संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : निकम्मे और भ्रष्ट को जनता के पैसों पर कब तक ढोना जायज होगा?
12-May-2022 4:57 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : निकम्मे और भ्रष्ट को जनता के पैसों पर कब तक ढोना जायज होगा?

रेलवे की खबर है कि मोदी सरकार ने रेल मंत्रालय के 19 अफसरों को जबरदस्ती वीआरएस दे दिया जिनमें 10 तो संयुक्त सचिव स्तर के अधिकारी थे। रेलवे ने पिछले 11 महीनों में 75 बड़े अफसरों को वीआरएस दिया है। इनके बारे में कहा गया है कि ये ईमानदारी से काम नहीं कर रहे थे, नालायकी दिखा रहे थे, या उनके काम को लेकर दूसरी शिकायतें थीं। अब इस बात से एक सवाल यह उठता है कि केन्द्र सरकार अफसरों के इसी दर्जे, संयुक्त सचिव स्तर पर बिना किसी इम्तिहान, बिना किसी मुकाबले लोगों की सीधी भर्ती भी कर रही है। लेटरल एंट्री कहे जाने वाले ऐसे दाखिले को लेकर लोगों के मन में वैसे भी यह सवाल खड़ा हुआ है कि यह यूपीएससी सरीखी परीक्षा में बराबरी का अवसर पाने का मौका लोगों से छीनता है, और सरकार मनचाहे लोगों की भर्ती कर रही है। ऐसे में बड़ी संख्या में अफसरों को नौकरी से निकालना भी इससे जोडक़र देखा जाना चाहिए कि सरकार जिन लोगों को नापसंद कर रही है, या सचमुच ही जिनका काम खराब है, उन्हें निकाला जा रहा है। इन दोनों बातों को एक साथ देखें तो केन्द्र सरकार की नौकरशाही में एक तेज रफ्तार बदलाव आ रहा है, और इसके नफे या नुकसान दोनों ही गिनाए जा सकते हैं।

लेकिन आज हम इस मुद्दे पर चर्चा इसलिए कर रहे हैं कि सरकारी या सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों को लेकर आम जनता के मन में लगातार यह नाराजगी और शिकायत रहती है कि ये लोग जनता के पैसों पर तनख्वाह पाते हैं, सहूलियतें पाते हैं, लेकिन काम की इनकी संस्कृति जनविरोधी रहती है। सोशल मीडिया पर लोग इस बात को लिखते आए हैं कि सरकारी अमला काम न करने की तनख्वाह लेता है, और काम करने की रिश्वत। और यह बात बहुत गलत भी नहीं है। हर विभाग के हर अफसर-कर्मचारी के पास रिश्वत लेने की गुंजाइश शायद न रहती हो, लेकिन हिन्दुस्तान में रिश्वत का सिलसिला किसी बदहाल तालाब पर फैली हुई जलकुंभी सरीखा है। लोगों को याद होगा कि सरकारी दफ्तरों में काम न करने की जो संस्कृति है उस पर कई हिन्दी टीवी सीरियल बन चुके हैं, और आम जनता मुसद्दीलाल सरीखी बदहाल भटकती रहती है। अब ऐसे में सरकारी नौकरी के लोगों को रिटायर होने की उम्र तक नौकरी की सुरक्षा देना क्या ठीक है?

प्रशासन के जानकार विशेषज्ञ कई किस्म की बातें कर सकते हैं, लेकिन वैसी जानकारी से नावाकिफ हमारे सरीखे मामूली समझ के लोग यह महसूस कर सकते हैं कि पूरी जिंदगी की नौकरी की गारंटी से सरकारी अमला निकम्मा हो जाता है। यही अमला किसी दर्जे का काम निजी दफ्तरों और दुकानों में इससे एक चौथाई तनख्वाह पर करने को तैयार रहता है, और चार गुनी तनख्वाह की हसरत लिए हुए सरकारी नौकरी कोशिश करते रहता है। निजी नौकरी में जहां कोई गारंटी नहीं होती है, कोई मजदूर कानून लागू नहीं होते हैं, वहां लोग मेहनत से काम करते हैं। और जब सरकार में सारी हिफाजत हासिल रहती है, एक कर्मचारी की सरकार पर लागत निजी क्षेत्र के मुकाबले चार गुना आती है, तो भी यह अमला काम नहीं करता। यह सरकार में भी है, और सरकारी क्षेत्र के बैंकों में भी है। एक सरकारी बैंक तो काम न करने के लिए इस कदर बदनाम है कि अभी जब एलन मस्क ने ट्विटर खरीदा, तो लोगों ने मजाक में एक ट्वीट गढ़ा कि मस्क ने ट्वीट किया कि उसने भारत के इस सबसे बड़े सरकारी बैंक को खरीदने का प्रस्ताव रखा, तो बैंक ने जवाब दिया कि अभी लंच चल रहा है, बाद में आना।

मुद्दे की बात पर आएं तो हमारा यह मानना है कि सरकारी नौकरी कई कड़ी शर्तों के साथ शुरू होनी चाहिए। तीस-पैंतीस बरस की सरकारी नौकरी रहती है, और इसे चार हिस्सों में बांटना चाहिए, और हर सात-आठ बरस के बाद कर्मचारी और अधिकारी का मूल्यांकन होना चाहिए, और सबसे खराब काम करने वाले लोगों की छंटनी करने का नियम रहना चाहिए। यह बात कर्मचारी संघों के नेताओं को बहुत खराब लगेगी, लेकिन जब वे आम जनता की नजर से देखेंगे तो सरकारी दफ्तरों में बैठे हुए निकम्मे, और ऊपर से भ्रष्ट लोगों से जनता को जो तकलीफ होती है, तब उन्हें हमारी बात का तर्क समझ आएगा। सरकारी नौकरी का कोई हिस्सा ऐसी सुरक्षा का नहीं रहना चाहिए कि लोग मनमाना भ्रष्टाचार करके भी कुर्सी पर बने रहें। हर आठ बरस में लोगों का प्रमोशन भी हो, और उसके ठीक पहले उनका मूल्यांकन हो। जिनका काम ठीक नहीं हो ऐसे एक चौथाई लोगों को हटाने का कानून रहना चाहिए। अगले आठ बरस बाद बाकी लोगों में से फिर एक चौथाई को हटा दिया जाए, और यह सिलसिला रिटायर होने तक चलता रहे। इससे कम किसी बात से हिन्दुस्तान के सरकारी कामकाज को सुधारना मुमकिन नहीं है।

हिन्दुस्तान में सत्ता की राजनीति, और सरकारी नौकरी, इन दोनों के बीच भ्रष्टाचार की एक मजबूत भागीदारी कायम हो चुकी है। इन दोनों ही मोर्चों पर जब तक बुनियादी सुधार नहीं होगा, तब तक जनता के हिस्से का पैसा इसी तरह डूबते रहेगा। आज देश का कानून जिस तरह भ्रष्ट और मुजरिम लोगों के साथ है, उन्हें अंत तक हिफाजत देते चलता है, वैसे में यह जरूरी है कि सरकारी नौकरी की सुरक्षा खत्म की जाए, और जिस तरह नौकरी के लिए एक दाखिला इम्तिहान होता है, उसी तरह नौकरी जारी रखने के लिए भी हर आठ बरस में एक मूल्यांकन हो जिससे कि लोगों को काम करने का प्रोत्साहन मिलता रहे। आज तो सरकारी कामकाज में हालत यह है कि सबसे काबिल और सबसे नालायक, इन दोनों किस्म के लोगों के बीच रिटायर होने तक कोई खास फर्क नहीं हो पाता है। बेहतर काम करने का कोई प्रोत्साहन सरकार में नहीं रहता है, और भ्रष्ट और नालायक होने से भी कोई नुकसान नहीं होता है। केन्द्र सरकार ने जिस तरह बड़ी संख्या में अफसरों को हटाया है, उसे हम पहली नजर में कोई बदनीयत नहीं मान रहे, और जिस तरह खेतों में से जंगली घास को हटाया जाता है, उसी तरह सरकार से बेकार अफसर-कर्मचारी हटाए जाने चाहिए।
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