अंतरराष्ट्रीय

श्रीलंका संकट से क्या सीख सकता है भारत
13-May-2022 9:35 AM
श्रीलंका संकट से क्या सीख सकता है भारत

-सरोज सिंह

भारत और श्रीलंका के बीच यूं तो तुलना नहीं की जा सकती. अर्थव्यवस्था के लिहाज से श्रीलंका बहुत ही छोटा मुल्क है और आबादी भी भारत की तुलना में बहुत कम है.

बावजूद इसके सोशल मीडिया पर इन दिनों कई ऐसे पोस्ट देखे जा सकते हैं, जिसमें कहा जा रहा है कि कुछ दिन पहले श्रीलंका में वही कुछ हो रहा था जो भारत में इन दिनों हो रहा है. तो क्या भारत भी श्रीलंका की राह पर है?

इस सवाल के जवाब में कई स्क्रीनशॉट शेयर किए जा रहे हैं जिसमें श्रीलंका की डेटलाइन से ख़बरें छपी है जिसमें हलाल बहिष्कार, मुसलमानों की दुकानों और मस्ज़िदों पर हमले और ईसाइयों के ख़िलाफ़ हिंसा की खबरें हैं.

हालांकि इन सब ख़बरों का श्रीलंका संकट में कितना हाथ है, इसके बारे में जानकारों की राय अलग-अलग है, लेकिन एक बात जिसपर जानकारों में आम राय है वो है इस संकट से लेने वाला सबक.

श्रीलंका में आज जो कुछ हो रहा है वो कहानी आर्थिक संकट के रूप में शुरू हुई थी. लेकिन इस आर्थिक संकट का असर राजनीतिक संकट के रूप में अब दुनिया के सामने है.

श्रीलंका - भारत
पर्याप्त विदेशी मुद्रा भंडार
इस लिहाज़ से श्रीलंका से भारत क्या सीख सकता है, उसे दो हिस्सों में बांटा जा सकता है - आर्थिक सबक और राजनीतिक सबक.

सोनीपत की अशोका यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर पूलाप्री बालकृष्ण कहते हैं दुनिया की सभी अर्थव्यवस्थाएं वैसे तो अलग होती हैं, लेकिन कुछ फॉर्मूले ऐसे होते हैं जो सभी पर लागू होते हैं.

उदाहरण के लिए अगर खाने का ज़रूरी सामान किसी देश में पर्याप्त मात्रा में नहीं होता है, तो उस देश को बाहर से वो सामान आयात करना पड़ता है, जिसके लिए विदेशी मुद्रा भंडार की ज़रूरत होती है. विदेशी मुद्रा हासिल करने के लिए उस देश को कुछ निर्यात करने की ज़रूरत पड़ती है, जिसके लिए अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में प्रतिस्पर्धा के लिए भी तैयार रहना चाहिए.

प्रोफ़ेसर पूलाप्री बालकृष्ण कहते हैं, "आर्थिक मोर्चे पर जो सबसे पहला सबक भारत को श्रीलंका संकट से लेने की ज़रूरत है वो है विदेशी मुद्रा भंडार पर नज़र रखने की. भारत का विदेशी मुद्रा भंडार कुछ महीनों में गिरा ज़रूर है, लेकिन फिलहाल वो साल भर के आयात बिल के भुगतान करने के लिए काफ़ी है. इस लिहाज से भारत के लिए चिंता की कोई बात नहीं है.

लेकिन लंबे अंतराल में केंद्र सरकार को इस बात पर ध्यान देने की ज़रूरत है कि भारत सरकार अपने आयात बिल को कैसे कम कर सके."

पारंपरिक तौर पर माना जाता है कि किसी देश का विदेशी मुद्रा भंडार कम से कम 7 महीने के आयात के लिए पर्याप्त होना चाहिए.

आयात बिल घटाने की ओर क़दम
भारत के लिए ज़रूरी है कि आने वाले दिनों में वैकल्पिक ऊर्जा स्रोत, कोयला के लिए विदेशी निर्भरता को कम करें साथ ही साथ खाने के तेल का उत्पादन किस तरह से देश में ही बढ़ाया जाए इस तरफ़ ध्यान देने की ज़रूरत है. इससे आयात बिल को कम करने और आत्मनिर्भर होने में मदद मिलेगी.

आँकड़ों के मुताबिक़ भारत अपनी ज़रूरत का कुल 80-85 फ़ीसदी तेल बाहर के मुल्कों से आयात करता है. पिछले कुछ दिनों से रूस-यूक्रेन संकट के बीच तेल के दामों में उछाल देखा गया. अगर भारत इसी तरह से तेल के लिए दुनिया के मुल्कों पर निर्भर रहा और तेल के दाम बढ़ते ही रहे, तो विदेशी मुद्रा भंडार खाली होने में वक़्त नहीं लगेगा. इस वजह से भारत को तेजी से ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोत पर निर्भरता बढ़ानी होगी. ये रातों रात नहीं हो सकता, इसके लिए लंबी प्लानिंग की ज़रूरत होगी.

यही हाल कोयले के क्षेत्र में भी है. बिजली के लिए भारत आयात किए गए कोयले पर निर्भर है. हाल के दिनों में कुछ राज्यों ने बिजली संकट का भी सामना किया.

खाने के तेल और सोना - इन दोनों की भी कहानी कोयला और पेट्रोल-डीजल से अलग नहीं है. भारत के आयात बिल का बड़ा हिस्सा इन पर भी ख़र्च होता है.

इस निर्भरता को कम करने के लिए सरकार के साथ साथ जनता को भी पहल करने की ज़रूरत है.

श्रीलंका संकट का दूसरा पहलू राजनीतिक भी है. उस लिहाज से भी कई ऐसी चीज़ें हैं जो भारत सीख सकता है.

सत्ता का केंद्रीकरण
प्रोफ़ेसर पूलाप्री कहते हैं सत्ता का केंद्रीकरण कुछ लोगों के हाथों में सालों तक होना भी किसी देश के हित में नहीं है.

श्रीलंका के बारे में वो कहते हैं कि जिस तरह से वहां सत्ता राजपक्षे परिवार का सालों से दबदबा रहा है, वैसे ही हालात कुछ कुछ भारत में भी है. यहाँ भी आर्थिक और राजनीतिक फैसले लेने का अधिकार सरकार के कुछ चुनिंदा सलाहकारों के हाथ में है. वैसे भारत में सभी सरकारें (चाहे केरल की राज्य सरकार हो या केंद्र की मोदी सरकार) पक्षपातपूर्ण रवैये के साथ ही काम कर रही है.

उनके मुताबिक़ श्रीलंका संकट से सबक लेते हुए भारत सरकार को इस रणनीति में बदलाव लाने की ज़रूरत है.

बहुसंख्यकवाद की राजनीति
श्रीलंका में बहुसंख्यक आबादी सिंहला है और तमिल अल्पसंख्यक. वहाँ की सरकार पर अक्सर बहुसंख्यकों की राजनीति करने का आरोप लगते रहे हैं.

ऐसा ही आरोप लगाते हुए कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने एक ट्वीट भी किया है.

उन्होंने लिखा, "लंबे समय तक श्रीलंका का छात्र रहने के कारण मैं कह सकता हूं कि इस सुंदर देश के संकट की जड़े छोटे समय से मौजूद आर्थिक वजहों से ज़्यादा बीते एक दशक से मौजूद भाषाई, धार्मिक और सांस्कृतिक बहुसंख्यवाद से जुड़ी हैं. इसमें भारत के लिए भी सबक हैं."

आज भारत में भी सभी राज्यों पर हिंदी भाषा थोपे जाने का आरोप कई ग़ैर बीजेपी शासित राज्य लगा रहे है. हिजाब, लाउडस्पीकर, मंदिर-मस्जिद विवाद, मीट पर विवाद की ख़बरें इन दिनों देश के अलग अलग राज्यों में आए दिन आ रही हैं.

प्रोफ़ेसर पूलाप्री कहते हैं, "बहुसंख्यकवाद की राजनीति को मैं सांस्कृतिक एजेंडे से जोड़ कर देखता हूं. इस तरह की राजनीति की वजह से देश के एक तबक ख़ुद को अलग-थलग महसूस करने लगती है. इसका परिणाम ये होता है कि सरकार का असल मुद्दों से ध्यान भटक जाता है."

जब किसी देश में ऐसा हो रहा हो, तो उसमें एक बड़ी भूमिका सिविल सोसाइटी और संवैधानिक संस्थाओं की भी होती है.

इस तरफ़ इशारा करते हुए कोटक महिंद्रा बैंक के सीईओ उदय कोटक ने ट्वीट किया, "रूस-यूक्रेन युद्ध चल रहा है और ये मुश्किल ही होता जा रहा है. देशों की असल परीक्षा अब है. न्यायपालिका, पुलिस, सरकार, संसद जैसी संस्थाओं की ताक़त मायने रखेगी. वो करना जो सही है, लोकलुभावन नहीं, महत्वपूर्ण है. एक 'जलता लंका' हम सबको बताता है कि क्या नहीं करना चाहिए."

मनोहर पर्रिकर रक्षा अध्ययन और विश्लेषण संस्थान (आईडीएसए) में श्रीलंका मामलों पर नज़र रखने वालीं एसोसिएट फ़ेलो डॉक्टर गुलबीन सुल्ताना भी उदय कोटक की बात से सहमत नज़र आती है.

श्रीलंका की आज के हालात के लिए वो कई वजहों को ज़िम्मेदार मानती है. उनके मुताबिक़ कर्ज़ का बोझ, सरकार चलाने का तरीका, उनकी नीतियां सब कहीं ना कहीं ज़िम्मेदार हैं. इस वजह से वो कहती हैं कि भारत सरकार इतना सबक तो ले सकती है कि गवर्नेंस को कभी नज़रअंदाज नहीं करना चाहिए और केवल वोट की राजनीति के लिए फैसले नहीं लेने चाहिए जैसा श्रीलंका सरकार ने किया.

उदाहरण देते हुए वो कहती हैं, 2019 में राष्ट्रपति चुनाव के मद्देनज़र गोटाबाया राजपक्षे जनता को टैक्स में छूट देने का वादा किया था. जब वो सत्ता में आए तो उन्होंने इसे लागू भी कर दिया. उस टैक्स में छूट की वजह से सरकार की कमाई पर बहुत असर पड़ा.

साफ़ था, वादा करते समय केवल चुनावी फ़ायदा देखा गया, जानकारों की राय या अर्थव्यवस्था पर असर को नज़रअंदाज़ किया गया. ऐसे में ज़रूरत थी कि संसद और न्यायपालिका या सिविल सोसाइटी की आवाज़ मुखर होती.

भारत में भी ऐसे चुनावी वादे खूब किए जाते हैं. कभी मामला कोर्ट में पहुँचता है, कभी सिविल सोसाइटी इस पर शोर मचाती है तो कभी देश की संसद में हंगामा होता है.

त्वरित फायदे के लिए लंबा नुक़सान
डॉक्टर सुल्ताना श्रीलंका सरकार के एक और अहम फैसले की तरफ़ ध्यान देने की बात करती हैं.

श्रीलंका के आर्थिक संकट के बीच सरकार को ऐसा लगा कि यदि खाद का आयात रोक दिया जाए तो विदेशी मुद्रा बचाई जा सकती है. और अप्रैल 2021 में गोटाबाया राजपक्षे ने खेती में इस्तेमाल होने वाले सभी रसायनों के आयात पर रोक लगाने की घोषणा कर दी.

मगर सरकार इस फैसले के दूरगामी परिणाम के बारे में नहीं सोच पाई. नतीजा ये हुआ कि पैदावार पर असर पड़ा. बिना खाद के कृषि उत्पादन बहुत कम हुआ. नवंबर आते आते सरकार को फैसला बदलना पड़ा.

इस वजह से डॉक्टर सुल्ताना कहतीं है, "सरकार द्वारा लिए गए फ़ैसलों में अलग-अलग एक्सपर्ट की राय लेना ज़रूरी है. भारत सरकार को भी ये समझने की ज़रूरत है.

त्वरित फायदे के लिए लिए गए फैसले लंबे समय में नुक़सानदायक हो सकते हैं." (bbc.com)

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