संपादकीय
राष्ट्रपति चुनाव हफ्ते भर बाद है, और कई पार्टियों और गठबंधनों के रूख में थोड़ा-बहुत फर्क भी आते दिख रहा है। देश में सत्तारूढ़ एनडीए ने भाजपा की एक पुरानी नेता, आदिवासी महिला, द्रौपदी मुर्मू को तब उम्मीदवार घोषित किया जब एनडीए-उम्मीदवार का नाम जानने की राह देखते-देखते विपक्ष की डेढ़ दर्जन पार्टियों ने यशवंत सिन्हा को अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया था। अब आज जब दोनों ही उम्मीदवार देश भर के प्रदेशों में जाकर वहां पार्टियों के सांसदों और विधायकों से समर्थन मांग रहे हैं तब ऐसा दिखाई पड़ रहा है कि एनडीए की पसंद संयुक्त-विपक्ष की पसंद पर खासी भारी पड़ रही है। विधायकों और सांसदों के वोटों की शक्ल में तो द्रौपदी मुर्मू को फायदा मिलते दिख ही रहा है, जो लोग उन्हें वोट नहीं देने वाले हैं, वे भी उन्हें एक बेहतर उम्मीदवार मान रहे हैं। अब कल तक यशवंत सिन्हा ममता बैनर्जी की तृणमूल कांग्रेस के पदाधिकारी थे, और उन्होंने संयुक्त-विपक्ष प्रत्याशी बनने के लिए पार्टी से इस्तीफा दिया था। इस हिसाब से वे ममता बैनर्जी की पसंद थे, और उनकी उम्मीदवारी से विपक्ष में ममता बैनर्जी का महत्व भी बढ़ा था। और ममता बैनर्जी से खासे तनावपूर्ण रिश्ते होने के बावजूद कांग्रेस ने सबसे आगे बढक़र यशवंत सिन्हा का समर्थन किया था। लेकिन उसके बाद से लगातार पार्टियों और नेताओं का ऐसा रूख दिख रहा है कि द्रौपदी मुर्मू राजनीतिक और रणनीतिक रूप से एक बेहतर उम्मीदवार हैं।
महाराष्ट्र में शिवसेना में बगावत के बाद अब बंटवारे जैसी नौबत है, और विधायकों के बाद अब सांसदों में भी बंटवारा होते दिख रहा है, और उद्धव ठाकरे की भाजपा से सारी कटुता के बावजूद शिवसेना सांसदों का बहुमत द्रौपदी मुर्मू के पक्ष में दिख रहा है। चूंकि वे ओडिशा से आती हैं, इसलिए एनडीए से तनावपूर्ण संबंधों के बावजूद बीजू जनता दल उनके लिए समर्थन घोषित कर चुका है। वे जिस झारखंड में राज्यपाल रही हैं, वहां के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन आज केन्द्र की मोदी सरकार के निशाने पर हैं, लेकिन इस आदिवासी-राज्य के मुख्यमंत्री की हैसियत से उन्होंने अपनी पार्टी का समर्थन द्रौपदी मुर्मू के लिए घोषित किया है जबकि वे कांग्रेस के साथ गठबंधन सरकार में हैं।
यहां तक तो बात ठीक थी, लेकिन यशवंत सिन्हा वाली पार्टी की मुखिया ममता बैनर्जी ने कुछ दिन पहले द्रौपदी मुर्मू को लेकर यह बात कही कि अगर उन्हें एनडीए की उम्मीदवार का नाम पहले पता होता तो हालात बिल्कुल अलग होते। उन्होंने कहा था कि अगर उन्हें बीजेपी की उम्मीदवार के बारे में पहले सुझाव होता तो इसे सर्वदलीय बैठक में चर्चा कर सकते थे। आदिवासी-महिला या अल्पसंख्यक उम्मीदवार का नाम होने पर उनका (ममता बैनर्जी) रूख अलग होता। उन्होंने एक किस्म से मलाल के साथ यह कहा कि विपक्ष के गठबंधन में 16-17 पार्टियां हैं, और वे एकतरफा अपना कदम पीछे नहीं खींच सकतीं। मतलब यही है कि वे द्रौपदी मुर्मू को एक बेहतर उम्मीदवार मान रही हैं जबकि यशवंत सिन्हा खुद ममता बैनर्जी की पसंद हैं।
अब देश की बाकी चुनावी राजनीति से परे राष्ट्रपति के चुनाव में बहुत सी पार्टियां अपने व्यापक आम चुनावी गठबंधनों से परे हटकर भी वोट डालती हैं। एनडीए में रहते हुए कांग्रेस की उम्मीदवार प्रतिभा पाटिल को बाल ठाकरे ने इसलिए शिवसेना का समर्थन दिलवाया था क्योंकि वे महाराष्ट्र की थीं। और इसी तरह ममता बैनर्जी ने कांग्रेस से कटुता के बावजूद प्रणब मुखर्जी को राष्ट्रपति बनाने के लिए अपना समर्थन दिया था क्योंकि वे बंगाल के थे। और अब द्रौपदी मुर्मू को बहुत से लोग इसलिए समर्थन दे रहे हैं कि वे महिला हैं, आदिवासी हैं, और वे देश की पहली आदिवासी राष्ट्रपति बन सकती हैं। आज हिन्दुस्तान में महिला राष्ट्रपति का मुद्दा भी बड़ा है, और आदिवासी राष्ट्रपति का मुद्दा तो बड़ा है ही। इन दोनों को मिलाकर जब एनडीए के मुखिया प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने द्रौपदी मुर्मू को उम्मीदवार बनाया, तो वह एक राजनीतिक सूझबूझ की बात थी कि एनडीए के बाहर के भी कौन लोग उनके नाम का साथ दे सकते हैं। यह राजनीतिक होशियारी कोई बुरी बात नहीं है, और यह देश के प्रदेशों और राजनीतिक दलों की पसंद और उनकी मजबूरी को समझते हुए लिया गया एक ऐसा रणनीतिक फैसला था जो कि सही साबित हो रहा है। बाकी लोगों की बातों के अलावा ममता बैनर्जी ने जिस तरह का रूख द्रौपदी मुर्मू को लेकर दिखाया है, और आज इस पर चर्चा इसलिए भी की जा रही है कि द्रौपदी मुर्मू आज बंगाल में हैं, और वे सांसदों और विधायकों से मिलकर समर्थन की अपील करेंगी।
अपनी उम्मीदवार को जिताकर राष्ट्रपति बनवाने की नरेन्द्र मोदी-अमित शाह की क्षमता पर किसी को वैसे भी कोई शक नहीं है, लेकिन उन्होंने जिस तबके की उम्मीदवार छांटी है, वह भी एक समझदारी का फैसला साबित हो रहा है। यशवंत सिन्हा की कई खूबियां हो सकती हैं, लेकिन उनके बारे में कुछ लोगों का यह मानना है कि अटल सरकार का हिस्सा रहते हुए भी उन्होंने गुजरात दंगों के वक्त मोदी के बारे में कुछ भी नहीं कहा था। इसी तरह वे एनडीए सरकार का लंबे समय तक हिस्सा रहे, जिसमें वे भाजपा के बड़े पदाधिकारी थे लेकिन उन्होंने साम्प्रदायिकता जैसे मुद्दों पर कोई असहमति नहीं जताई। यशवंत सिन्हा का नाम कल तक भाजपा में रहने वाले और आज भाजपा के खिलाफ किस्म का भी है। ऐसे में हमेशा से भाजपा में रहीं द्रौपदी मुर्मू एक अधिक प्रतिबद्ध उम्मीदवार दिखती हैं।
राजनीति में आदर्श कुछ नहीं होता, जो कुछ होता है वह बेहतर होता है। जो सामने पेश हैं, उनमें से बेहतर को छांटने का हक ही लोकतंत्र का चुनाव है। ऐसे में राष्ट्रपति उम्मीदवार बनाने के लिए भाजपा ने एक तुरूप का पत्ता छांटा, और आदिवासी-महिला को उम्मीदवार बनाया। इस पसंद के साथ ही कई पार्टियों ने एक-एक करके खुद होकर उन्हें समर्थन घोषित किया। राजनीति में ऐसी पसंद भी एक कामयाबी का सुबूत रहती है, और देश को पहला आदिवासी राष्ट्रपति मिले, इसका विरोध करना आसान नहीं है, फिर चाहे इस रबर स्टाम्प पोस्ट के लिए यह उम्मीदवार भाजपा की ही क्यों न हो। हफ्ते भर बाद मतदान के वक्त पता लगेगा कि उम्मीदवार के नाम ने किन-किन लोगों को एनडीए के बाहर से भी द्रौपदी मुर्मू के लिए अपनी ओर खींचा।
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