संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सार्वजनिक जगहों पर राजनीतिक गुंडागर्दी के खिलाफ उठने की जरूरत
16-Jul-2022 4:51 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सार्वजनिक जगहों पर राजनीतिक गुंडागर्दी के खिलाफ उठने की जरूरत

बाम्बे हाईकोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार से पूछा है कि वह राजनेताओं से यह क्यों नहीं कह सकती कि वे अवैध होर्डिंग्स पर अपनी तस्वीर न लगवाएं। पूरे प्रदेश में अवैध होर्डिंग और बैनर ने सार्वजनिक जगहों को तबाह कर रखा है, खूबसूरती तो खत्म हुई ही है, कई जगहों पर ऐसे होर्डिंग और बैनर से फंसकर दुर्घटनाएं भी होती हैं। मोटेतौर पर राजनीतिक दलों का नाम और उनके नेताओं का चेहरा उन पर दिखता है। हाईकोर्ट ने इनके खिलाफ सरकार को आदेश दिया था लेकिन सरकार ने उस पर कोई अमल नहीं किया। सार्वजनिक जगहों पर बैनर-होर्डिंग के अलावा जगह-जगह पोस्टर, स्वागत द्वार, और इश्तहार के दूसरे तरीकों के बारे में भी इस मामले में सुनवाई हो रही है। लोगों को याद होगा कि कुछ अरसा पहले चेन्नई में 23 बरस की एक युवती पर सडक़ के डिवाइडर पर लगाया गया एक होर्डिंग गिर गया था, और इसके बाद वह सडक़ पर गिरी तो एक ट्रक ने उसे कुचल दिया, और उसकी मौत हो गई। उस वक्त मद्रास हाईकोर्ट ने यह कहा था कि अवैध होर्डिंग्स के खिलाफ आदेश दे-देकर वह थक गया है।

इन दो महानगरों के हाईकोर्ट का अफसोस देखकर यह बात समझ आती है कि अपने चेहरों के अवैध होर्डिंग लगाने वाले नेताओं की सेहत पर हाईकोर्ट के किसी ऑर्डर का कोई फर्क नहीं पड़ता। ठीक उसी तरह जिस तरह कि जिला प्रशासन के आदेश का शादियों और बारातों पर कोई फर्क नहीं पड़ता, लाउडस्पीकरों पर हाईकोर्ट के आदेश का कोई फर्क नहीं पड़ता, ठीक उसी तरह कि चुनाव आयोग की खर्च सीमा का चुनावी खर्च पर कोई फर्क नहीं पड़ता। यह लोकतंत्र कतरे-कतरे में धीरे-धीरे नाकामयाब और बेअसर होते चल रहा है। आज सार्वजनिक जीवन में साम्प्रदायिक ताकतें जिस हमलावर अराजकता के साथ हावी हो चुकी हैं, उनसे निपटने के लिए पूरे देश की पुलिस कम पड़ेगी। आज हिंसक हमलावरों की मेहरबानी यही है कि वे किसी प्रदेश में एक साथ हमला नहीं कर रही हैं, वरना देश का कोई प्रदेश इन ताकतों से न जूझ सके। इसी तरह सरकारी दफ्तरों में भ्रष्टाचार की अराजकता, सडक़ों पर गैरकानूनी गाडिय़ों, खूनी रफ्तार, और ओवरलोड की अराजकता, खुद सरकारों की बदनीयत की कार्रवाई की अराजकता देश को आज तबाह कर रही हैं। ऐसे में शहरी सार्वजनिक जगहों पर गैरकानूनी होर्डिंग्स का मामला बाकी चीजों के मुकाबले छोटा जुर्म है, और कम हिंसक है, लेकिन यह हजारों करोड़ सालाना का दो नंबर का धंधा है। जिन होर्डिंग्स से म्युनिसिपलों या सरकारी संपत्तियों को मोटी रकम मिलनी चाहिए, उनका नाम भी सरकारी रिकॉर्ड में नहीं आता, क्योंकि उनके पीछे नेताओं का हाथ रहता है, और सामने उनका चेहरा। देश के कमोबेश हर राज्य में ऐसा ही ढर्रा चला हुआ है, और जब तक अदालत से किसी अफसर को सजा मिलने का खतरा न हो, किसी अफसर को अदालत का कोई डर नहीं रहता।

आज सार्वजनिक अराजकता को बचाना और बढ़ाना स्थानीय नेताओं के बाहुबल का एक सुबूत रहता है कि वे अपनी कितनी मनमानी कर सकते हैं। उनके समर्थकों के लिए यह शक्तिप्रदर्शन का एक जरिया रहता है जिससे वे इलाके के कारोबारियों और सरकारी अफसरों के सहम जाने की उम्मीद करते हैं। लोगों को जिस सरकारी दफ्तर पर दबाव बनाने की जरूरत रहती है, उसी के आसपास वे उस विभाग के मंत्री के साथ अपनी तस्वीर के होर्डिंग लगाते हैं, ताकि उनके जाने पर अफसर को यह पता रहे कि वे मंत्री के किसी करीबी से बात कर रहे हैं। महाराष्ट्र तो फिर भी जागरूक जनता का प्रदेश है, और लोग सार्वजनिक मुद्दों को लेकर अदालत तक जाते हैं, और इलाके के मवाली-नेताओं से हिंसा का खतरा भी उठाते हैं। छत्तीसगढ़ सरीखे प्रदेश सार्वजनिक जनचेतना से पूरी तरह मुक्त हैं, और यहां पर अराजकता सिर चढक़र बोलती है। इक्का-दुक्का जनसंगठन किसी मामले में हाईकोर्ट तक पहुंचते भी हैं, तो भी वहां का हुक्म अफसर रद्दी की टोकरी में डालते हैं। अगर जनता के भीतर जागरूक लोगों के संगठन या अकेले जागरूक नागरिक भी सार्वजनिक मुद्दों को लेकर सरकार और अदालत तक पहुंचने का सिलसिला चलाएंगे, तो ऐसे प्रदेश भी राजनीतिक ताकत की गुंडागर्दी से आजाद हो सकेंगे। आज सार्वजनिक जगहों पर धर्म, राजनीति, सामाजिक संगठनों के नाम पर जिस तरह गुंडागर्दी दिखती है, उसमें कानून की इज्जत करने वाले आम लोग सबसे अधिक पिसते हैं। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए। सत्ता पर काबिज लोग वोटों के फेर में लोगों में अराजकता को बढ़ाते चलते हैं, और उनके बीच अपनी ताकत भी दिखाते चलते हैं। जनता के बीच के लोग इसके खिलाफ जनहित याचिकाएं दायर करें, तो धीरे-धीरे नेताओं और अफसरों की बददिमागी खत्म हो सकती है। और फिर एक बात समझने की जरूरत है कि जब जागरूकता आती है, तो वह सहेलियों सहित आती है। एक जागरूक समाज सरकारी तालाबों, बगीचों, और खेल मैदानों के कारोबारी इस्तेमाल के खिलाफ भी उठ खड़ा होगा, सरकारी पैसों की बर्बादी के खिलाफ भी आवाज उठाएगा, और भ्रष्टाचार के खिलाफ भी लोग संगठित होंगे। जैसा कि लोकतंत्र के बारे में कहा जाता है कि लोगों को वैसी ही सरकार हासिल होती है, जैसी सरकार के वे हकदार होते हैं। इसलिए लोगों को हकदार बनकर दिखाना होगा, तो उन्हें कोई काबिल सरकार मिलेगी, और बेहतर सरकारी काम मिलेगा, और सार्वजनिक जगहें बेहतर होंगी। आज का मुर्दा समाज अपने बच्चों के लिए निजी घर-दुकान तो छोडक़र जा सकता है, लेकिन यह समाज शहर को एक कब्रिस्तान की तरह मुर्दा छोडक़र भी जाएगा। अराजकता के खिलाफ लोगों को खड़ा होने की जरूरत है। दुनिया का इतिहास यह बताता है कि बिना किसी स्वार्थ के जब लोग जुल्म के खिलाफ जुटते हैं, तो उनके साथ धीरे-धीरे उम्मीद से अधिक लोग आ जाते हैं। हर प्रदेश और हर शहर में लोगों को सार्वजनिक जगहों के ऐसे बाहुबली इस्तेमाल के खिलाफ पहले सरकार को लिखना चाहिए, और फिर वहां असर न हो, तो अदालत जाना चाहिए।
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