संपादकीय
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ब्रिटेन में इन दिनों अगले प्रधानमंत्री के लिए कंजरवेटिव पार्टी के दो सांसदों के बीच मुकाबला चल रहा है। और इस मुकाबले को देखना हिन्दुस्तान के लोगों के लिए किसी किस्से कहानी सरीखा हो सकता है क्योंकि एक ही पार्टी के दो सांसदों के बीच सार्वजनिक रूप से जैसी बहस चल रही है, उसी पार्टी के सांसदों के बीच कई सांसदों को वोट देकर फिर अधिक वोट पाने वाले लोगों के बीच चुनकर जिस तरह दो आखिरी उम्मीदवार छांटे गए हैं, वह भी देखना दिलचस्प है। खासकर हिन्दुस्तान जैसे चुनावी लोकतंत्र में जहां पर कि किसी भी पार्टी में ऐसे किसी लोकतंत्र की उम्मीद की नहीं जा सकती। आज के ये दोनों ही उम्मीदवार, ऋषि सुनक और लिज ट्रस मौजूदा प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन के मंत्रिमंडल में शामिल थे, और जब बोरिस जॉनसन को बहुत मजबूरी में हटना ही पड़ा, तो अब ये दोनों अगले कुछ हफ्तों में पार्टी के रजिस्टर्ड वोटरों के बीच मतदान से अगला प्रधानमंत्री तय करवाएंगे। दूसरी तरफ इससे कुछ दूर हटकर देखें तो अमरीका में राष्ट्रपति चुनाव के पहले दोनों बड़ी पार्टियों के उम्मीदवार बनने के लिए उन पार्टियों के लोगों के बीच दावेदारी सामने आती है, वे दावेदार देश भर में घूमकर अपनी पार्टी के लोगों के बीच अपनी काबिलीयत के बारे में बताते हैं, और इस तरह देश भर से पहले तो पार्टियां ही अपने अधिकृत उम्मीदवार तय करती हैं, और फिर देश भर के वोटर उनमें से किसी को अगला राष्ट्रपति चुनते हैं। मतलब यह कि पार्टी के भीतर भी देश के सबसे बड़े पद के लिए उम्मीदवार बनने के लिए लोगों को बड़ी लोकतांत्रिक प्रक्रिया से होकर गुजरना पड़ता है, और इन दोनों ही मॉडल्स में पूरी पार्टी की भागीदारी हो जाती है।
अब अगर इस तरह की कोई कल्पना हिन्दुस्तान के बारे में की जाए, तो यहां ऐसा कोई लोकतंत्र मुमकिन नहीं दिखता। पहले तो पार्टी के पदाधिकारियों का चुनाव भी किसी लोकतांत्रिक तरीके से नहीं होता, और अधिकतर पार्टियों में एक परिवार के भीतर निपटारा हो जाता है, और भाजपा जैसी पार्टी में कहा जाता है कि संघ परिवार के भीतर निपटारा हो जाता है। हिन्दुस्तान में न तो प्रधानमंत्री, न ही मुख्यमंत्री, और न ही किसी और ओहदे के लिए कोई भी चुनाव होता है। पार्टी के संसदीय दल, या विधायक दल के नेता भी शायद ही कहीं बहुमत से चुने जाते हैं, और पार्टी हांकने वाले लोग बंद कमरों से संगठन और सरकार दोनों का भविष्य तय कर लेते हैं कि किस कुर्सी पर किसे बिठाना है। इसलिए जब कभी संगठन या सरकार की किसी कुर्सी के लिए चुनाव के बारे में सोचना हो, तो ब्रिटेन और अमरीका सरीखे मॉडल पर सोच लेना चाहिए। ये दोनों ही देश बाकी दुनिया के लिए चाहे कितने ही अलोकतांत्रिक क्यों न हों, कितने ही हमलावर क्यों न हों, ये दोनों ही अपने घर के भीतर लोकतांत्रिक सिलसिले को जिंदा रखे हुए हैं।
हिन्दुस्तान ने वैसे तो अधिकतर कुनबापरस्त पार्टियां ही देखी हैं, कांग्रेस से शुरू करके शिवसेना, राष्ट्रवादी कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, बसपा, राष्ट्रीय जनता दल, अकाली दल, चौटाला-कुनबा, नेशनल कांफ्रेंस, पीडीपी, टीआरएस, वाईएसआर कांग्रेस, डीएमके, जैसी अनगिनत पार्टियां हैं जिनमें सबसे बड़े फैसले भी परिवार नाश्ते की टेबिल पर ले सकता है, या रात के खाने पर। इनमें किसी संगठन की कोई भूमिका नहीं है। और जब भाजपा की भी बात आती है, तो उसमें भी नीचे से लेकर ऊपर तक किसी भी ओहदे के लिए लोगों का मनोनयन होता है, किसी तरह के चुनाव नहीं होते। अब यह मनोनयन आरएसएस करता है, या हाल के बरसों में नरेन्द्र मोदी और अमित शाह करते हैं, यह तो अंदर की बात है, लेकिन बाहर दिखावे के लिए भी किसी तरह का चुनाव नहीं होता है। अब इस नौबत की पूरी की पूरी तोहमत कांग्रेस की कुनबापरस्ती पर डालना ठीक होगा या नहीं, यह तो पता नहीं। लेकिन देश की सबसे पुरानी पार्टी होने के नाते, और इस पर एक ही कुनबे का प्रत्यक्ष और परोक्ष कब्जा होने की वजह से भारतीय राजनीति में परिवारवाद के लिए तोहमत तो इसे ही झेलनी पड़ेगी। आज भाजपा मोटेतौर पर लीडर के स्तर पर वंशवाद से मुक्त दिखती है, लेकिन वह आंतरिक लोकतंत्र से कोसों दूर भी है। उसके भीतर के तमाम बड़े फैसले रहस्यमय तरीके से अपने को राजनीति से दूर करार देने वाला एक सांस्कृतिक संगठन लेता है, या अब बदले हुए हालात में मोदी और शाह लेते हैं। और एक-दूसरे पर तोहमत लगाने की जरूरत को अगर छोड़ दें, तो तमाम कुनबापरस्त पार्टियां अपने भीतर मगनमस्त हैं। इनमें से किसी भी पार्टी के भीतर कुनबापरस्ती के खिलाफ कोई बेचैनी नहीं दिखती है, कोई आवाज नहीं उठती है। और तो और एक-दो मिसालें तो भारतीय राजनीति में ऐसी भी हैं कि कुनबे से परे भी नेता ने अपनी प्रेमिका को पार्टी का मुखिया बना दिया, और न सिर्फ संगठन ने, बल्कि जनता ने भी उसे मंजूर कर लिया।
जिन लोगों को घूमने-फिरने का शौक रहता है लेकिन दुनिया भर में जाने की सहूलियत नहीं रहती, वे लोग टीवी के कुछ चैनलों पर अलग-अलग देशों के सैर-सपाटे की डॉक्यूमेंट्री देख लेते हैं, और तसल्ली कर लेते हैं। उसी तरह जब हिन्दुस्तानियों को लोकतंत्र के बारे में कुछ अच्छा पढऩे की जरूरत लगे, लोकतंत्र के बारे में कुछ अच्छा महसूस करने की जरूरत लगे, तो उन्हें ब्रिटेन और अमरीका के ऐसे लोकतांत्रिक मॉडल के बारे में जरूर सोच लेना चाहिए, और यह मान लेना चाहिए कि हिन्दुस्तान में न सही, दुनिया में और कहीं इस तरह का जिंदा लोकतंत्र कायम तो है। दुष्यंत कुमार ने एक वक्त लिखा था- हो कहीं भी आग लेकिन, आग जलनी चाहिए...। इसी के मुताबिक लोगों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, आजाद मीडिया, लोकतांत्रिक पार्टियां, लोकतांत्रिक चुनाव, लोकतांत्रिक मूल्यों की अपनी हसरत पूरी करने के लिए दुनिया के बेहतर लोकतंत्रों की तरफ देखना चाहिए, और उनकी कामयाबी पर खुश हो लेना चाहिए।
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