्र सरकार का यह तर्क कॉमेडी शो जैसा लगता है क्योंकि आज तो पुलिस अधीक्षक ही नहीं, उनसे चार दर्जा ऊपर के अफसर भी सत्ता के सामने पांवपोंछना बने हुए बिछे रहते हैं, और सत्ता को नाखुश करने वाले कार्टूनिस्ट का सिर तोडऩे को एक पैर पर खड़े रहते हैं। हिंदुस्तान में राजनीतिक सत्ता का जो हाल है उसे देखते हुए इस तरह के कानून को इन बददिमाग और बेदिमाग हाथों में नहीं दिया जा सकता। पूरे देश में राजद्रोह के कानून का जिस कदर भयानक राजनीतिक और साम्प्रदायिक इस्तेमाल हो रहा है, वह किसी आतंकी समूह के हाथ परमाणु हथियार देने सरीखा है। इस लोकतंत्र को न तो ऐसे कानून की जरूरत है, और न ही इस लोकतंत्र की सत्ता ऐसा कानून संभालने के लायक है। अभी इस पल सुप्रीम कोर्ट के जज सुनवाई से बाहर आकर बंद कमरे में अपनी कार्रवाई तय कर रहे हैं, लेकिन उसके पहले ही हम इसके बुनियादी पहलू पर लिख रहे हैं जो कि अदालत के आज के रूख से अलग है।
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