संपादकीय

देश में आज चल रहे सबसे बड़े साम्प्रदायिक बवाल की जड़, भाजपा की उस वक्त की प्रवक्ता नुपूर शर्मा पर एक कड़ी टिप्पणी करने वाले सुप्रीम कोर्ट के जज जे.बी.पारदीवाला ने दो दिन पहले एक कार्यक्रम के दौरान कहा कि सोशल और डिजिटल मीडिया पर आज कल जजों के फैसलों के रचनात्मक और आलोचनात्मक मूल्यांकन के बजाय उनके खिलाफ निजी राय जाहिर की जा रही है जिससे ज्युडिशियरी को नुकसान पहुंच रहा है, और यह उसकी गरिमा को कम कर रहा है। उन्होंने कहा कि इस मायने में कानून के शासन को बनाए रखने के लिए डिजिटल और सोशल मीडिया को रेगुलेट किया जाना जरूरी है। दरअसल जस्टिस पारदीवाला ने नुपूर शर्मा को लेकर बड़ी कड़ी टिप्पणियां की थीं, जिन्हें लेकर कांग्रेस जैसी विपक्षी पार्टी को सत्तारूढ़ भाजपा पर कड़ा हमला करने का मौका मिला था। सोशल मीडिया पर भी नुपूर शर्मा के आलोचक इन टिप्पणियों को लेकर हिन्दू साम्प्रदायिक ताकतों, और भाजपा पर टूट पड़े थे, दूसरी तरफ नुपूर शर्मा के प्रशंसकों ने सुप्रीम कोर्ट जज की इस टिप्पणी के खिलाफ सोशल मीडिया पर #सुप्रीमकोठा नाम से एक अभियान छेड़ा था। लोगों ने जस्टिस पारदीवाला की जमकर आलोचना शुरू की थी। मोटेतौर पर नुपूर शर्मा फैंस क्लब का यह भी कहना था कि नुपूर शर्मा अपनी जीवनरक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट तक पहुंची थी, लेकिन वहां जज ने देश के साम्प्रदायिक तनाव के लिए नुपूर शर्मा को अकेले ही जिम्मेदार ठहराकर उसकी जिंदगी और खतरे में ही डाल दी। साम्प्रदायिकता के खिलाफ मुखर बहुत से धर्मनिरपेक्ष लोगों ने जस्टिस पारदीवाला की बातों को आज की जरूरत बताया, और कहा कि जब सरकार खुद होकर साम्प्रदायिकता के किसी खतरे को मानने को तैयार नहीं है, तब एक जज का यह कहना जरूरी था, और जायज था।
अब अगर इस एक मामले से परे होकर देखें, तो इसी जज की कही हुई एक बात तो आगे बढ़ाने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि सोशल और डिजिटल मीडिया का पूरी तरह से कानूनी और संवैधानिक मुद्दों के राजनीतिकरण के लिए इस्तेमाल किया जाता है। उन्होंने कहा कि जो मामले अदालत में चल रहे हैं, उनकी मीडिया में ऐसी समीक्षा से जज यह सोचने लग सकते हैं कि किसी मुद्दे पर मीडिया क्या सोचता है, और वे कानून क्या कहता है के बजाय मीडिया क्या कहता है इस पर अधिक ध्यान देने लग सकते हैं।
यह मुद्दा महत्वपूर्ण भी है, और महत्वहीन भी है। भारत जैसे लोकतंत्र में, या किसी भी लोकतंत्र में जजों को जनता की प्रतिक्रियाओं को जानते हुए ही किसी मामले की सुनवाई करनी होती है, और फैसला देना होता है। वे अपने आपको बिजली के तार की तरह प्लास्टिक या रबर के घेरे में नहीं सकते, और उन्हें मीडिया या दूसरी सामाजिक प्रतिक्रियाओं के बीच ही सांस लेना होता है, और उसी बीच काम करना होता है। ऐसा भी नहीं कि केवल सुप्रीम कोर्ट के जज ही बाहर की प्रतिक्रियाओं को देखते-सुनते हैं। लोकतंत्र के बाकी लोग भी जजों की बातों को सुनते हैं, और पिछले कुछ हफ्तों में भारत के मुख्य न्यायाधीश ने योरप और अमरीका के अपने दौरे के दौरान निजी कार्यक्रमों में भी जो बातें कही हैं, उन्हें भी तमाम लोग सुन रहे हैं, और हिन्दुस्तान में सरकार में कुछ लोग उनके हर शब्द का नोटिस ले रहे होंगे। लोकतंत्र एक लचीली व्यवस्था है, और इसमें फौलादी दीवारें नहीं बनाई जा सकतीं। किसी मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में मामला भी चल रहा है, और उसी मुद्दे पर कानून बनाने की ताकत रखने वाली संसद में भी बहस चलती रहती है, और सांसद और जज दोनों ही एक-दूसरे की बातों को सुनते रहते हैं। इसलिए संसद या न्यायपालिका को किसी टापू पर अलग से बसकर काम करने की जरूरत नहीं रहती, और विचारों का प्रवाह चारों तरफ जारी रहता है। लेकिन यह बात सही है कि जब सोशल मीडिया पर बदनीयत से किसी जज के खिलाफ #सुप्रीमकोठा जैसी मुहिम छेड़ी जाती है, तो उस जज की मानसिक स्थिति पर उसका असर होना तय रहता है। लेकिन जिन हाथों में देश के बड़े से बड़े लोगों पर फैसला देने का अधिकार रहता है, उनके सिरों पर ऐसा बोझ तो कभी न कभी आ ही सकता है।
दूसरी तरफ अमरीकी न्यायव्यवस्था को देखें तो वह भी पिछले एक पखवाड़े से लगातार अभूतपूर्व चर्चा में है। उसके एक के बाद एक फैसले अमरीका को 18वीं सदी में ले जाने वाले कहे जा रहे हैं, पचास बरस पहले से वहां सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले से स्थापित गर्भपात के हक को महिला से छीन लिया गया है, दूसरी तरफ लोगों के सार्वजनिक जगहों पर निजी हथियार लेकर जाने के हक को जायज करार दिया गया है। ऐसे ही एक-दो और फैसलों को लेकर अमरीका मेें आज सुप्रीम कोर्ट को पाषाण युग की अदालत कहा जा रहा है, और वहां तो अदालती फैसले के बाद उससे सहमत या असहमत जजों में से एक-एक के इतिहास को खंगालकर यह विश्लेषण भी किया जाता है कि उनमें से किसकी पहले कैसी निजी विचारधारा रही है, और वह इस फैसले में कैसी झलक रही है। लोग जजों के राजनीतिक संबंधों पर भी लिखते हैं कि किस राष्ट्रपति ने किस विचारधारा के तहत उस व्यक्ति को जज बनाया था। वहां जज बनने के पहले ही राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत व्यक्ति को लंबी संसदीय सुनवाई का सामना करना पड़ता है जिनमें उनसे हर किस्म के निजी और सार्वजनिक सवाल करते हुए सांसद टीवी कैमरों के सामने कई-कई दिन तक उनकी निजता की बखिया उधेड़ते हैं। ऐसे जजों के सामने जब कोई मामले रहते हैं, तो उनकी अदालतों के सामने सडक़ों पर लोग प्रदर्शन करते रहते हैं, और अलग-अलग किस्म की मांग करते रहते हैं, विरोध करते हुए बैनर-पोस्टर लेकर जुलूस निकालते रहते हैं। वह एक अधिक बड़ा सार्वजनिक दबाव रहता है, लेकिन किसी अमरीकी जज ने कभी ऐसे दबाव का जिक्र नहीं किया है।
हिन्दुस्तान में भी जजों को सोशल मीडिया पर उनके और उनके फैसलों के बारे में कही जा रही बातों को अनसुना करना चाहिए। उन्हें यह भी अनसुना करना चाहिए कि टीवी जैसे बकवास मीडिया पर सबसे घटिया दर्जे के हिंसक और साम्प्रदायिक लोग अदालत में खड़े हुए मुद्दों पर क्या बकवास कर रहे हैं। कुछ तो जजों को अपने को ऐसी बकवास से दूर रखना चाहिए, और फिर भी अगर उनके आंख-कान तक ये पहुंच ही जाएं, तो भी उन्हें अनदेखा और अनसुना करना सीखना चाहिए। लोकतंत्र के सभी स्तंभों को चमड़ी कुछ मोटी करने की आदत डालनी चाहिए, ताकि वे तरह-तरह की प्रतिक्रियाओं के प्रति अधिक संवेदनशील न रहें। आज के वक्त तो मीडिया के अच्छे और बुरे सभी किस्म के महत्वपूर्ण लोगों के खिलाफ सोशल मीडिया पर अभियान चलते ही रहते हैं, केन्द्र सरकार में बैठे बड़े-बड़े केन्द्रीय मंत्रियों ने जर्नलिस्ट और प्रेस शब्दों को तोड़-मरोडक़र प्रेस्टीट्यूट जैसा शब्द निकाला है जिसका मतलब एक वेश्या-पत्रकार होता है। इसलिए लोकतंत्र में ओछी और घटिया मुहिम से सिर्फ न्यायपालिका अपने आपको बचाए, यह भी जायज नहीं होगा। उसके हाथ में तो अदालती ताकत है, और वह तो किसी बात को अपनी अवमानना मानकर लोगों को कटघरे में बुला सकती है, लेकिन सार्वजनिक जीवन के उन जिम्मेदार लोगों का क्या होगा जिन्हें हजार-हजार लोग बलात्कार की धमकी देते हैं, जिनके बच्चों तक को बलात्कार की धमकियां दी जाती हैं? अगर सोशल मीडिया को रेगुलेट करने का कोई कानून बनना है, तो वह सिर्फ न्यायपालिका की इज्जत बचाने के लिए नहीं बनाया जाना चाहिए। वह सोशल मीडिया पर किसी भी तबके की बेइज्जती के खिलाफ बनाया जाना चाहिए, और हकीकत तो यह है कि ऐसा मजबूत कानून बना हुआ है, लेकिन सरकारें अपनी राजनीतिक पसंद के मुताबिक ऐसे जुर्म अनदेखे करते चलती हैं। हिन्दुस्तानी सुप्रीम कोर्ट के जज आज तक तो किसी भी तरह के हमले से परे रहते आए हैं, उन्हें बेफिक्री से, और बेधडक़ अपना काम करना चाहिए, क्योंकि नाजुक मुद्दों पर उनका हर फैसला इतिहास भी गढ़ता और बदलता है।