विचार / लेख
सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय बेंच में चीफ जस्टिस रमन्ना, जस्टिस सूर्यकान्त तथा जस्टिस हिमा कोहली ने राजद्रोह के नये पुराने मुकदमों की कार्यवाही रोककर केन्द्र सरकार को दो माह का वक्त पुनर्विचार के लिए दिया है। अगस्त में रिटायर होने वाले जस्टिस रमन्ना के कार्यकाल की यह उपलब्धि कही जाएगी।
राजनेता, मीडिया, पुलिस और जनता में देशद्रोह, राजद्रोह और राष्ट्रद्रोह शब्दों का कचूमर निकलता रहता है। देशद्रोह और राजद्रोह शब्द भारतीय दंड संहिता में हैं ही नहीं, फिर भी धड़ल्ले से इस्तेमाल में हैं। सबसे मशहूर मामला गांधी का 1922 में हुआ। गांधी ने तर्क किया ब्रिटिश कानून की अवज्ञा करना उन्हें नैतिक कर्तव्य लगता है। उन्होंने कहा यह कानून वहशी है। राजद्रोह भारतीय दंड संहिता में राजनीतिक अपराधों का राजकुमार है। वह नागरिक आजादी को कुचलना चाहता है। हुकूमत के लिए प्रेम या लगाव मशीनी तौर पर पैदा नहीं किया जा सकता और न ही उसे कानून के जरिए लागू किया जा सकता है। एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति से प्रेम या घृणा हो तो उसे जाहिर करने की आज़ादी होनी चाहिए, बशर्ते वह हिंसा नहीं भड़काए। गांधी ने कहा भारत में राजनीतिज्ञों पर मुकदमे चलाए जा रहे हैं। उनमें हर दस में नौ लोग बेकसूर हैं। उनका यही अपराध है कि वे अपने देश से मोहब्बत करते हैं।
संविधान सभा में भी ‘राजद्रोह‘ को स्वतंत्रता के बाद कायम रखने के खिलाफ जीवंत बहस हुई थी। कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, सेठ गोविन्ददास, अनंतशयनम आयंगर और सरदार हुकुम सिंह ने इस सड़ांध भरे अपराध को निकाल फेंकने के पक्ष में पुरजोर तर्क रखे। इतिहास का सच है संविधान लिखने की शुरुआत में मूल अधिकारों की उपसमिति के सभापति सरदार पटेल ने राजद्रोह को अभिव्यक्ति की आज़ादी और वाक् स्वातंत्र्य के प्रतिबंधों की सूची में शामिल किया था। सोमनाथ लाहिरी ने इस अपराध को वाक् स्वातंत्र्य और अभिव्यक्ति की आज़ादी का रोड़ा बनाए जाने पर व्यंग्य में यहां तक पूछा क्या सरदार पटेल सोचते हैं कि स्वतंत्र भारत की सरकार को ब्रिटिश सरकार से भी ज़्यादा नागरिक विरोधी शक्तियां मिलनी चाहिए? ऐसा हुआ तो हर तरह का राजनीतिक विरोध कुचला जा सकेगा। दूसरे दिन ही सरदार पटेल ने राजद्रोह के अपराध को जनअभिव्यक्तियों के पर कुतरने वाले सरकार के बचाव के हथियार के रूप में रखने से इंकार कर दिया।
संविधान के अनुच्छेद 19 (1) में बोलने और अभिव्यक्ति की आज़ादी के खिलाफ कानून के जरिए प्रतिबंध लगाए जाने को प्रख्यात समाजवादी नेता राममोहर लोहिया ने बार बार चुनौती दी। लेकिन सबसे चर्चित मुकदमे केदारनाथ सिंह के 1962 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के कारण राजद्रोह का अपराध भारतीय दंड संहिता की आंतों में छुपकर नागरिकों को बेचैन और आशंकित करता थानेदारों के जरिए सरकारों को हौसला देता रहता है। लंबे बहस मुबाहिसे के बाद राजद्रोह के अपराध को दंड संहिता से निकाल फेंकने की अपील पर सुप्रीम कोर्ट ने इनकार कर दिया। दरअसल केदारनाथ सिंह ने तो यहां तक कहा था कि सीआईडी के कुत्ते बरौनी के आसपास निठल्ले घूम रहे हैं। कई कुत्ते-अधिकारी बैठक में शामिल हैं। भारत के लोगों ने अंगरेज़ों को भारत की धरती से निकाल बाहर किया है, लेकिन कांग्रेसी गुंडों को गद्दी सौंप दी। आज ये कांग्रेसी गुंडे लोगों की गलती से गद्दी पर बैठ गए हैं। यदि हम अंगरेज़ों को निकाल बाहर कर सकते हैं, तो कांग्रेसी गुंडों को भी निकाल बाहर करेंगे। सुप्रीम कोर्ट ने अपने कुछ पुराने मुकदमों पर निर्भर करते कहा कि राजद्रोह की परिभाषा में ‘राज्य के हित में‘ नामक शब्दांश की बहुत व्यापक परिधि है। उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती।
जानना दिलचस्प है केदारनाथ सिंह के प्रकरण में सुुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने संविधान सभा द्वारा राजद्रोह की छोड़छुट्टी का तर्क भी उल्लिखित नहीं किया। 1951 में ही सुप्रीम कोर्ट ने रमेश थापर की पत्रिका ‘क्राॅसरोड्स‘ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुख्य पत्र ‘आर्गनाइज़र‘ में क्रमश: मद्रास और पंजाब की सरकारों द्वारा प्रतिबंध लगाने के खिलाफ बेहतरीन फैसले दिए थे। उनके कारण नेहरू मंत्रिपरिषद को संविधान में संशोधन करते हुए अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध लगाने के आधारों में राज्य की सुरक्षा तथा लोकव्यवस्था को जोड़ना पड़ा था। को संशोधित करना पड़ा था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राजद्रोह का अपराध चिंताएं करता हुआ बनाया गया है। इसलिए उसे दंड संहिता से बेदखल नहीं किया जा सकता। यह भी कहा कि कानूनसम्मत सरकार तो अलग अभिव्यक्ति है। उसे चलाने वाले अधिकारियों को सरकार नहीं माना जा सकता।
भारतीय दंड संहिता के जरिए सरकारों को बहुत गुमान है कि राजद्रोह उनका गोद पुत्र है। वह अंगरेज मां की कोख से जन्मा है। भारतीय दंड संहिता भारतीय नागरिकों की धाय मां है। राजद्रोह को अंगरेज बच्चा भारत माता की कोखजाई सन्तानों को अपनी दुष्टता के साथ गिरफ्तार करता रहता है। दुर्भाग्य है इस अपराध को दंड संहिता से बेदखल नहीं किया जा सका। गुलाम भारत की सरकार की समझ, परेशानियां और चिंताएं और सरोकार अलग थे। राजद्रोह का अपराध हुक्काम का मनसबदार है। अब तो लेकिन जनता का संवैधानिक राज है। राष्ट्रपति से लेकर निजी स्तर तक सभी जनता के ही सेवक हैं। फिर भी मालिक को लोकसेवकों के कोड़े से हंकाला जा रहा है।
केदारनाथ सिंह के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने दंड संहिता के अन्य प्रावधानों के संबंध में व्यापक अवलोकन कर लिया होता तो राजद्रोह को कानून की किताब से हटा देने का एक अवसर बहस में आ सकता था। दंड संहिता के अध्याय 6 में राजद्रोह के साथ कुछ और अपराध हमजोली करते हैं। उनके लिए राजद्रोह के मुकाबले कम सजाओं का प्रावधान नहीं है। ‘राज्य की सुरक्षा‘ जैसा शब्दांष बेहद व्यापक और लचीला है। सरकार या हुक्कामों के खिलाफ कोई विरोध की आवाज उठाता है तो केवल उससे राज्य की सुरक्षा को खतरा हो सकता है- ऐसा भी तो सुप्रीम कोर्ट ने नहीं कहा। आजादी के संघर्ष के दौरान जिस कौमी विचारधारा ने नागरिक आज़ादी को सरकारी तंत्र के ऊपर तरजीह दी। आज उनके प्रशासनिक वंशज इतिहास की उलटधारा में देश का भविष्य कैसे ढूंढ़ सकते हैं? राज के खिलाफ द्रोह करना जनता का मूल अधिकार है। यही जनता द्वारा बनाए गए संविधान ने खुद तय कर लिया है कि वह हिंसक नहीं होगा। जनता ही तो राज्य है, उसके नुमाइंदे नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने केदारनाथ के प्रकरण में राजद्रोह की संवैधानिकता पर मुहर लगाई थी। तब इंग्लैंड में प्रचलित समानान्तर प्रावधानों का सहारा लिया था। इंग्लैंड में तो अब संबंधित धारा का विलोप कर दिया गया है। न्यूजीलैंड, कनाडा, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया वगैरह में भी इस तरह के कानून की कोई उपयोगिता प्रकट तौर पर नहीं रह गई है।