संपादकीय
-सुनील कुमार
अभी सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐसा क्रांतिकारी आदेश दिया है जिससे हिन्दुस्तान में वेश्यावृत्ति को कानूनी दर्जा देने की लंबे समय से चली आ रही एक सोच को शक्ल मिली है। सुप्रीम कोर्ट ने देश की पुलिस को हिदायत दी है कि बालिग और सहमति से यौन संबंध बनाने वाले सेक्सकर्मियों के काम में दखल न दे। अदालत ने यह भी कहा कि पुलिस को इनके खिलाफ जुर्म भी दर्ज नहीं करना चाहिए। तीन जजों की एक बेंच ने वेश्यावृत्ति को एक पेशा मानते हुए कहा कि कानूनन इस पेशे को भी इज्जत और हिफाजत मिलनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने नागरिकों के बुनियादी हक का जिक्र करते हुए कहा कि पेशा चाहे जो हो, देश में हर व्यक्ति को संविधान इज्जत की जिंदगी जीने का हक देता है, और दूसरे किसी भी नागरिक की तरह यौनकर्मी भी समान रूप से हिफाजत के हकदार हैं। अदालत ने यह भी साफ किया है कि अगर किसी वेश्यालय पर छापा मारा जाए तो वेश्याओं को गिरफ्तार या दंडित नहीं किया जाना चाहिए।
वेश्या नाम से ही नफरत करने वाली आम मर्दाना हिन्दुस्तानी सोच, और हिन्दुस्तान के एक गढ़े हुए फर्जी इतिहास के दावेदारों को सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश से भारी सदमा लगेगा। अब तक कोई वेश्या अपना बदन बेचकर जितनी कमाई करती थी, उसका एक बड़ा हिस्सा चकलाघर चलाने वाले लोग, दलाल, और पुलिस के लोग ले जाते थे। उसके बदन पर पलते कई लोग थे, लेकिन गालियां महज उसका बदन पाता था। आज जब लोग देश को बेच रहे हैं, सरकारी कुर्सियों पर बैठे हुए ईमान को बेच रहे हैं, दूसरे पेशों और धंधों में लगे हुए लोग हर नीति-सिद्धांत को बेच रहे हैं, वहां गाली खाने लायक बिक्री महज एक वेश्या की देह मानी जाती है। और इसी का नतीजा है कि सुप्रीम कोर्ट ने कुछ अरसा पहले सेक्सकर्मियों को लेकर सिफारिशें देने के लिए एक पैनल बनाया था, और अभी उस पैनल की सिफारिशें आने पर केन्द्र सरकार की राय लेकर कुछ सिफारिशों पर आदेश जारी किया है, और कुछ दूसरी सिफारिशों पर केन्द्र की असहमति देखते हुए उन पर केन्द्र सरकार से छह हफ्ते में जवाब मांगा है।
यह फैसला हिन्दुस्तान के नागरिकों के बीच समानता को कुचलने वाले बूट को हटाने वाला दिख रहा है। हम इस अखबार में बीते बरसों में कई बार वेश्यावृत्ति को कानूनी दर्जा देने की वकालत करते आए हैं, और कल सुप्रीम कोर्ट ने ठीक वही किया है। अभी इस पर आखिरी फैसला नहीं आया है, लेकिन जिन सीमित बातों को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने साफ-साफ आदेश सभी राज्यों और केन्द्र प्रशासित प्रदेशों को दिया है, वह क्रांतिकारी है। वह समाज के सबसे अधिक कुचले हुए, और सबसे अधिक शोषित तबके को इंसानी हक देने वाला है। सुप्रीम कोर्ट जजों ने यह साफ किया है कि किसी वेश्यालय पर छापा मारा जाए तो भी किसी सेक्स वर्कर को गिरफ्तार, दंडित, परेशान, या पीडि़त नहीं करना चाहिए, क्योंकि सिर्फ वेश्यालय चलाना अवैध है, वेश्यावृत्ति नहीं। इसलिए कार्रवाई सिर्फ वेश्यालय चलाने वाले पर की जाए। अदालत ने इस मामले में दो बड़े सीनियर वकीलों को न्यायमित्र नियुक्त किया था, और उनकी इस सिफारिश को भी अदालत ने माना है कि अधिकारी किसी वेश्या को उसकी मर्जी के खिलाफ लंबे समय तक सुधारगृह में रखते हैं, और यह सिलसिला गलत है। अदालत ने यह सुझाया है कि मजिस्ट्रेट के सामने पेश की गई सेक्स वर्कर अपनी मर्जी से यह काम कर रही है या किसी दबाव में, यह तुरंत ही तय किया जा सकता है, और उन्हें उनकी मर्जी के खिलाफ किसी सुधारगृह में रखना गैरकानूनी है।
जब देश की संसद कड़वे फैसले लेने से कतराती हो, जब राजनीतिक दल देश के झूठे गौरव का गुणगान करके अपनी दुकान चलाते हों, तब संसद के हिस्से के कई काम अदालतों को करने पड़ते हैं। वेश्यावृत्ति को लेकर अदालत का यह आदेश, और उसका रूख इसी बात का सुबूत है। देश के एक इतने खुले हुए सच के अस्तित्व को ही मानने से तमाम सत्तारूढ़ ताकतें जिस हद तक परहेज करती हैं, उसे देखना हक्का-बक्का करता है। इस देश में वेश्या शब्द की मौजूदगी को ही नकार देने का मतलब उन्हें मुजरिमों, दलालों, और पुलिस के हाथों शोषण का शिकार करने के लिए छोड़ देने के अलावा कुछ नहीं है। जिस समाज में कोई महिला अपनी पसंद या बेबसी के चलते अपनी देह बेच रही है, उसे खरीदने को तो पूरी मर्द-जमात खड़ी है, लेकिन फारिग हो जाने के बाद उन्हें इंसान भी मानने से इंकार कर देने की मर्दानी सोच इस देश पर हावी है। इसलिए यह लोकतांत्रिक फैसला लेने का फख्र संसद को हासिल नहीं हो पाया, अदालत को हासिल हुआ है। इस देश की संसद, और उसे हांक रही सरकार अभी कुदाली लेकर डायनासॉर की हड्डियों तक पहुंचने की खुदाई में लगी हुई है, इसलिए 21वीं सदी के 22वें बरस की हकीकत का सामना करने का काम अदालत को करना पड़ रहा है।
इस फैसले से हिन्दुस्तान की पुलिस को एक सदमा लगेगा क्योंकि अभी तक देह के धंधे को जुर्म बनाने का उसका आसान सिलसिला खत्म हो गया है। किसी होटल या किसी घर में साथ रहने वाले दो बालिग लडक़े-लडक़ी या आदमी-औरत को परेशान करने के लिए उन पर कई बार ऐसा जुर्म कायम कर दिया जाता था, और यह आसान हथियार अब उसके हाथ से निकल गया है। हम अदालत के इस आदेश और इस रूख की तारीफ करते हैं, और यह उम्मीद करते हैं कि वेश्याओं के पुनर्वास के लिए, उनके नाबालिग बच्चों की भलाई के लिए जिन मुद्दों पर अभी फैसला आना बाकी है, उन मुद्दों पर देश के इस सबसे बेजुबान तबके को उसका जायज हक मिलेगा। भारतीय लोकतंत्र को यह आत्मविश्लेषण भी करना चाहिए कि क्यों उसकी संसद, और सरकार अपनी जिम्मेदारी से इस हद तक मुंह चुराती हैं कि अदालत को आगे आकर नागरिकों को उनका बुनियादी हक दिलाना पड़ता है?