संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : अर्धसत्य असत्य के मुकाबले भी अधिक खतरनाक होता है, अपनी साख बचाकर रखें...
26-Jul-2022 4:43 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : अर्धसत्य असत्य के मुकाबले भी अधिक खतरनाक होता है, अपनी साख बचाकर रखें...

आज की दुनिया इन्फर्मेशन ओवरलोड की शिकार है। कोई इंसान एक दिन में जितना पढ़ सकते हैं, सुन या देख सकते हैं, उससे करोड़ों गुना अधिक उनके इर्द-गिर्द इंटरनेट पर तैर रहा है। अधिक सक्रिय और अधिक जुड़े हुए लोगों को वॉट्सऐप जैसे मैसेंजरों पर इतना अधिक आता है कि आम लोगों के लिए यह मुमकिन नहीं रहता कि उसे जांच-परख लें। यह एक और बात है कि अधिकतर लोगों के बीच ऐसे उत्साही इंसान जिंदा रहते हैं जो कि पूरी गैरजिम्मेदारी के साथ चीजों को आगे बढ़ाने को उतावले रहते हैं। नतीजा यह होता है कि लोग झूठी बातों को भी आगे बढ़ा देते हैं, और अक्सर ही यह जानते हुए भी आगे बढ़ा देते हैं कि वह झूठ है। लोगों को संपर्कों के अपने दायरे में यह दिखाने की भी एक हड़बड़ी रहती है कि उनके पास दिखाने को कुछ है। हर किसी को यह साबित करने की चाह रहती है कि उनका भेजा हुआ, या उनका पोस्ट किया हुआ भी लोग देखते हैं, और गैरजिम्मेदारी से उसे पसंद भी करते हैं।

अब अभी कल की ही बात है, योरप की एक बड़ी पर्यावरण आंदोलनकारी छात्रा ग्रेटा थनबर्ग के बारे में एक पोस्टर लोगों ने सोशल मीडिया पर पोस्ट किया जिसमें उसने जर्मन रेलगाडिय़ों को भीड़भरा बताया, और अपनी एक तस्वीर पोस्ट की जिसमें वह एक डिब्बे में अपने सामान सहित फर्श पर बैठी हुई है। अभी पोस्ट की हुई जानकारी यह भी बताती है कि जर्मन रेलवे ने तुरंत ही यह पोस्ट किया कि ग्रेटा थनबर्ग का फस्र्ट क्लास के डिब्बे में रिजर्वेशन था, और उसके लिए फलां सीट नंबर तय था। इस बात को ग्रेट थनबर्ग के खिलाफ इस्तेमाल किया गया कि पर्यावरण बचाने के नाम पर वह झूठ फैलाती है। अच्छे-खासे, पढ़े-लिखे, विकसित देशों में बसे हुए लोगों ने भी इस पोस्टर का मजा लिया क्योंकि पर्यावरण बचाने की मुहिम छेड़े हुए इस लडक़ी ने दुनिया के बड़े-बड़े नेताओं का जीना हराम किया हुआ है, और अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप जैसे लोग इससे हलाकान थे। लेकिन जब इस पोस्टर की हकीकत ढूंढने की कोशिश की गई, तो दो बातें सामने आईं, एक तो यह कि यह करीब तीन बरस पुरानी बात है। ग्रेटा थनबर्ग के ट्वीट पर जर्मन रेलवे ने यह जानकारी जरूर दी थी। लेकिन ग्रेटा-विरोधियों ने इसके बाद के हिस्से को छुपाकर यह पोस्टर बनाया जिसमें ग्रेटा थनबर्ग ने यह लिखा था कि उसका ट्रेन सफर तीन हिस्सों में था, और इसमें से एक हिस्सा उसने डिब्बे के फर्श पर गुजारा था। उसने यह भी साफ किया कि ट्रेनों को भीड़भरा बताना उसके लिए कोई नकारात्मक बात नहीं थी बल्कि उसने इसे पर्यावरण के लिए एक अच्छी बात की तरह पेश किया था क्योंकि ट्रेनें पर्यावरण का कम नुकसान करती हैं।

इस बात को महज एक घटना की तरह देखना ठीक नहीं है, इसे लोगों के रूझान की तरह देखना ठीक है कि जो लोग जिन्हें पसंद नहीं करते हैं, उनके खिलाफ वे चुनिंदा तथ्यों को लेकर एक झूठ को आगे बढ़ाते हैं, या सच की एक ऐसी शक्ल को सामने रखते हैं जो कि अधूरी रहती है, और एक अलग धारणा बनाती है। पिछले कुछ बरसों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की कुछ तस्वीरें और कुछ वीडियो ऐसे भी सामने आए हैं जिनमें वे लोगों की उपेक्षा करते दिख रहे हैं। खासकर लालकृष्ण अडवानी के साथ मोदी की एक ऐसी तस्वीर है जिसमें अडवानी हाथ जोड़े हुए बहुत ही बुरी तरह दीन-हीन, गिड़गिड़ाते हुए से दिख रहे हैं, और मोदी सामने एक क्रूर अंदाज में खड़े हैं। यह तस्वीर अपने आपमें गढ़ी हुई नहीं थी, लेकिन यह एक सेकेंड के भी एक छोटे हिस्से को दिखाती हुई तस्वीर थी, जिसके पहले और बाद के पल जब दूसरी तस्वीरों में सामने आए, तो दिखा कि मोदी उसके पहले या बाद में नमस्कार कर चुके थे। कुछ इसी तरह का एक वीडियो अभी दो दिनों से सोशल मीडिया पर चल रहा है जिसमें जाते हुए राष्ट्रपति उनके विदाई समारोह में एक कतार में खड़े हुए लोगों के सामने से नमस्कार करते हुए आगे बढ़ रहे हैं, और वहां खड़े हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पूरी तरह मंत्रमुग्ध होकर कैमरों को देख रहे हैं, उस पल सामने से हाथ जोड़े हुए गुजरते हुए राष्ट्रपति को भी वे नहीं देख रहे हैं। बाद में इसके जवाब में भाजपा के लोगों ने एक दूसरा वीडियो पोस्ट किया जिसमें इन पलों के पहले के कुछ पल दिखते हैं, और उनमें मोदी राष्ट्रपति को नमस्कार कर चुके हैं, और राष्ट्रपति के सामने-सामने चलते हुए फोटोग्राफरों पर जब उनकी नजर टिकती है, तो फिर वहीं टिकी रह जाती है। अगर शुरू के इन पलों को न देखें, तो तस्वीर ऐसी बनती है कि मोदी ने राष्ट्रपति को देखा ही नहीं, और बस कैमरे देखते रह गए। यह एक अलग बात है कि कुछ पल राष्ट्रपति को देखने के बाद मोदी का ध्यान कैमरों की तरफ ही रह गया, लेकिन उन्होंने शुरू के कुछ पलों में राष्ट्रपति को नमस्ते तो कर लिया था।

आज का वक्त सूचनाओं के सैलाब का वक्त है, और साधारण समझबूझ के इंसानों के लिए यह आसान नहीं रहता कि वे इस सैलाब के बीच संभल पाएं। सुनामी सरीखे सैलाब से जूझते इंसान की तरह आज के लोगों के सामने दिक्कत यह रहती है कि उन्हें अपने संपर्कों के दायरे में अपनी मौजूदगी दर्ज करवाने की एक हड़बड़ी रहती है, और उसका दबाव भी रहता है। जिस तरह लोग अपने साथ के लोगों को निराश करने के बजाय उनके साथ सिगरेट या दारू पीने लगते हैं, या जुआ खेलने लगते हैं, ठीक उसी तरह आज लोग अपने गैरजिम्मेदार दायरे की बराबरी करने के लिए उसी के दर्जे की गैरजिम्मेदारी दिखाने में लग जाते हैं। फिर सच को आधे या पूरे झूठ की तरह दिखाने के लिए कुछ गढऩे की जरूरत भी नहीं रहती, चीजों को बस आधा दिखाना, चीजों को गलत वक्त का दिखा देना भी काफी होता है। उमा भारती का एक पुराना वीडियो नरेन्द्र मोदी के खिलाफ सबसे बुरी बातें कहते हुए इंटरनेट पर मौजूद है। उसे आज मोदी के खिलाफ इस्तेमाल किया जा सकता है, ठीक उसी तरह जिस तरह कि भारत के प्रधानमंत्री के खिलाफ मोदी के कहे हुए एक वीडियो को आज मजाक में इस्तेमाल किया जा रहा है जिसमें वे कह रहे हैं कि रूपया उसी देश का गिरता है जिस देश का प्रधानमंत्री गिरा रहता है।  अब उमा भारती ने भाजपा से बाहर रहते हुए जो कुछ कहा था उसे आज भी इस्तेमाल करने पर कोई कानूनी रोक नहीं है, लेकिन जिम्मेदार लोगों को यह समझने की जरूरत जरूर है कि कौन सी बात किस संदर्भ में कही गई थी।

संदर्भ से काटकर जब किसी बात को देखा जाता है, तो सरदार पटेल को नेहरू का विरोधी साबित किया जा सकता है, सरदार पटेल को आरएसएस का हिमायती साबित किया जा सकता है, गांधी, सुभाषचंद्र बोस, और भगत सिंह को संघ के मंच पर सजाया जा सकता है। आज आंखों से जो सच सा दिखता है, उसे भी परख लेने का वक्त है। और इंटरनेट की मेहरबानी से यह बड़ा मुश्किल काम भी नहीं है। जो जानकारी आपके सामने आ रही है, उसके चुनिंदा शब्दों को इंटरनेट पर सर्च कर देखें, बड़ी संभावना रहेगी कि आप हकीकत की गहराई तक पहुंच जाएं। इससे एक दूसरा फायदा यह भी होगा कि आप झूठ फैलाने से बचेंगे। याद रखें कि आज के वक्त आपकी साख बस उतनी ही है जितनी कि आपकी फैलाई गई बातों की है। इसलिए बदनीयत झूठों की भीड़ के दबाव में आकर उनकी बराबरी करने न उतरें, सच पर बने रहें।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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