विचार / लेख

भारतीय फ़िल्म इंडस्ट्री, अंतरराष्ट्रीय उड़ान के बजाय, उत्तर और दक्षिण के विवाद में...
01-Aug-2022 8:29 AM
भारतीय फ़िल्म इंडस्ट्री, अंतरराष्ट्रीय उड़ान के बजाय, उत्तर और दक्षिण के विवाद में...

-दिनेश श्रीनेत 

भारत में सिनेमा एक ऐसी कला है जिसके बारे में हर कोई साधिकार बोल सकता है। बोलना भी चाहिए। लोकप्रिय सिनेमा का निर्माण एक बड़े समूह को ध्यान में रखकर होता है। लेकिन जब हम उसे आलोचना के दायरे में लाते हैं तो उसकी अपनी एक सैद्धांतिकी और दायरा होता है। इसके माध्यम से हमारी सोसाइटी बहुत कुछ फिल्टर करती है और विमर्श की एक दिशा तय होती है। दुर्भाग्य से सिनेमा के मामले में ऐसा नहीं हुआ। 

हिंदी में आरंभ से ही सिनेमा पर गिने-चुने लिखने वाले रहे हैं। एक रूढ़ि बनी रही कि सिनेमा दोयम दर्जे की कला है। मुख्यधारा के अखबारों, पत्रिकाओं और ऑनलाइन मीडिया का हाल तो और भी बुरा रहा है। बीते करीब एक दशक से हिंदी मुख्यधारा का सिनेमा पीआर के चंगुल में था। जैसा ब्रीफ किया जाता था, जैसा वे चाहते थे, वैसा ही लिखा जाता था। 

हर फिल्म को पांच में तीन से चार स्टार मिलते थे, हर फिल्म की टुकड़ों में समीक्षा की जाती थी, जैसे कहानी कमजोर-पटकथा अच्छी, लोकेशन भव्य-फोटोग्रॉफी साधारण, संगीत सामान्य-गीत अच्छे। फिल्म स्टार्स के इंटरव्यू तक पीआर ही मैनेज करते थे। एक ही बात सभी जगह छपती थी। एक्सक्लूसिव इंटरव्यू भी शायद इसी शर्त पर मिलते थे कि कोई निगेटिव बात न तो पूछी जाए और न लिखी जाए। 

हिंदी के अखबारों में इतनी खराब समीक्षाएं छपती थीं कि फिल्म सचमुच कैसी है इसे जानने का दो ही तरीका था, या तो सोशल मीडिया पर फिल्म प्रेमी मित्रों से मशवरा किया जाए या आईएमडीबी के रिव्यू पढ़े जाएं। मुझे निर्विवाद रूप से आईएमडीबी में लिखे जाने वाले रिव्यू सबसे ईमानदार लगते हैं। कुछ ऑफबीट फिल्में बनाने वाले चालाक निर्माताओं ने अपनी मार्केटिंग के लिए आईएमडीबी पर भी पेड रिव्यू लिखवाने शुरू कर दिए। मगर दो हफ्ते-महीने में कोई न कोई पोल खोलने वाला आ ही जाता था। 
इतनी सब कहानी सुनाने के पीछे वजह ये थी कि अब मामला बिल्कुल उलट है। इन दिनों हर फिल्म की जमकर आलोचना हो रही है। जाने-माने समीक्षकों से लेकर यूट्यूबर तक बहती गंगा में हाथ धो रहे हैं। कुल मिलाकर फिल्म पर, उसके कलात्मक पक्ष पर, उसके कंटेंट पर, उसके सामाजिक सरोकारों पर अब भी बात नहीं हो रही है। 

अब मुद्दा है नेपोटिज़्म और हिंदूवाद। मुद्दा है दक्षिण का सिनेमा बनाम उत्तर भारत का सिनेमा। बॉलीवुड बनाम साउथ। किसी फिल्म की आलोचना इस आधार पर कैसे हो सकती है कि उसमें किस फिल्म स्टार के बेटे या बेटी ने काम किया है।
 
सभी जानते हैं कि धर्म के बाद जनमानस के दिल-दिमाग को प्रभावित करने का सबसे सशक्त माध्यम है सिनेमा। एक खास किस्म का लोकहितवाद हमारे लोकप्रिय सिनेमा की पहचान और ताकत रही है। संदेश की दृष्टि से वी शांताराम की 'पड़ोसी', मनमोहन देसाई की 'अमर अकबर एंथोनी' और गोविंद निहलानी की 'तमस' एक जैसे हैं। 

असल मकसद है इसमें फांक पैदा करना। 
यह सीधे-सीधे तो किया नहीं जा सकता लिहाजा जिम्मा सौंपा गया कुछ औसत प्रतिभा वाले कलाकारों और फिल्मकारों को। समाचार माध्यमों के जरिए एक बहस चली बॉलीवु़ड में नेपोटिज्म की, दूसरा प्रॉपेगैंडा सोशल मीडिया के जरिए चलाया गया और बॉलीवुड बनाम हिंदुत्व का फंडा फैलाया गया। तीसरी तरफ दक्षिण की कुछ गुणवत्ता में औसत दर्जे की मगर सफल फिल्मों के जरिए यह बहस छेड़ी गई कि दक्षिण का सिनेमा बेहतर है। 

कुल मकसद यह है कि सिनेमा जैसी सशक्त विधा को एक पॉलिटिकल प्रॉपेगैंडा का हथियार बनाया जाए। मनोरंजन की ताकत का इस्तेमाल परोक्ष रूप से खास राजनीतिक विचारधारा के प्रसार में किया जाए। देखा-देखी कई समझदार लोग भी इसी बहस में शामिल हो गए। कुछ ठीक-ठाक लिखने वाले समीक्षकों को भी नेपोटिज्म में टीआरपी दिख रही है। 

दिलीप मंडल ने यही फॉर्मूला अपनाते हुए तय किया कि वे सिनेमा के जातिवादी एंगल की पड़ताल करेंगे। यानी सिनेमा को अब उसकी कला के जरिए नहीं बल्कि इस आधार पर परखा जाएगा कि उसे किसने बनाया है? उसमें जो विषय उठाए गए हैं उनके संवेदनशील निर्वहन पर बात नहीं होगी बल्कि जो लोग उसके रचयिता हैं वो किस जाति-धर्म से आते हैं इस आधार पर मूल्यांकन होगा। 

यानी सिनेमा पर अब तक जो अधकचरा लिखा-पढ़ा जा रहा था, आने वाले समय में उसमें और गिरावट ही देखने को मिलेगी। सिनेमा की घरानेदारी की बहस बहुत बेबुनियाद है और गहराई में जाकर चीजों को नहीं देखा जा रहा है। लोकप्रिय सिनेमा एक बिजनेस है और कारोबार पर हमेशा घरानों का ही वर्चस्व रहा है। यकीन न हो तो देश के सबसे बड़े कारोबारियों के परिवार का इतिहास उठाकर देख लें। अमेरिका या हॉलीवुड का सिनेमा भी इसी तरह से विकसित हुआ है। डेविड सोल्जेनिक और वार्नर ब्रदर्स जैसे कई परिवारों का लंबे समय तक इंडस्ट्री पर वर्चस्व रहा है। 

भारत में सिनेमा की शुरुआत स्टूडियो सिस्टम से हुई। निर्देशक, लेखक, अभिनेता, संगीतकार और गीतकार तक बाकायदा वेतन पर नौकरी करते थे। एक फिल्म खत्म होती तो उसी टीम के साथ अगली फिल्म शुरू की जाती थी। बांबे टॉकीज और प्रभात कंपनी ने इसी पैटर्न पर यादगार फिल्में दी हैं। लेकिन जैसे-जैसे अभिनेताओं, गीतकारों और संगीतकारों को लोकप्रियता मिलती गई वे इस सिस्टम से छुटकारा पाने के लिए कसमसाने लगे। इसके बाद शुरू हुआ इंडिपेंडेंट निर्माता-निर्देशकों का दौर। 
जहां तक मेरी जानकारी है प्रीतिश नंदी ने फिल्म इंडस्ट्री को कॉरपोरेट का जामा पहनाने में पहल की थी और उसी दौरान प्रीतीश नंदी कम्यूनिकेशंस और एबीसीएल सामने आए। समय से पहले के प्रयास थे सो सफल नहीं हुए। लेकिन घरानों से हटकर ये कलाकार ही थे जिन्होंने सिनेमा को बेहतर बनाने में अपना योगदान दिया। सरोकार वाले निर्माता-निर्देशकों को भूल जाएं, सीधे-सीधे बिजनेस की बात करें। 

राज कपूर ने "आवारा हूँ" गीत को तत्कालीन सोवियत रूस के लोगों को गुनगुनाने पर मजबूर कर दिया। यश चोपड़ा की रोमांटिक फिल्मों ने एक समय में एनआरआई के बीच भारतीय सिनेमा की पैठ बनाई। केतन मेहता की प्रोडक्शन कंपनी ने तकनीकी पर फोकस बढ़ाया। विधु विनोद चोपड़ा ने बतौर निर्माता कारोबार को जबरदस्त ऊंचाइयां दीं। जिन आमिर खान को लोग कोस रहे हैं उन्होंने 'थ्री ईडियट्स' और 'दंगल' जैसी फिल्में दी हैं जिन्होंने पश्चिम और ईस्ट एशिया में एक साथ कारोबार की संभावनाओं को विस्तार दिया। 

अब, जबकि सही समय आ रहा था और भारतीय सिनेमा इंडस्ट्री को हॉलीवुड, कोरिया और हांगकांग के सिनेमा की तरह अंतरराष्ट्रीय फ़लक पर उड़ान भरनी थी, हम उत्तर और दक्षिण के विवाद में उलझते जा रहे हैं। (फ़ेसबुक से)

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