संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : इस पुरूषप्रधान भारत में छात्राओं की ब्रा उतरवाना देश की आम सोच के तहत
21-Jul-2022 4:01 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  इस पुरूषप्रधान भारत में छात्राओं की ब्रा उतरवाना देश की आम सोच के तहत

देश के मेडिकल और डेंटल कॉलेजों में दाखिले होने वाले नीट इम्तिहान को लेकर एक नया विवाद खड़ा हुआ है जिसमें केरल के कुछ परीक्षा केन्द्रों में छात्राओं को तब तक भीतर नहीं जाने दिया गया जब तक उन्होंने अपनी ब्रा नहीं उतार दी। दरअसल नीट परीक्षा आयोजित करने वाली संस्था नेशनल टेस्टिंग एजेंसी का नियम मेटल डिटेक्टर से जांच करके, बिना धातु के किसी सामान के ही भीतर जाने देने का है। ब्रा के हुक और वायर धातु के होते हैं, और उनसे मेटल डिटेक्टर के बजने पर इन छात्राओं को रोक दिया गया था। केरल में ऐसी ही एक छात्रा के पिता ने पुलिस में रिपोर्ट लिखाई है जिसमें उन्होंने बताया कि उनकी बेटी ने जब यह इनरवियर उतारने से मना कर दिया, तो उसे परीक्षा देने से मना कर दिया गया है। रिपोर्ट में लिखाया है कि एक कमरा इनरविनर से भरा हुआ था, उनमें बहुत से लोग रो रहे थे, और इस तरह के भद्दे बर्ताव से बच्चों को मानसिक रूप से प्रताडि़त किया जा रहा था, बहुत सी लड़कियां वहीं अपनी ब्रा उतार रही थीं, और पिछले बरसों में भी ऐसी नौबत आई है जब छात्राओं से ब्रा उतरवाई गई, और आसपास मौजूद पुरूष परीक्षक उन्हें घूरते रहे। हैरानी की बात यह है कि नेशनल टेस्टिंग एजेंसी ने एक बयान में कहा है कि उन्हें इस घटना के बारे में कोई शिकायत नहीं मिली है।

एक कड़े मुकाबले वाले ऐसे दाखिला इम्तिहान में बच्चे वैसे भी बहुत दबाव और तनाव के साथ शामिल होते हैं। ऐसे में लड़कियों को उनके रोजमर्रा के अनिवार्य रूप से पहनने वाले कपड़ों को उतरवाकर बैठने को कहा जाए, तो यह जाहिर है कि इस बात से उनका इम्तिहान देना बुरी तरह प्रभावित होगा। इम्तिहान के नियम-कायदे बनाने वाले लोग न सिर्फ बेवकूफ हैं, बल्कि वे संवेदनाशून्य और अमानवीय भी हैं। इम्तिहान के पोशाक के नियम धातु के धार्मिक प्रतीकों को तो भीतर जाने की छूट दे रहे हैं, लेकिन लड़कियों की बदन की प्राकृतिक जरूरत के मुताबिक जो कपड़े बिल्कुल ही जरूरी हैं, उन्हें धातु के हुक की वजह से उतरवाया जा रहा है। धर्म का सम्मान जिंदा लडक़ी के बदन के सम्मान से बढक़र हो गया। और देश भर में जब करोड़ों बच्चे ऐसे इम्तिहान में शामिल होते हैं, और उनमें शायद आधे से अधिक लड़कियां होती हैं, तब ऐसे नियम बनाना सजा के लायक काम है। अगर इस देश में बनाई गई संवैधानिक संस्थाओं पर सत्तारूढ़ पार्टियों के मनचाहे और पसंदीदा लोग काबिज न होते, तो ऐसे नियमों और इंतजाम पर अब तक कई नोटिस जारी हो गए होते। एक खबर यह जरूर है कि केरल की पुलिस ने छात्राओं की ब्रा जबर्दस्ती उतरवाने वाली पांच महिलाओं को गिरफ्तार किया है। इन लड़कियों के मां-बाप ने यह भी कहा कि उनकी बच्चियां बरसों से इस इम्तिहान की तैयारी कर रही थीं, और उन्हें अच्छे नंबर पाने की उम्मीद थी, लेकिन जब उनकी ब्रा उतरवाकर उन्हें छात्रों के बीच बैठकर, पुरूष परीक्षकों की नजरों के सामने इम्तिहान देना पड़ा, तो वे मानसिक यातना से गुजर रही थीं, और इससे उनका लिखना बुरी तरह प्रभावित हुआ है।

हिन्दुस्तान में लड़कियों और महिलाओं की प्राकृतिक जरूरतों के लिए समाज संवेदनाशून्य है। सार्वजनिक जगहों से लेकर सरकारी दफ्तरों तक महिलाओं के लिए शौचालयों का इंतजाम कहीं होता है, और कहीं नहीं भी होता है। बहुत ऊंचे दर्जे के दफ्तरों की बात छोड़ दें, तो आम दफ्तरों और सार्वजनिक जगहों पर महिलाओं के माहवारी के दिनों के लिए कोई इंतजाम नहीं रहता। और ऐसी तरह-तरह की दिक्कतों का असर महिलाओं के मनोबल पर भी पड़ता है, और लडक़ों और आदमियों के मुकाबले उनकी संभावनाएं भी पिछडऩे लगती हैं। कहने के लिए तो केन्द्र और राज्य में मानवाधिकार आयोग और महिला आयोग बने हुए हैं, लेकिन उन पर काबिज लोग सरकारों के लिए कोई दिक्कत खड़ी करना नहीं चाहते, और अधिकतर ऐसे मामलों में तो सरकार ही जिम्मेदार रहती है। नेशनल टेस्टिंग एजेंसी के डायरेक्टर जनरल विनीत जोशी के नाम से भी यह समझा जा सकता है कि यह एजेंसी लड़कियों की बुनियादी जरूरत के प्रति इस कदर गैरजिम्मेदार क्यों है। हिन्दुस्तान की पुरूष प्रधान और ब्राम्हणवादी समाज व्यवस्था में महिला की जगह उतनी ही है जितनी जगह महिलाओं के लिए मंदिरों में पुजारी के काम के लिए हो सकती है। कदम-कदम पर महिलाओं को कुचलना, उन्हें बराबरी पर नहीं आने देना, इसकी साजिशें कई बार तो शायद बिना कोशिश भी होती रहती हैं क्योंकि नीति और योजना बनाने वाले लोगों की सोच को इस तरह से काम करने के लिए कोई कोशिश नहीं करनी पड़ती। अभी तीन दिन पहले ही यह खबर आई थी कि रिश्तों वाली वेबसाइटों पर ऐसी युवतियों पर कम ध्यान दिया जाता है जो कामकाजी हैं। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की एक शोध छात्रा ने ऐसी एक वेबसाइट पर एक परीक्षण करके देखा कि जिन युवतियों के प्रोफाइल में वे कामकाजी नहीं दिखती हैं, उनमें 15-20 फीसदी अधिक दिलचस्पी ली जाती है। एक कामकाजी महिला के प्रोफाइल में 78 से 85 लोगों ने दिलचस्पी ली जबकि इतने ही वक्त में कोई काम न करने वाली महिला में सौ लोगों ने दिलचस्पी ली। भारतीय मूल की इस शोध छात्रा दिवा धर ने इस प्रयोग के लिए 20 ऐसी नकली प्रोफाइल बनाई जो बाकी तमाम मामलों में एक सरीखी थीं, सिवाय कामकाज के, या भविष्य में काम करने के। इसके बाद उन पर पहुंचने वाले लोगों को देखा तो काम न करने वाली महिलाओं में सबसे अधिक आदमी दिलचस्पी लेते हैं, इसके बाद बारी उन महिलाओं की आती है जो अभी काम कर रही हैं, लेकिन काम छोडऩा चाहती हैं। इस पूरे प्रयोग के बारे में यहां पर लिखना मुमकिन नहीं है लेकिन कुल मिलाकर बात यह है कि हिन्दुस्तान में लडक़ी या महिला का आगे बढऩा सबको खटकता है, और वह अगर कामयाब हो जाती है, तो उसमें लोगों की दिलचस्पी कम हो जाती है। यही वजह है कि नीतियां और योजना बनाने वाले लोगों को लड़कियों और महिलाओं की जरूरतें सूझती ही नहीं हैं। महिलाओं के हक और उनकी जरूरतों को लेकर लगातार और हमेशा चलने वाले एक आंदोलन की जरूरत है, तो शायद अगली सदी तक हिन्दुस्तान किसी बराबरी तक पहुंच पाए।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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