संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : भीड़त्या के लिए चेहरे पेश करना कितना कानूनी है?
16-Jun-2022 1:26 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  भीड़त्या के लिए चेहरे पेश करना कितना कानूनी है?

दो दिन पहले झारखंड के राज्यपाल, देश के सबसे सीनियर सांसद रह चुके रमेश बैस की तरफ से मीडिया को भेजी गई एक जानकारी में बताया गया था कि रांची के राजभवन में उन्होंने पुलिस के बड़े अफसरों को बुलाकर रांची में दस जून और उसके बाद हुई घटनाओं के बारे में खुलासे से जानकारी ली थी। दस जून के वहां के प्रदर्शन में पुलिस गोली से दो मौतें हुई थीं, और उस बारे में राज्यपाल ने पूछा था कि इतनी हिंसा को रोकने के लिए पहले से बचाव की कार्रवाई क्यों नहीं की गई थी? पुलिस की तैयारी क्यों नहीं थी? उन्होंने अफसरों से यह भी कहा था कि प्रदर्शन करने वाले लोगों और गिरफ्तार लोगों की तस्वीरों को नाम-पते के साथ देकर शहर के प्रमुख जगहों पर होर्डिंग लगाए जाएं ताकि जनता उन्हें पहचान सके। अब राज्यपाल की तरफ से ही मीडिया को बैठक की भेजी गई इस जानकारी के बाद रांची पुलिस ने ऐसे होर्डिंग बनाकर जारी किए थे जिनमें उपद्रव करते लोगों के चेहरे दिख रहे थे, और उन्हें पहचान कर उनके बारे में पुलिस को खबर करने की अपील की गई थी। लेकिन पुलिस ने इसके बाद प्रेस नोट जारी किया कि इन वांछित उपद्रवियों के फोटो में संशोधन करने के लिए उसे वापिस लिया जा रहा है। इसके पहले झारखंड सरकार के गृहसचिव की रांची एसएसपी को लिखी एक चिट्ठी सामने आती है जिसमें कहा गया है ऐसी तस्वीरों के पोस्टर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक फैसले के खिलाफ है, और इस बारे में स्पष्टीकरण दें। जाहिर है कि झारखंड में देश के एक सबसे वरिष्ठ भाजपा सांसद रहे, और अब राज्यपाल, रमेश बैस के निर्देशों पर काम कर रही पुलिस अपनी ही सरकार के निशाने पर आ गई है। राज्यपाल की तरफ से मीडिया को अफसरों संग उनकी बैठक की जो जानकारी भेजी गई थी, उसमें यह बात साफ थी कि उन्होंने ऐसे होर्डिंग लगाने के निर्देश दिए हैं।

ऐसे होर्डिंग लगाने के खिलाफ दाखिल एक जनहित याचिका में दो बरस पहले इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने साफ-साफ एक आदेश दिया था। उत्तरप्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सरकार ने सार्वजनिक प्रदर्शनों में उपद्रव करने के कथित आरोपियों की तस्वीरों, और उनके नाम-पते के साथ होर्डिंग लगाए थे, जिनमें कई शांतिपूर्ण सामाजिक कार्यकर्ताओं के नाम-फोटो भी लगाए गए थे। इस मामले में वहां के हाईकोर्ट ने एक आदेश दिया था। भारत की न्याय व्यवस्था के मुताबिक समान किस्म के मामलों में दूसरे प्रदेशों में भी किसी दूसरे प्रदेश के हाईकोर्ट के फैसलों का हवाला दिया जाता है, और झारखंड सरकार ने ऐसे ही एक हवाले के साथ राजधानी के एसएसपी को दिए नोटिस में इसका जिक्र किया है, जो कि चि_ी में लिखे बिना भी राज्यपाल के निर्देश को यह आईना दिखाना है कि ऐसे मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने क्या फैसला दिया था।

अदालत की पूरी प्रक्रिया को किनारे रखकर जिस तरह से बुलडोजर चलाए जा रहे, ठीक उसी तरह ऐसे होर्डिंग भी लगाए जा रहे हैं। उत्तरप्रदेश के भाजपा के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ये दोनों काम किए हैं, और इनमें से एक, बुलडोजर अभी भी पूरी रफ्तार से जारी है। जब सरकार ही यह तय करने लगे कि कौन उपद्रवी है, कौन मुजरिम है, उसके परिवार की संपत्ति को कितना जमींदोज करना जायज होगा, तो फिर अदालत की जरूरत ही क्या है? इस पर हम अभी एक-दो दिनों में ही खुलासे से लिख चुके हैं, जिसे दुहराना जगह बर्बाद करना होगा, लेकिन झारखंड के राज्यपाल के ताजा निर्देश को देखते हुए हम उसका जिक्र भर कर रहे हैं। झारखंड में सरकार तो भाजपा की नहीं है, लेकिन वहां के राज्यपाल भाजपा से आए हैं, और दिल्ली की भाजपा-अगुवाई वाली सरकार के भेजे हुए हैं। इसलिए वहां की सरकार की रीति-नीति से परे भी उन्होंने अफसरों को राजभवन बुलाकर एक निर्देश दिया जिसके मुताबिक आरोपियों और संदिग्ध लोगों के ये होर्डिंग जारी किए गए। इसके खतरे को समझना जरूरी है। आज जब देश में वैसे भी गोश्त के एक टुकड़े को लेकर लोगों का कत्ल किया जा रहा है कि वह गोमांस है, तब सरकार की तरफ से कुछ लोगों की तस्वीरें और नाम-पते संदिग्ध उपद्रवी की तरह पेश करके उन्हें भीड़त्या के लिए पेश किए जाने के बराबर है। झारखंड की राजधानी की पुलिस ने राज्यपाल के जुबानी निर्देशों को मानते हुए कानून के अपने सामान्य ज्ञान का इस्तेमाल भी नहीं किया, और एक सहज लोकतांत्रिक समझ का भी नहीं, कि संदेह के आधार पर लोगों को निशाना बनाकर पेश करना अपने आपमें एक जुर्म है। इससे देश के अल्पसंख्यक तबके के लोगों की जिंदगी खतरे में डालने का काम भी किया जा रहा है, और चाहे राज्यपाल ही क्यों न कहे, अफसरों को यह काम नहीं करना था, और इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले की जानकारी हर बड़े अफसर को होगी, यह उम्मीद तो की ही जाती है। एक राज्य की पुलिस के खिलाफ हाईकोर्ट जब कोई फैसला देता है, तो बाकी राज्यों के बड़े पुलिस अफसर भी उसे गौर से पढ़ते ही हैं, और राजभवन की बैठक में प्रदेश के तीन बड़े पुलिस अफसरों की मौजूदगी का जिक्र किया गया था।

संदेह के आधार पर लोगों की जिंदगी खतरे में डालना, उनके खिलाफ हिंसा के लिए दूसरे हिंसक तबकों को उकसाने के बराबर है। यह किसी राज्य में राज्य शासन का काम हो, या किसी दूसरे राज्य में राजभवन का, इससे उन प्रदेशों में हालात और बिगडऩे का पूरा खतरा रहता है, और सत्ता को अपने स्तर पर ऐसा इंसाफ करने में नहीं जुट जाना चाहिए जिसके लिए हिन्दुस्तानी लोकतंत्र में न्यायपालिका बनाई गई है। सुप्रीम कोर्ट एक याचिका पर सुनवाई कर सकता है जिसमें देश के बहुत से भूतपूर्व जजों ने बुलडोजरी इंसाफ के खिलाफ अदालत से कार्रवाई करने की अपील की है। यह अपील करने वालों में तीन भूतपूर्व सुप्रीम कोर्ट जज हैं जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट को याद दिलाया है कि अदालत कितना खरा सोना है, यह आज जैसे हालात की अग्निपरीक्षा में ही साबित होता है।

आज यह बात साफ है कि सरकारें और राजभवन जिस तरह अदालत के अहाते में अतिक्रमण कर रहे हैं, उसके खिलाफ अदालत की आंखें खुलनी चाहिए। कल के दिन अगर सुप्रीम कोर्ट के जज अपने आपको सांसद या मंत्री घोषित करने लगेंगे, खुद सरकार चलाने लगेंगे, तो लोकतंत्र कहां बचेगा?
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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