संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : माईक सामने आते ही लोगों को यह क्यों लगता है कि उन्हें कुछ बेवकूफी उगलनी है?
31-Jul-2022 4:33 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  माईक सामने आते ही लोगों को यह क्यों लगता है कि उन्हें कुछ बेवकूफी उगलनी है?

महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी के एक बयान को लेकर बखेड़ा खड़ा हो गया है जिसमें मुम्बई के एक सार्वजनिक कार्यक्रम में मंच से माईक पर बोलते हुए राज्यपाल ने कहा- कभी-कभी मैं यहां लोगों से कहता हूं कि महाराष्ट्र में, विशेषकर मुम्बई और ठाणे से, गुजरातियों और राजस्थानियों को निकाल दो, तो तुम्हारे यहां कोई पैसा बचेगा ही नहीं। ये राजधानी जो कहलाती है आर्थिक राजधानी, ये आर्थिक राजधानी कहलाएगी ही नहीं। वे इन्हीं समुदायों में से एक से जुड़े एक नामकरण समारोह में बोल रहे थे। और जैसी कि उम्मीद की जा सकती है, राज्यपाल के इस बयान के बाद आज विपक्ष में बैठे शिवसेना के उद्धव ठाकरे समेत तमाम लोग राज्यपाल पर टूट पड़े। ठाकरे ने शिवसेना के परंपरागत हमलावर तेवरों के साथ कहा- भगत सिंह कोश्यारी ने भले ही महाराष्ट्र की संस्कृति देखी हो, लेकिन उन्हें कोल्हापुरी जोड़ा भी दिखाना होगा। उल्लेखनीय है कि कोल्हापुरी चप्पलें विश्वविख्यात हैं। ठाकरे ने यह भी कहा कि राज्यपाल ने मराठी लोगों का अपमान किया है, और इसके साथ ही उन्होंने हिन्दुओं को बांटने की कोशिश भी की है। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे, और उपमुख्यमंत्री देवेन्द्र फडनवीस ने भी राज्यपाल के बयान से असहमति जताई है, और कहा है कि महाराष्ट्र के निर्माण में मराठियों का योगदान सबसे ज्यादा है, और मुम्बई देश की आर्थिक राजधानी सिर्फ मराठियों की मेहनत से बनी है।

भगत सिंह कोश्यारी जिस इतिहास के साथ आते हैं, उसमें इस तरह की अनर्गल बातें कहना अटपटा नहीं समझा जाता। और खासकर जब अलग-अलग तबकों के बीच भेदभाव को बढ़ाने की बात हो, तो उसमें ऐसे लोग अतिरिक्त सक्रियता के साथ जुट जाते हैं। उनका पर्याप्त राजनीतिक अनुभव है, और वे महाराष्ट्र के बाहर के भी हैं। इसलिए वे ऐसी बातों की नजाकत को भी समझते हैं, और इनके खतरों को भी। वे उत्तराखंड विधानसभा, विधान परिषद से होते हुए राज्यसभा और लोकसभा सभी का तजुर्बा रखते हैं, और इसके पहले भी वे महाराष्ट्र के कुछ सबसे सम्मानजनक लोगों के बारे में अनर्गल बातें कर चुके हैं। मार्च में ही उन्होंने सावित्री बाई फुले के बाल विवाह को लेकर उटपटांग बात कही थी जिस पर बड़ा बवाल मचा था। इसके अलावा उन्होंने समर्थ रामदास को छत्रपति शिवाजी का गुरू करार दिया था जो कि ऐतिहासिक तथ्यों के विपरीत बात है और उस समय सत्तारूढ़ कांग्रेस एनसीपी, शिवसेना गठबंधन ने उनके बयानों पर आपत्ति जताई थी, और कहा था कि सावित्री बाई फुले के बाल विवाह का जिक्र करते हुए राज्यपाल ने जिस तरह हॅंसते हुए हाथों से कुछ इशारे किए थे, वह बहुत शर्मनाक था, गठबंधन ने कहा था कि ये महाराष्ट्र की बदनसीबी है कि उसे ऐसा गवर्नर मिला है। समर्थ रामदास को छत्रपति शिवाजी का गुरू बताने के पीछे भी महाराष्ट्र में यह वैचारिक विवाद चलता है कि ऐसा सुझाना ब्राम्हणों की गैरब्राम्हणों पर प्रभुत्व दिखाने की भावना है।

सार्वजनिक जीवन में जुबान पर लगाम देना किसी भी राजनीतिक दल में एक बुनियादी तालीम होनी चाहिए। जिस तरह प्राइमरी स्कूल में पहाड़ा और अक्षरज्ञान सिखाए जाते हैं, लिखना सिखाया जाता है, उसी तरह राजनीति में जुबान पर लगाम देना सिखाना चाहिए। ये राज्यपाल अकेले ऐसे नहीं हैं, अभी चार दिन पहले ही लोकसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता अधीर रंजन चौधरी ने जिस लापरवाही के साथ राष्ट्रपति की जगह राष्ट्रपत्नी शब्द का इस्तेमाल किया, उसने सदन के भीतर और बाहर बड़ी कड़वाहट घोल दी, और देश का मानो एक पूरा संसदीय दिन ही इस बदजुबानी को समर्पित हो गया। जो लोग राजनीति में लंबे समय से रहते हैं, उन्हें बदजुबानी की कोई रियायत नहीं दी जा सकती। और अधीर रंजन चौधरी तो इसके पहले भी मुंह खोलते ही पार्टी के लिए मुसीबत का सामान बनते रहे हैं। बहुत सी पार्टियों में बहुत से नेता ऐसे हैं जिन्होंने अपनी जुबान से अपनी पार्टी का नुकसान किया है। समाजवादी पार्टी के आजम खान के नाम को याद रखा जा सकता है जिन्होंने बलात्कार की शिकार एक छोटी बच्ची की लिखाई रिपोर्ट को राजनीतिक साजिश करार दिया था, और जिसके लिए उन्हें बाद में सुप्रीम कोर्ट की लताड़ भी पड़ी, और वहां जाकर माफी भी मांगनी पड़ी। ऐसे बयान ममता बैनर्जी से लेकर शरद यादव तक देते आए हैं, और ऐसी गंदगी बाद में दूसरी पार्टियों के लिए अपनी गंदगी के बचाव का तर्क बनती है।

चूंकि हिन्दुस्तान में अदालतों की एक सीमा है, और वैसे तो तमाम आबादी ऐसे बयानों को लेकर अदालत तक जाने के लिए आजाद है, लेकिन पहले से मामलों के बोझ से टूटी कमर वाली अदालतें और कितना बोझ झेल पाएंगी, इसका अंदाज लगाना अधिक मुश्किल नहीं है। इसलिए सार्वजनिक जीवन में बकवासी और मवादी बयान देने वाले लोगों के खिलाफ राजनीति और सार्वजनिक जीवन के लोगों को दूसरी संवैधानिक कार्रवाई करनी चाहिए। अगर महिला आयोग, बाल आयोग, अनुसूचित जाति आयोग, अनुसूचित जनजाति आयोग, अल्पसंख्यक आयोग में जाकर शिकायत करने की गुंजाइश हो, तो वहां शिकायत करनी चाहिए, या फिर सार्वजनिक बयानों के हमले से ओछे और घटिया बयानों का जवाब देना चाहिए। जब तक ऐसे बकवासी लोगों को सार्वजनिक रूप से उजागर नहीं किया जाएगा, तब तक उनकी बकवास जारी रहेगी। राज्यपाल के रूप में कोश्यारी अकेले नहीं हैं, और भी बहुत से राज्यपाल घटिया बातें करते आए हैं, घटिया हरकतें भी करते आए हैं। लोगों को याद होगा कि किस तरह के हालात में नारायण दत्त तिवारी को आन्ध्र का राजभवन छोडऩा पड़ा था, और उन्हें सेक्स वीडियो के विवाद के बीच वहां से निकलकर अघोषित संतान के डीएनए विवाद में आकर फंसना पड़ा था। राजनीतिक पार्टियों को भी अपने-अपने घटिया लोगों को काबू में रखना चाहिए क्योंकि उनकी वजह से देश के जलते-सुलगते मुद्दे धरे रह जाते हैं, और पार्टियां बकवासी में उलझ जाती हैं। महाराष्ट्र के राज्यपाल एक मिसाल हैं कि राज्यपाल कैसे नहीं होने चाहिए। किसी समझदार ने कहा भी है कि बेवकूफ होने में कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन जब बेवकूफ को बढ़-चढक़र बोलने का शौक हो, तब दिक्कत बड़ी रहती है।
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