संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : बरसों की कैद के बाद बाहर निकले बेकसूरों को मुआवजा क्यों नहीं?
20-Jul-2022 4:33 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : बरसों की कैद के बाद बाहर निकले बेकसूरों को मुआवजा क्यों नहीं?

हिन्दुस्तान की एक बड़ी खूबी यह है कि हर दिन कहीं न कहीं कुछ न कुछ ऐसा होता है जिससे लगता है कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है। अभी दो हफ्ते पहले हमने इसी जगह उत्तरप्रदेश के एक अदालती फैसले के बाद लिखा था कि हिन्दुस्तानी लोकतंत्र किस हद तक नाकामयाब हो गया है, अदालतें किस तरह बेइंसाफी करती हैं, आमतौर पर अंधाधुंध देर करके। उत्तरप्रदेश का यह मामला 44 बरस के एक मजदूर का था जिस पर पुलिस ने आरोप लगाया था कि उसके पास कट्टा है। और यह देसी पिस्तौल उसके पास से कभी बरामद नहीं हुई, और यह मुकदमा 26 बरस चला, उसे 400 बार अदालत में पेश होना पड़ा, 2020 में निचली अदालत ने उसे बरी कर दिया था, लेकिन सरकारी वकील ने जोर डालकर मामला फिर खुलवाया था, और अब 2022 में वह 70 बरस की उम्र में इस तोहमत से बरी हुआ है। इस दौरान पूरा परिवार तबाह हो गया है। इसी संपादकीय में हमने यह सुझाया था कि राम के उत्तरप्रदेश में रामरतन नाम के इस गरीब के 26 बरसों को तबाह करने के एवज में उसे न्यूनतम मजदूरी जितना मुआवजा तो मिलना चाहिए। इससे उसके बच्चों की जा चुकी पढ़ाई का तो कोई मुआवजा नहीं मिल सकता, परिवार की जिंदगी दुबारा नहीं आ सकती, लेकिन लोकतंत्र को अपनी नीयत और नीति स्थापित करने के लिए ऐसे मुआवजे करने का इंतजाम करना चाहिए।

एक पखवाड़े के भीतर ही छत्तीसगढ़ के बस्तर में एक दूसरा मामला सामने आया है जिस पर हम उसके बाकी पहलुओं पर तीन दिन पहले ही लिख चुके हैं, लेकिन उसके एक पहलू पर लिखा जाना बाकी है। बस्तर के दंतेवाड़ा के एनआईए कोर्ट ने 121 आदिवासियों को बरी किया है जिन पर एक नक्सल हमले में भागीदार होने के आरोप में एनआईए ने यूएपीए जैसे कड़े कानून के तहत मुकदमा चलाया हुआ था। सीआरपीएफ के 25 लोगों को मारने वाला नक्सल हमला जिस इलाके में हुआ था वहां के 122 लोगों को पुलिस ने गिरफ्तार किया था जिनमें से एक की मौत हुई, और बाकी लोग बिना जमानत जेल में पांच साल गुजारकर अभी बरी हुए हैं। जिन लोगों को गिरफ्तार किया गया था उनसे जिन सामानों की जब्ती पुलिस ने बनाई थी, और एनआईए ने मुकदमे में जिनका इस्तेमाल किया था उनमें धनुषबाण जैसा आदिवासियों के काम का रोजाना का हथियार भी था। खैर, ये सारे के सारे लोग अदालत से छूटकर पांच बरस बाद बाहर निकले हैं, इनमें से बहुत से तो 19-20 बरस के थे जब वे जेल गए थे। अब सवाल यह उठता है कि बिना जमानत जिन लोगों को जेल में रहना पड़ता है, और फिर जो बेकसूर साबित होकर बाहर निकलते हैं, उनके इन बरसों का क्या इंसाफ हो सकता है? हमने उत्तरप्रदेश के मामले में यह सुझाया ही था कि इतने दिनों की सरकारी रेट से न्यूनतम मजदूरी तो इन लोगों को देनी ही चाहिए ताकि जो गरीब लोग परिवार से दूर जेल में रहने को मजबूर थे, उन्हें इन बरसों का कुछ मुआवजा मिल सके।

बस्तर के नक्सल मामलों में गिरफ्तार किए जाने वाले बेकसूर आदिवासी तो बेकसूर रहते हैं, लेकिन बहुत से लोग इतने खुशकिस्मत नहीं रहते, और उन्हें सुरक्षाबल गांव-जंगल में ही बिना किसी कुसूर के मार गिराते हैं। हाल के बरसों में ऐसे बड़े-बड़े कई मामले सामने आए हैं, और न्यायिक जांच के निष्कर्ष की शक्ल में सामने आए हैं जिनमें सुरक्षाबलों के हाथों बेकसूरों की मौत स्थापित हुई है। ऐसे ही बस्तर में इस पहलू पर भी सोचने की जरूरत है कि नक्सलियों को हथियार डालने पर कई तरह की मदद की सार्वजनिक घोषणा सरकार बरसों से करती आई है। हर कुछ दिनों में नक्सलियों का आत्मसमर्पण दिखाया जाता है, और वे असली नक्सली हों, या कि सरकारी आंकड़े बढ़ाकर जनधारणा के लिए दिखाए गए नक्सली हों, उन्हें मुआवजा मिलता है, पुनर्वास का मौका मिलता है। जब हथियारबंद जुर्म करने वाले नक्सलियों को भी पुनर्वास का मौका मिलता है, तो फिर जांच एजेंसियों और अदालतों के शिकार ऐसे बेकसूर आदिवासियों को मुआवजा और पुनर्वास क्यों नहीं मिलना चाहिए? छत्तीसगढ़ सरकार इस बारे में देश में एक मिसाल पेश कर सकती है कि वह जेलों से बेकसूर छूटने वाले लोगों को उनके विचाराधीन बंदी रहने के दिनों की न्यूनतम मजदूरी जितनी रोजी दे। यह रकम पैसे वाले कैदियों के लिए किसी काम की नहीं रहेगी, लेकिन गरीब कैदियों के लिए यह जरूर काम की होगी। सरकार इसे केवल गरीबी की रेखा के नीचे के लोगों के लिए शुरू कर सकती है, और इससे लोकतांत्रिक सरकार की न्याय व्यवस्था की चूक या कमजोरी पर एक जुर्माना लगेगा, और सबसे गरीब परिवारों पर गिरी हुई बिजली से उन्हें थोड़ी सी राहत मिलेगी। अगर छत्तीसगढ़ सरकार ऐसी पहल करती है तो धीरे-धीरे देश के बाकी प्रदेशों की सरकारों को भी इस रास्ते चलना पड़ेगा क्योंकि गरीबी की रेखा के नीचे के परिवार इस हालत में भी नहीं रहते हैं कि वे परिवार के एक कमाऊ सदस्य के बरसों के लिए चले जाने पर रोजाना की आम जिंदगी के इंतजाम कर सकें। ऐसे तमाम परिवारों में बच्चों की पढ़ाई छूट जाती है, बीमारों का इलाज नहीं हो पाता है।

जिस बस्तर में रोजाना ही सरकार आत्मसमर्पित नक्सलियों को नगदी प्रोत्साहन देने की खबरें जारी करती है, और उनके पुनर्वास का कई तरह का इंतजाम करती है, वहां पर सुरक्षाबलों के हाथों जेल जाने वाले बेकसूर साबित हुए लोगों को तो एक मुआवजा मिलना ही चाहिए, वरना आज के लोकतांत्रिक इंतजाम में तो आदिवासियों का भरोसा ही इस व्यवस्था से उठते चले जाएगा, और उन्हें लगते रहेगा कि हथियार उठाने पर ही सरकार मदद करती है, उसके बिना सरकार की नजर में वे या तो गोली मार देने लायक हैं, या जेलों में बंद कर देने लायक हैं। किसी एक इलाके में, किसी एक तबके में सरकार की नीतियां एक सरीखी रहनी भी चाहिए, और दिखनी भी चाहिए।

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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